मौन के शव ?
बोलते चुपचाप
बात करते आप
रौंदते है मूक अन्तस को
बधिर होता है हाहाकार
दग्ध पर नहीं होते वो
ध्वंस लेता है फिर आकार
यही होता है प्रकृति में
भावनाओ की विकृति में
सतत क्रम सा बार बार
सभी है सहते उसे
और हाँ कहते उसे
निष्ठुर प्रेम !
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 29, 2013 at 11:49am — 26 Comments
ग़ज़ल
२१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२
बेबसी की इंतिहा जब आह सुनती है
आँसुओं से बैठ कर फिर वक़्त बुनती है.
मरहले दर मरहले बढ़ती रही वो धुँध
जिंदगी क्यों, ये न जाने राह चुनती है.
जीभ से जो पेट तक है आग का दरिया
फलसफों को भूख जिसमें रोज़ धुनती है.
वो थका है कब हमारा इम्तिहाँ ले कर
रेत है जो भाड़ की हर वक़्त…
Added by dr lalit mohan pant on November 29, 2013 at 1:30am — 10 Comments
जख़्म किसने दिया बता दूँ क्या ?
दिल में चाकू कहो घुमा दूं क्या ?
हुक़्म पे तेरे चलता हूं आका ,
ये वफ़ादारियाँ निभा दूँ क्या ?
देखता हूं जिसे मैं सपनों में,
उसकी तस्वीर भी दिखा दूँ क्या ?
आपकी राजनीति कहती है
बस्तियाँ आपकी जला दूं क्या ?
अब किसी काम ही नहीं आता,
आग संविधान में लगा दूँ क्या?
sube singh sujan
यह रचना मौलिक तथा अप्रकाशित है।
Added by सूबे सिंह सुजान on November 28, 2013 at 10:13pm — 20 Comments
तुम विरह की पीड़ा हो,
या हो मिलन की मधुरता।
तुम प्रेम का उन्माद हो,
या हो हृदय की आकुलता।
तुम जीवन की गति हो,
या हो प्राणों का संचार।
तुम मात्र आकर्षण हो,
या हो मेरा पहला प्यार।
तुम मेरे जीवन की तपन हो,
या हो शीतल मंद बयार।
तुम इच्छाओं का सागर हो,
या प्रेम की उन्मुक्त फुहार।
हो तुम कहीं निशीथ तो नहीं,
या सचमुच 'सूर्य' मेरे जीवन के।
तुम सच में मेरी सम्पूर्णता हो,
या हो अपूर्ण स्वप्न मेरे मन के। …
Added by Savitri Rathore on November 28, 2013 at 9:33pm — 11 Comments
क्षणिकाएँ
आज़ादी का जश्न मना लेने भर से,
देश भक्तों की पहचान नही होती है ,
सिर उठाने की अगर कोशिश भी करे कोई तो ,
रूह कांप जाये ,ये वीर सपूतों की शान होती है.
उपजाऊ भूमी भी बंजर बन जाती है
बुद्दी जब…
ContinueAdded by Dr Dilip Mittal on November 28, 2013 at 9:30pm — 6 Comments
Added by Ravi Prakash on November 28, 2013 at 8:48pm — 15 Comments
भींगते तकियों से आँसू पी रही हैं दूरियाँ
मस्त हो नजदीकियों में जी रही हैं दूरियाँ
अनदिखी कितनी लकीरें खींच आँगन में खड़ीं
अनसुनेपन को बना बिस्तर दलानों में पड़ीं
बैठ फटती तल्खियों को सी रही हैं दूरियाँ
तोड़ देतीं फूल गर खिलता कभी एहसास का
कर रहीं रिश्तों के घर को महल जैसे ताश का
इन गुनाहों की सदा दोषी रही हैं दूरियाँ
प्यार में जब घुन लगा तो खोखलापन आ गया
भूतबँगले सा वहाँ भी खालीपन ही छा गया
ऐसे ही माहौल में…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 28, 2013 at 6:30pm — 11 Comments
धरती के उस छोर पर
धानी चूनर ओढ़ कर
वसुधा मिलती हैं अनन्त से जहाँ
चलो मिलते हैं वहाँ !!
बन्धन सारे तोड़ कर
लहरों की चादर ओढ़ कर
दरिया मिलता है किनारे से जहाँ
चलो मिलते हैं वहाँ!!
पर्वतों से निकल कर
लम्बी दूरी चल कर
नदियाँ मिलती है सागर से जहाँ
चलो मिलते हैं वहाँ!!
बसंती भोर में
खिले उपवन में
भँवरे फूलों से मिलते हैं जहाँ
चलो मिलते हैं वहाँ !!
स्वाति नक्षत्र के
वर्षा की…
Added by Meena Pathak on November 28, 2013 at 6:11pm — 32 Comments
कली बेजार है, अपनी नजाकत से
बला की खूबसूरत हैं, क़यामत से/१
अकेला हुस्न जो देखा सरे-महफ़िल
तो हम पहलू में जा बैठे शरारत से /२
ज़मीं पर चाँद उतरा है ख़ुशी है ; पर
सितारे ग़मज़दा हैं इस बगावत से /३
बदन सोने सरीखा है , अगर मानो
जरा सा तिल लगा दूँ मैं, इजाजत से /४
बड़े खामोश रहते हो, वजह क्या है
समंदर दिल में रक्खा है हिफाजत से/५
सुना जो बागबां से आप का किस्सा
गुलिस्तां छोड़ आये हैं शराफ़त से /६
मेरी माँ फिक्रमंदी में,…
ContinueAdded by Saarthi Baidyanath on November 28, 2013 at 11:30am — 19 Comments
!!!! टूटते विश्वास को !!!! नवगीत !!!!
किस तरह से
मै बचा लूँ
टूटते विश्वास को
लोग कहते,
भूल जाऊँ
आँख मून्दे ,
कान…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 27, 2013 at 11:30pm — 28 Comments
छंद- द्रुतविलंबित
लक्षण - 12 वर्णों के चार चरणों वाले इस छंद के प्रत्येक चरण में 1 नगण 2 भगण तथा 1 रगण होता है I
111 211 211 212
प्रकट है तटबंध प्रवाहिका
नयन गोचर है सरिता नहीं
इक तना लघु था सहसा तना
न चरता पशु भी इक पास में I
सरित का कुछ गान हुआ नहीं
पवन का कुछ भान हुआ नहीं
विरल जीवन मात्र पिपीलिका
सघन है वन नीरव देश भी I
उस तने पर है सब जीव…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 27, 2013 at 8:00pm — 12 Comments
कौन जाने
सिर्फ मैं हूँ,
या कि कोई और भी है,
जो उलझता है,
तड़पता है,
झुलसता है,
कभी फिर
बुझ भी जाता है...
जो उलझता है,
कि जैसे
ज़िन्दगी के क़ायदे-क़ानून
बनकर साजिशों के तार
चारों ओर से घेरा बनाकर
हर नये सपने
हर एक ख़्वाहिश
के सीने में चुभाकर
रवायतों की सलाईयाँ,
बुनते और बिछाते जा रहे हों
मकड़ियों के जाल...
जो तड़पता है,
उसी मानिन्द
जैसे सीपियों…
Added by अजय कुमार सिंह on November 27, 2013 at 5:51pm — 13 Comments
शब्द तरंगहीन
गहनतम
सान्द्रतम
और
निर्बाध उन्मुक्तता में अवस्थित
विलगता-विलयन के
सुलझे तारों पर स्पंदित
मन का अंतर्गुन्जन... / मदमस्त
जब चुन बैठे कोई स्वप्न
और
नियति
चरितार्थ करने को हो बाध्य !
तब,
विधि विधान…
Added by Dr.Prachi Singh on November 27, 2013 at 3:00pm — 34 Comments
उजालों की पनाहों में अंधेरे ढूँढ़ लाया है ।
ये दिल नादाँ बुरे हालात मेरे ढूँढ़ लाया है ।
के बीती रात जो यादें भुलाकर सो गया था मै ,
उन्हें जाने कहाँ से फिर सवेरे ढूँढ़ लाया है ।
ये अरमाँ ये तमन्नायें ये ख्वाहिश और ये सपने ,
मेरे चैनों सुकूनों के लुटेरे ढूँढ़ लाया है ।
ख़यालों कल्पनाओं की अज़ब दुनिया में खोया है ,
हकीकत से परे पहलू घनेरे ढूँढ़ लाया है ।
कभी सीखा न था हमने ग़ज़ल गीतों का ये दमखम ,
मेरी जानिब…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on November 27, 2013 at 1:32pm — 11 Comments
1. .....कुछ दीप जलते रह गए …
शायद हमारे प्यार के ....कुछ शब्द अधूरे रह गए
कुछ सकुचाये इकरार से ...कुछ नज़र से बह गए
मासूम लौ निर्बल हुई कम्बखत पवन के जोर से
कहने कहानी प्यार की ..कुछ दीप जलते रह गए
...............................................................................
2. ..........जिस्म तेरी यादों का ....
कफ़स बन के रह गया है .....ये जिस्म तेरी यादों का
सह रहा है अज़ाब कितना .अब ये दिल टूटे वादों का
अब तलब…
ContinueAdded by Sushil Sarna on November 27, 2013 at 1:00pm — 14 Comments
सारथी, अब रुको
ये जुए खोल दो
बस इसी ठांव तक
था नाता तेरा
पथ यहां से अगम
विघ्न होंगे चरम
बस इसी गांव तक
था अहाता तेरा
कर्म तरणी सखे
पार ले चल मुझे
सत्य साथी मेरे
धर्म त्राता मेरा
होम होना नियम
टूटने दे भरम
नीर नीरव धरा
क्षीर दाता मेरा
जा तुझे है शपथ
कर न मुझको विपथ
फिर मिलूंगा तुझे
है वादा मेरा
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on November 27, 2013 at 12:33pm — 19 Comments
व्यर्थ प्रपंचन छोड़कर,मीठी वाणी बोल!
कर तू खुद ही न्याय अब,अंतर के पट खोल !!
धुआँ धुआँ चहुँ ओर है,घिरी अँधेरी रात !
जुगनूँ फिर भी कर रहा,उजियारे की बात !!
लोगों को क्या हो गया,करते उल्टी बात !
कहें रात को दिवस अब ,और दिवस को रात !!
शब्दों के सामर्थ्य का, ऐसा हो अध्याय।
चले लेखनी आपकी, लिखे न्याय ही न्याय॥
नीति नियम दिखते नहीं ,भ्रष्ट हुए सब तंत्र !
जिसे देखिये रट रहा ,लोलुपता का…
Added by ram shiromani pathak on November 26, 2013 at 11:30pm — 28 Comments
छोटे शहर में ब्याही गईं, कुछ महानगर की लड़कियाँ।
जींस टॉप लेकर आईं, ससुराल में अपनी लड़कियाँ।।
बहुयें सभी बन गई सहेली, मुलाकातें भी होती रहीं।
जींस-टॉप में पहुँच गईं, एक उत्सव में बहू बेटियाँ॥
सास - ससुर नाराज हुए, पति देव बहुत शर्मिंदा हुए।
भिखारियों को घर पे बुलाए, साथ थी उनकी बेटियाँ।।
बड़ी देर तक समझाये फिर, जींस पेंट और टॉप…
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 26, 2013 at 10:30pm — 31 Comments
मैं बहुत हेट करती हूँ ……………
हेट हेट हेट
हाँ
मैं बहुत हेट करती हूँ
ये लव
मुहब्बत
और
प्यार जैसे
सब लफ़्ज़ों से
मुझे…
Added by Sushil Sarna on November 26, 2013 at 12:30pm — 18 Comments
'क्या सोचा?'
'अभी कुछ नहीं सोचा I '
'वैसे तुम बेकार घबरा रही हो i'
'मै घबरा नहीं रही '
'फिर-----?'
'सोचती हूँ यह कोई विकल्प नहीं है I '
'क्यों ------?'
'कल यही स्थिति फिर आएगी I '
'तब की तब देखा जायेगा I '
'तो अभी क्यों न देख ले ?'
'तुम समझी नहीं --'
'क्या---?'
'अभी हमें इसमें फंसने की क्या जरूरत है ?'
'क्यों ----?'
'ये दिन मौज करने के है, ऐश करने के है I '
'और-----बहारो के मजे लूटने के…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 26, 2013 at 12:17pm — 7 Comments
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