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ग़ज़ल-निलेश'नूर'-न समझो लड़ाई वो हारा हुआ है

१२२/१२२/१२२/१२२ 



न समझो लड़ाई वो हारा हुआ है,

उसे हारने का इशारा हुआ है.

***

उसे चाँद तारों की संगत मिली थी,

वो आवारगी में हमारा हुआ है.

***

मरूँगा, बचूंगा, नहीं है पता ये,

मगर वार दिल पे, करारा हुआ है.

***

बचा है वो ऐसे, जिसे डूबना था,      

कि फिर कोई तिनका सहारा हुआ है.  

***

सिकुड़ने लगा है मेरा आसमां अब,

नज़र से नज़र तक, नज़ारा हुआ है. 

***

वो आतिशफिशा था, मगर अब ये…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on December 12, 2013 at 9:17am — 44 Comments

क्षणिकाएं

1-मरणोपरांत

भूख से मरा था

शायद! इसीलिए

मरणोपरांत अखबार में

फ़ोटो छपी है

२-लाभ

आपके हीरे कि अँगूठी से अच्छा तो मेरा

मिट्टी का दीपक है

कम से कम

रात में प्रकाश तो फैलाता है

३-सौदा

आज उसके बच्चे भूखे नहीं सोये

वो कह रहा था

कुछ फर्क नहीं पड़ता

थोड़ा रक्त बेचने पर

४-तृप्ति

भूख शांत हो गयी

जली रोटी थी तो क्या? हुआ…

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Added by ram shiromani pathak on December 12, 2013 at 12:21am — 27 Comments

ठिठुरता मन........

रात का दूसरा पहर 

दूर तक पसरा सन्नाटा और

गहरा कोहरा

टिमटिमाती स्ट्रीटलाइट

जो कोहरे के दम से

अपना दम खो चुकी है लगभग

कितनी सर्द लेहर लगती है

जैसे कोहरे की प्रेमिका

ठंडी हवा बन गीत गाती हो

झूम जाती हो

कभी कभी हल्के से

कोहरे को अपनी बाहों में ले

आगे बढ़ जाया करती

पर कोहरा नकचढ़ा बन वापस

अपनी जगह आ बैठता

ज़िद्दी कोहरा प्रेम से परे

बस अपने काम का मारा

सर्द रात में खुद का साम्राज्य

जमाये है हर…

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Added by Priyanka singh on December 11, 2013 at 10:00pm — 41 Comments

वही कल वही आज

है वही रास्‍ते 

पथरीले चौड़े

पतले पक्‍के

घट गये रास्‍ते

बढ़ गयी दूरियाँ

 है वही गिलास

शरबतों से भरे

शराब से खाली

नशा प्‍यार का

नशा नशा का

दरवाजों पे दरबार

मन की शांति

मन का तनाव

भूला प्‍यार

बचा टकरार

वही है  रिश्‍ते

निभाने की होड़

दिखावट की होड़

मदद चाहत

मदद डर

प्रेम है वहीं

मन का मिलन

तन का मिलन

समर्पित  हम

धन…

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Added by Akhand Gahmari on December 11, 2013 at 9:00pm — 13 Comments

अमृता प्रीतम जी और ईश्वर ... (विजय निकोर)

अमृता प्रीतम जी और ईश्वर

कई लोग जो अमृता प्रीतम जी की रचनाओं से प्रभावित हैं अथवा उनके जीवन से परिचित हैं, उनकी मान्यता है कि अमृता जी विधाता में विश्वास नहीं करती थीं। इस कथन में वह ठीक हैं भी और नहीं भी। यह इसलिए कि अमृता जी का लेखक-जीवन इतना लम्बा था कि यह मान्यता इस पर निर्भर है कि वह कब किस पड़ाव में से गुज़रीं, और उनकी उस पड़ाव के दोरान की रचनाएँ क्या इंगित करती हैं।

 

अमृता जी की रचनाओं के लिए असीम श्रद्धा के नाते और जीवन को उनके समान असीम…

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Added by vijay nikore on December 11, 2013 at 5:30pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
"सजावट" अतुकांत - (गिरिराज भंडारी)

मुश्किल काम होता है

चढ़ाये रखना ,

लगातार बहुत समय तक 

सजावट को ,

रह पाये कोई अगर तुम्हारे साथ

अधिक समय तक

लगातार, तो

फीकी पड़ने लगेंगी…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 11, 2013 at 5:00pm — 27 Comments

रात को चाँद फिर आयेगा देखिये.

२१२  २१२   २१२     २१२

रात को चाँद फिर आयेगा देखिये

आके दिल फिर जला जायेगा देखिये

 

हम रहेंगे खड़े रात भर छत पे ही 

बादलों में वो छुप जायेगा देखिये

 

अपने दीवानों पे रोज ही इस तरह

चांद क्या क्या सितम ढायेगा देखिये

 

हम जिसे भूल पाए कभी हैं  नहीं

किस तरह वो भुला पायेगा देखिये

 

रंग गिरगिट के जैसे बदलता है जो 

कैसे वादे निभा पायेगा देखिये

 

चांदनी बन जमी पर उतरता रहा

खुद जमी पर…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on December 11, 2013 at 4:30pm — 20 Comments

क्षणिकाएँ

करवट  बदल रहा है कोई

-----------------------------------

शर्मसार नहीं हैं हम, हार कर भी ,

हाँ ,सदमे में जरूर  हैं , कि-

नींद में करवट, बदल रहा है कोई

 

जातिवाद का ज़हर

-----------------------

तुम नीलकंठ कहलाते हो ,

ज़हर कोई, कभी पिया…

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Added by Dr Dilip Mittal on December 11, 2013 at 2:30pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ढूँढो कहावतें ||दोहे||

कष्ट सहे जितने यहाँ,डाल समय की धूल|

अंत भला सो सब भला ,बीती बातें भूल||

 

विद्या वितरण से खुलें ,क्लिष्ट ज्ञान के राज|

कुशल तीर से ही सधे ,एक पंथ दो काज||

 

कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|

चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||

 

जिसके दर पर रो रहा , वो है भाव विहीन|

फिर क्यों आगे भैंसके,बजा रहा तू बीन|| 

 

सफल करो उपकार में,जीवन के दिन चार|

अंधे की लाठी पकड़ ,सड़क करा दो पार||

  …

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Added by rajesh kumari on December 11, 2013 at 2:30pm — 33 Comments

मेरे हमसफ़र

उदास सी थी वो सहर

खामोश स्तब्ध शाम थी

हवा भी कुछ रुकी सी थी

राहों की वो विरानियाँ

आँख में गई ठहर.....



एहसासों की एक लहर

यादों के नर्म बिछोने सी

विरह के लिए खिलोने सी

इश्क की रवानियाँ

रूह को सहलाए हर पहर.....



नदी से निकले एक नहर

अपनी ही धुन में बहती सी

विरक्ति को हाँ सहती सी

छोड़ गई निशानियाँ

दर्द बन गया जहर......



तुझ बिन सूना दिल का शहर

पलकें नम झुकी सी थी

आहटें खटकती सी थी …

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Added by Kiran Arya on December 11, 2013 at 2:30pm — 1 Comment


सदस्य कार्यकारिणी
इक सिर्फ तुझको देखूँ डगर में - शिज्जु

22- 1212- 1122

हर रात ख़्वाब के मैं सफ़र में

इक सिर्फ तुझको देखूँ डगर में

 

कुछ आज मखमली सी लगी धूप

क्या बात है न जाने सहर में

 

अंगारों पे चला मैं सहम के

इक हौसला भी था मेरे डर में

 

यूँ हैरतों से देखे मुझे लोग

है मेरा नाम आज खबर मे

 

हर शै पे हर मुकाम पे तू थी

तन्हा हुआ न तेरे नगर में

 

-मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on December 11, 2013 at 1:34pm — 44 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
११-१२-१३

ग्यारह - बारह  बाद में , है  तेरह का साल

अंकों ने  कैसा  किया , देखो  आज कमाल

देखो आज कमाल , दिवस यह  अच्छा बीते

आज किसी के  स्वप्न , नहीं रह जायें रीते  

दिल कहता है अरूण, आज तू कुंडलिया कह

है तेरह का साल , मास- तिथि बारह-ग्यारह ||

 

अरूण कुमार निगम

आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

 

मौलिक व अप्रकाशित

Added by अरुण कुमार निगम on December 11, 2013 at 9:30am — 11 Comments

योगी श्री अरविन्द/सॉनेट

सादर वन्दे वन्दनीय सुधी वृन्द।

महानुभावों सर्वज्ञात है, गत 5 दिसम्बर को महर्षि अरविन्द का निर्वाण दिवस था। आपका साहित्य(सावित्री अभी छू भी नहींसकी),मेरे हृदय को बहुत सहलाता है।यद्यपि  इस महान दार्शनिक,कवि और योगी के साहित्य की अध्यात्मिक ऊंचाई के दर्शन करने में भी समर्थ नहीं हूँ फिर भी सूरज को दिया दिखाने जैसा कार्य किया है,जो आपको निवेदित है।सादर निवेदन है कि मुझे जरुर अवगत कराएँ की मेरी समझ कहाँ तक सफल हो पाई…

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Added by Vindu Babu on December 11, 2013 at 8:11am — 20 Comments

दोहे -११(खिचड़ी)

दो पल की है ज़िन्दगी,हँस के जी लो यार !

कटुता को अब भूलकर ,बाटो थोड़ा प्यार!!

देने से मिलता सदा,खुद को भी सम्मान !

इस निवेश की गूढ़गति ,ध्यान रखें श्रीमान !!

रोम रोम पुलकित हुआ ,कितना कोमल वार !

अधरों पर मुसकान है ,तिरछे नैन कटार!!

मधुर कंठ की स्वामिनी,कोमल मृदु बर्ताव !

कष्टों पर औषधि सदृश ,भर जाती है घाव !!

घर घर में दिखते मुझे,दुस्शासन लंकेश !

फिर कैसे बँधते भला,द्रुपद सुता के केश!!

गिरते पत्ते…

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Added by ram shiromani pathak on December 11, 2013 at 12:08am — 24 Comments

दोहे-मोहें.

नेकनीयती वृन्द के, मुरझाये..….हैं फूल |

कहकर पुष्प गुलाब का, दिए सैकड़ों शूल ||

 

बही नाव……..पतवार भी, तूफानों की धार |

बढ़ा प्रेम तब सरित का, जब पाया मँझधार ||

 

कुल की करुणा कान में, बोली थी चुपचाप |

देख समय सूरज चढा, तू भी इसको भाप ||

 

अवसर का उपहास है, अनजाने ही हार |

भोग रहे पीड़ा कई, गए समय की मार ||

 

कागज़ पर लिखता रहा, विरह प्रेम के गीत |

जुडी कलम की छंद से, अनजाने ही प्रीत ||

 

तप…

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Added by Ashok Kumar Raktale on December 10, 2013 at 9:30pm — 13 Comments

कागज़ पर अंकित नक्शा नही है देश...

उन्हें विरासत में मिली है सीख

कि देश एक नक्शा है कागज़ का

चार फोल्ड कर लो

तो रुमाल बन कर जेब में आ जाये

देश का सारा खजाना

उनके बटुवे में है

तभी तो कितनी फूली दीखती उनकी जेब

इसीलिए वे करते घोषणाएं

कि हमने तुम पर

उन लोगों के ज़रिये

खूब लुटाये पैसे

मुठ्ठियाँ भर-भर के



विडम्बना ये कि अविवेकी हम

पहचान नही पाए असली दाता को

उन्हें नाज़ है कि

त्याग और बलिदान का

सर्वाधिकार उनके पास सुरक्षित…

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Added by anwar suhail on December 10, 2013 at 9:30pm — 9 Comments

कुंडलिया छंद - लक्ष्मण लडीवाला

गाली देते लोग जो , बोलें कभी सटीक,

गाली या अपशब्द क्या, लगते प्रेम प्रतीक ?

लगते प्रेम प्रतीक, कूल क्या उन्हें समझना

उनका ही उपहास, समझते जिनको अपना ||

यह तो है अपवाद, कहें सब प्रिय को साली.

स्नेह-प्रीति संवाद, न समझें इसको गाली ||

.

(2)

तू तू मै मै में करे, आपस में जो बात,

समझें इसको सभ्यता, या उनकी औकात |

या उनकी औकात, स्नेह की कहाँ निशानी

निखर सके व्यक्तित्व, अगर दिल हो इन्सानी |

कहे…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 10, 2013 at 7:00pm — 11 Comments

गज़ल -मेरे पीछे रुधन क्यों है

1222 1222

मेरे पीछे रुधन क्यों है
ये अश्कों का बज़न क्यों है

सजाया है जनाजे पर
उधारी का कफ़न क्यों है

कमायी पाप से दौलत
न काफी फिर ये धन क्यों है

बजा कर लाश पर बाजे
जगाने का जतन क्यों है

चले गोरे गये लेकिन
रुआँसा ये वतन क्यों है

हजारों घर जलाकर भी
ये माथे पर शिकन क्यों है


मौलिक एंव अप्रकाशित
उमेश कटारा

Added by umesh katara on December 10, 2013 at 3:30pm — 31 Comments

मिन्नत (लघु कथा)

'साहेब हमरी किडनी ख़राब है  I  इलाजु चलि रहा है I  उनकी जगह हमरे लरिकऊ का नौकरी तो दिहेव मालिक पर अकेलु लरिका नोडा (नॉएडा) चला जाई तो हमार देखभाल कौन करी I  इसै हियें लखनऊ माँ जगह दै देव साहेब , नहीं तो ई बुढ़िया मरि जाई I

'हाँ साहेब !" बेटे ने भी हाथ जोड़कर मिन्नत की I

' ठीक है, तुम लोग बाहर जाओ I  मै कुछ करता हूँ  I" 

माँ-बेटे बाहर चले गए I 'थोड़ी देर में  माँ को बाहर छोड़ कर बेटा फिर अन्दर आया I

'येस?' - साहेब ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा I

'सर,  मेरी माँ…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2013 at 1:00pm — 32 Comments

कसमों के गाँव

वादों की ..सडकों पे

कसमों के …गाँव हैं

प्रणय के ..पनघट पे

आँचल की ..छाँव है

…वादों की सडकों पे

…कसमों के गाँव हैं

प्रीतम की ……बातें हैं

धवल चांदनी …रातें हैं

सुधियों की .पगडंडी पे

अभिसार के ….पाँव हैं

…वादों की सडकों पे

…कसमों के गाँव हैं

शीत के …धुंधलके में

घूंघट की …..ओट में

प्रतिज्ञा की .देहरी पर

तड़पती एक .सांझ है

…वादों की सडकों पे

…कसमों के…

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Added by Sushil Sarna on December 10, 2013 at 1:00pm — 16 Comments

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