१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
छलकती आँखें हैं साकी हसीं इक जाम हो जाये
बना दो रिंद दुनिया को सुहानी शाम हो जाये
जुदा मजहब के लोगों को मिला दे आज ऐ साकी
तरीका कोई भी हो आज दिलकश काम हो जाये
हमें हिन्दू मुसल्मा कह लड़ाते हैं भिड़ाते हैं
करो कोई जतन ऐसा की हिंदी नाम हो जाये
हजारों फूल गुलशन में जुदा हैं रूप रंगत भी
मगर खुशबू जुदा मिलकर हसीं पैगाम हो जाये
न जाने किसकी साजिश है बहाते हम लहू…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on December 19, 2013 at 2:30pm — 21 Comments
Added by अजय कुमार सिंह on December 19, 2013 at 12:30pm — 12 Comments
(विजया घनाक्षरी) ८,८,८,८ पर प्रत्येक चरण में यति अंत में लघु गुरू या नगण
.
१)
शीत मलयज लिए, बदरी मैं नीर भरी
भरती मैं रूप नए , धरती सी धीर धरी
यत्त पंख चाक हुए , उड़ने से नहीं डरी
गरल के घूँट पिए , पीकर मैं नहीं मरी
अगन संताप दिए, प्रत्यक्ष तस्वीर खरी
बहु किरदार जिए , जगत की पीर हरी
परहित भाव लिए, संकल्प से नहीं टरी
पुष्प गुँफ झर गए, डार कभी नहीं झरी
(२)
जितनी भी बार…
ContinueAdded by rajesh kumari on December 19, 2013 at 11:30am — 20 Comments
सूरज को पिघलते देखा है
वक्त के साथ रिश्तो को बदलते देखा है ।
दौलत के लिये अपनो को लडते देखा है ॥
लिये आग चढा था जो सुबह आसँमा पे
शाम उस सूरज को पिघलते देखा है ।।
तैरा था जो लहरो के विपरीत हरदम ।
साहिल पे उस जहाज को डूबते देखा है ।।
हुआ करती थी जहाँ संस्कारो की बाते ।
हाँ आज मैने उन घरो को टूटते देखा है ॥
बैठा था कल तक जो किस्मत के भरोसे
उस शख्स को आज हाथ मलते…
ContinueAdded by बसंत नेमा on December 19, 2013 at 11:30am — 15 Comments
हथियार
==========
क्या नारी ने
सारी शक्तिया
समाहित कर ली हैं
खुद में ही
या इस्तेमाल हो रही हैं
हथियार की तरह
या हथियार बन
उठ खड़ीं हो गयी हैं
खुद ही संघार
करने के लिए
पापियों का
क्या अच्छे लोग भी
फंस रहे हैं इस
मकड़जाल में
खूब की हमने भी
माथा पच्ची पर
भगवान् ना थे हम
कि सुन-समझ-देख पाए
आखिर मांजरा क्या हैं
समझ पाए कि कौन
इस्तेमाल हो रहा हैं
कौन किया जा रहा हैं…
Added by savitamishra on December 19, 2013 at 10:00am — 14 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on December 19, 2013 at 9:30am — 18 Comments
1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2
कहा कब कि दुनिया ये ज़न्नत नहीं है
तुम्हे पा सकें ऐसी किस्मत नहीं है //1//
मोहब्बत को ज़ाहिर करें भी तो कैसे
पिघलने की हमको इजाज़त नहीं हैं //2//
तो वादों की जानिब कदम क्यों बढ़ाएं
निभाने की जब कोई सूरत नहीं है. //3//
बहुत सब्र है चाहतों में तुम्हारी
नज़र में ज़रा भी शरारत नहीं है //4//
सुलगती हुई आस हर बुझ गयी, पर
हमें आँधियों से…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 19, 2013 at 12:00am — 61 Comments
बस कुछ पल के लिए ,
आँखों में वो प्यार चाहता हूँ
तुम्हारे शब्दों को बेक़रार चाहता हूँ
क्यूँ की मेरे लिए तो बस
पहली बारिश की पानी सी तुम
अमूल्य अमित अनूठी कहानी सी तुम .....
बस कुछ पल के लिए ,
अगम्य मनोभावों में उलझे वो शब्द चाहता हूँ
तुम्हारे मन को मेरे समक्ष चाहता हूँ
क्यूँ की मेरे लिए तो बस
आँखों में बसी परेशानी सी तुम
मेरे प्रेम की अंतिम…
Added by Nishant Chourasia on December 18, 2013 at 11:00pm — 8 Comments
!!! चाल ढार्इ घर चले अब !!!
बन फजल हर पल बढ़े चल,
दासता के देश में अब।
रास्ते के श्वेत पत्थर
मील बन कर ताड़ते हैं
दंग करती नीति पथ की,
चाल ढार्इ घर चले अब।1
भूख पीड़ा सर्द रातें
राह पर अब कष्ट पलते
भ्रूण हत्या पाप ही है
राम के बनवास जैसा
साधु पहने श्वेत चोला
चाल ढार्इ घर चले अब।2
रोजगारी खो गर्इ है
रेत बनकर उड़ चुकी जो
फिर बवन्डर घिर रहा है
घूस खोरी सी सुनामी
दर-बदर अस्मत हुर्इ पर
चाल…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on December 18, 2013 at 7:08pm — 15 Comments
भोर को निशा बना दे, अंधकार ही घना दे।
हो सके तो श्वांस ना दे, आदमी को आदमी।
लोभ के गुणों को जापे, हर्ष के लिए विलापे।
स्वार्थ में कठोर शापे, आदमी को आदमी।
भाग में रहा बदा है, जोड़ता यदा कदा है।
बांटता चला सदा है, आदमी को आदमी।
शर्म ही बचा सकेगा, धर्म ही उठा सकेगा।
कर्म ही बना सकेगा, आदमी को आदमी।
_____मौलिक/अप्रकाशित______
Added by Sanjay Mishra 'Habib' on December 18, 2013 at 6:39pm — 10 Comments
एक रात अचानक पुलिस वाले उसे उग्रवादी बता कर घर से उठा कर ले गए. क्या क्या ज़ुल्म नहीं किये गए थे उस पर. वह चीख चीख कर खुद को बेनुगाह बताता रहा लेकिन सब कुछ सुनते हुए भी सरकारी जल्लाद बहरे बने रहे. यातनाएं सहते सहते तक़रीबन छह महीने बीत गए थे. तभी एक दिन सरकार ने अपनी नई नीति के अनुसार उसे रिहा कर दिया ताकि वह भी राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो सके. उसके वापिस लौटने से घर में ख़ुशी का वातावरण था, लेकिन वह जड़वत बैठा न जाने कहाँ खोया रहता. वृद्ध पिता ने एक दिन उसके कंधे पर हाथ रखकर…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on December 18, 2013 at 3:00pm — 38 Comments
दिन भर के सफर का
थका हुआ सूरज, मानो..
ज़मीं की सेज़ पर,
लहरों के झूले में,
चाँदनी की चादर ओढ़े
सबकुछ भूल के,
सोने जा रहा हो,
लहराते हुये लहरो में,
मानो,
कह रहा है
मेरे दोस्तो
विदा, फिर मिलेंगे सुबह...
मैं चला
होती है रात विश्राम को,
थकान मिटाने को,
चलें सफर में
रात के साथ...
पिछला ग़म भुलाने को
चलो
सुबह एक नई शुरूआत करेंगे
-मौलिक व…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on December 18, 2013 at 10:30am — 17 Comments
वो तेरे नखरे तुझे कुछ खास करते हैं
आज भी हम तो मिलन की आस करते हैं
इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं
बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी
ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं
बेवफाई कर नहीं सकता सनम मेरा
लोग यूँ ही आजकल बकवास करते हैं
कौन आगे बोलता है अब सितमगर के
बैठते हैं साथ में और लाश करते हैं
उमेश कटारा
मौलिक एंव अप्रकाशित
Added by umesh katara on December 18, 2013 at 9:30am — 16 Comments
२२१ २१२१ १२२१ २१२ |
| रिश्ते वफ़ा सब से निभाकर तो देखिए |
| सारे जहाँ को अपना बनाकर तो देखिए |
| इसका मिलेगे अज़्र खुदा से बहुत बड़ा |
| भूखे को एक रोटी खिलाकर तो देखिए … |
Added by SALIM RAZA REWA on December 18, 2013 at 9:30am — 13 Comments
समय के ,
सूर्य के ताप से
सूखता हुआ मल,
स्वयम ही,
स्वाभाविक रूप से ,
हो जायेगा
दुर्गन्ध हीन |
और फिर
वातावरण स्वयम…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 18, 2013 at 6:30am — 18 Comments
"अंकल, इस बार सामान के बिल में सौ-दो सौ रूपये जरा बढाकर लिख देना, आगे मैं समझ लूँगा" रोहन ने दुकानदार से कहा.
"ऐसा ?.. पर बेटा, यह तो तुम्हारे घर की ही लिस्ट है न ?" दुकानदार को बहुत आश्चर्य हुआ.
"हाँ है तो. पर क्या है कि पापा आजकल पॉकेटमनी देने में बहुत आना-कानी करने लगे हैं.. " रोहन ने अपनी परेशानी बतायी.
(संशोधित)
जितेन्द्र ' गीत '
( मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on December 18, 2013 at 12:00am — 43 Comments
वापसी में मेरे मकान के बाहर ही मुझे लालाभाई मिल गये. मेरे हाथों मे सब्जियों से भरा थैला देखते ही चौंक पड़े, "क्यों भाई, कहाँ से ये सब्जियाँ लूट कर ला रहे हो?"
मैने उन्हें ऊपर से नीचे तक निहारा, "लूट कर.. ? खरीद के ला रहा हूँ भाई.."
मेरे कहते ही लाला भाई ने तुरंत बनावटी गंभीरता ओढ़ते हुए कहा, "हुम्म्म.. तब तो इन्कम टैक्स वालों को बताना ही पड़ेगा .. और सीबीआई वालों को भी..! कि भाई, तुम आजकल भी सब्जियाँ झोला भर-भर के खरीद पा…
Added by Shubhranshu Pandey on December 17, 2013 at 8:30pm — 26 Comments
खाकर इक दूजे की कसम
हम प्यार अमर कर जाएँगे
कोई रोक सके तो रोक ले हमको
हम न जुदा हो पाएँगे
हम बगिया के फूल नहीं
जो हमको कोई ऊज़ाडेगा
हम ने की नही भूल कोई
जो हम को कोई सुधारेगा
लैला मजनूं के बाद अब हम
इतिहास में नाम लिखाएगें
कोई रोक........................
पतझड़ सावन बसंत बहार
ऋीतुएँ होती हैं ये चार
एक भी मौसम नही है ऐसा
जिसमें हम कर सकें न प्यार
बुरी नज़र जो डालेगा उसका
मुह काला कर…
Added by NEERAJ KHARE on December 17, 2013 at 7:32pm — 4 Comments
सोचती हूँ होती मेरी भी एक बिटिया
पढ़ती वो भी बिन कहे दिल की पतिया
भीगती जब असुअन से मेरी अखियाँ
पूछती माँ क्यूँ भीगी तेरी अखिंयाँ
बनाती बहाना चुभ गया कुछ बिटिया
कहती,समझती हूँ माँ तेरे दिल की बतियाँ !!
काश होती मेरी भी एक बिटिया
वो पढ़ लेती मेरे दिल की पतियाँ
होती मेरी हमसाया,हमराज,सखी
कहती ना कभी ऐसी बतियाँ
उड़ा देती जो मेरी रातों की निंदियाँ
माँ तुममे भी है कुछ कमियाँ !!
मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित
Added by Meena Pathak on December 17, 2013 at 5:15pm — 19 Comments
धूप उतर आयी
झरोखे से झांक
आज़ सुबह मेरे कमरे मे
जब धूप उतर आयी
बढ़ गई थोड़ी सी
चंचल तरुणाई ।
यह धूप आज़ महंगी है, पर –
कल तक आवारा थी
शांति मुझे देती अब
गंगा की धारा सी ।
कैसे बताऊँ क्या है ?
जल्द फिसल जाती है
तन ठिठुर जाता
हर छाँव सिहर जाती है ।
अब तक अनदेखी है
तेरी गोराई !
ऐसे मे अनजानी
याद तेरी आयी ।
आज़ मेरे कमरे मे –
धीरे से
धूप उतर आयी
बढ़ गयी थोड़ी सी
चंचल तरुणाई ।
-…
Added by S. C. Brahmachari on December 17, 2013 at 4:59pm — 15 Comments
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