पहले देवता फुसफुसाते थे
उनके अस्पष्ट स्वर कानों में नहीं, आत्मा में गूँजते थे
वहाँ से रिसकर कभी मिट्टी में
कभी चूल्हे की आँच में, कभी पीपल की छाँव में
और कभी किसी अजनबी के नमस्कार में सुनाई पड़ते थे
तब हम धर्म मानते नहीं जीते थे
गुरुद्वारे की अरदास से लेकर मस्जिद की अजान तक
एक अदृश्य डोर थी
जो कभी किसी किताब से नहीं,
बल्कि रोजमर्रा की आदतों से बँधी थी
अब हर तरफ बहुत शोर है
घोषणाएँ, उद्घाटन, बहसें
हर तरफ लाउडस्पीकर ही लाउडस्पीकर
देवता अब बोलते नहीं
प्रसारण करते हैं
मैं जब मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ
तो मूर्ति से पहले कैमरा मुस्कुराता है
भक्ति का सजीव प्रसारण होता है
भीतर का मौन
अब शोर के नीचे दबकर
अपनी आखिरी साँसें गिन रहा है
मुझे याद आते हैं वे दिन
जब किसी बुज़ुर्ग के मुँह से
“राम राम बेटा” सुनना
पूजा करने से बड़ा पुण्य था
जब किसी मुसलमान से
“सलाम वालेकुम” सुनना
और पलटकर “वालेकुम अस्सलाम” कहना
रूह को ठंडक मिलने जैसा था
जब हम इतने धार्मिक थे
कि हमें धर्म बताने की ज़रूरत नहीं थी
वह हमारे भीतर की साँस की तरह चलता था
शब्दों से परे, शोर से परे
अब वही साँस
चौराहे पर राजनीति के झंडे लहरा रही है
देवता अब भी हैं
बस उन्होनें चिल्लाना शुरू कर दिया है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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