For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

सूरज को पिघलते देखा है

सूरज को पिघलते देखा है

वक्त के साथ रिश्तो को बदलते देखा है ।

दौलत के लिये अपनो को लडते देखा है ॥

लिये आग चढा था जो सुबह आसँमा पे

शाम उस सूरज को पिघलते देखा है ।।

तैरा था जो लहरो के विपरीत हरदम ।

साहिल पे उस जहाज को डूबते देखा है ।।

हुआ करती थी जहाँ संस्कारो की बाते ।

हाँ आज मैने उन घरो को टूटते देखा है  ॥

बैठा था कल तक जो किस्मत के भरोसे

उस  शख्स को  आज  हाथ मलते देखा है ॥

माँज के बर्तन जिसने पाला था बच्चो को ।

घर के बाहर उस माँ को  सोते देखा है ।।

इठलाया था जो देवो के शीश पे चढ के ।

उस फूल को पैरो से कुचलते देखा है ॥

मद लोभ अन्हकार से भला बचा है कौन ।

रावण कौरब कंस को मरते देखा है  ॥

"मौलिक व अप्रकाशित" 

Views: 803

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by बसंत नेमा on December 27, 2013 at 10:37am

आ0 सौरभ जी सादर प्रणाम , ... आप के कथन के अनुसार रचना को अओर प्रभावी बनाने के लिये कोशिश करता रहुंगा  ...आप का आशीष मिला  तहे दिल से  शुक्रिया ..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 26, 2013 at 7:40pm

भाई बसंत जी, आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद.
आप ग़ज़ल के मिसरों के वज़्न भी लिख दिया करें. ताकि पाठकों को ग़ज़ल को कथ्य ही नहीं अरुज़ के हिसाब से भी समझने में सहजता हो.
मैं भी आपकी प्रस्तुति को ग्यारह ग़ाफ़ के अनुसार पढ़ना चाह रहा था. लेकिन मुझसे कई जगह बन नहीं रहा है. यानि फ़ेलुन फ़ेलुन .. फ़ा के अनुसार वर्ण को साधता हुआ सफल नहीं हो पाया. यदि आप मिसरों का वज़्न कहें तो आसानी होगी.  


कथ्य प्रभावी हैं लेकिन उनको प्र्स्तुत करने का माधयम भी सार्थक होना चाहिये.

शुभेच्छाएँ

Comment by बसंत नेमा on December 23, 2013 at 10:50am

आदरणीया कुंती जी  आभार शुक्रिया धन्यवाद 

Comment by बसंत नेमा on December 23, 2013 at 10:49am

आ0 श्री अविनाश जी ..सादर नमन .... रचना को आप का समय मिला ...तहेदिल से शुक्रिया  धन्यवाद ..आभार 

Comment by AVINASH S BAGDE on December 20, 2013 at 7:10pm

हुआ करती थी जहाँ संस्कारो की बाते ।

हाँ आज मैने उन घरो को टूटते देखा है  ॥सुन्दर ,आदरणीय बसंत भाई , 

Comment by coontee mukerji on December 20, 2013 at 1:34pm

बैठा था कल तक जो किस्मत के भरोसे

उस  शख्स को  आज  हाथ मलते देखा है ॥.............बहुत खूब

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 20, 2013 at 1:24pm

प्रिय नेमा जी

आपका स्वागत है किन्तु अभिप्राय खुल कर आना चाहिए वर्ना हिंदी के हिसाब से अपार्थ दोष होता है i आपने मुझे सकारात्मक रूप से लिया इसके लिए आभार  i आपकी रचनाधर्मिता सक्षमं  है i आपको शुभकामनाये i

Comment by बसंत नेमा on December 20, 2013 at 1:15pm

आ0 श्री गिरीराज जी बहुत बहुत आभार आप ने रचना को समय दिया ... शुक्रिया धन्यवाद 

Comment by बसंत नेमा on December 20, 2013 at 1:13pm

आ0 श्री गोपाल नारायण जी ..मेरा अर्थ ये था कि जिन घरो मे संस्कार की बाते होती थी पर वक्त से साथ उन घरो मे भी दरार पड सकती है ....... आप  का  आशीष मेरे लिये सौभाग्य है ..   अन्यथा  लेने के लिये नही ..... आभार आप ने समय दियारचना को तहे दिल से शुक्रिया ..... आशीष बनाये रखे ...............

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 20, 2013 at 1:06pm

बसंत नेमा जी

आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी है  पर  ---हुआ करती थी जहा संस्कारो की बाते ,हां आज मैंने उन घरो को टूटते देखा  है i ----- क्या संस्कार इतनी ही बुरी वस्तु  है  i हम सभी जन्म के साथ ही संस्कारो से बध जाते है i   आशा  हा आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे i  आपको अच्छी  रचना के लिए बधाई  i  

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी posted a blog post

ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

122 - 122 - 122 - 122 जो उठते धुएँ को ही पहचान लेतेतो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते*न तिनके जलाते…See More
1 hour ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा षष्ठक. . . . आतंक
"ओह!  सहमत एवं संशोधित  सर हार्दिक आभार "
2 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-121
"जी, सहमत हूं रचना के संबंध में।"
2 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-121
"शुक्रिया। लेखनी जब चल जाती है तो 'भय' भूल जाती है, भावों को शाब्दिक करती जाती है‌।…"
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - गुनाह कर के भी उतरा नहीं ख़ुमार मेरा
"आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, नए अंदाज़ की ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।"
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आपके संकल्प और आपकी सहमति का स्वागत है, आदरणीय रवि भाईजी.  ओबीओ अपने पुराने वरिष्ठ सदस्यों की…"
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आपका साहित्यिक नजरिया, आदरणीय नीलेश जी, अत्यंत उदार है. आपके संकल्प का मैं अनुमोदन करता हूँ. मैं…"
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"जी, आदरणीय अशोक भाईजी अशोभनीय नहीं, ऐसे संवादों के लिए घिनौना शब्द सही होगा. "
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . उल्फत
"आदरणीय सुशील सरना जी, इन दोहों के लिए हार्दिक बधाई.  आपने इश्क के दरिया में जोरदार छलांग लगायी…"
10 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"माननीय मंच एवं आदरणीय टीम प्रबंधन आदाब।  विगत तरही मुशायरा के दूसरे दिन निजी कारणों से यद्यपि…"
10 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Sushil Sarna's blog post दोहा षष्ठक. . . . आतंक
"आप पहले दोहे के विषम चरण को दुरुस्त कर लें, आदरणीय सुशील सरना जी.   "
10 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service