1222 1222 1222 1222
रगों को छेदते दुर्भाग्य के नश्तर गये होते
दुआयें साथ हैं माँ की नहीं तो मर गये होते
वजह बेदारियों की पूछ मत ये मीत हमसे तू
हमें भी नींद आ जाती अगर हम घर गये होते
नज़र के सामने जो है वही सच हो नहीं मुमकिन
हो ख्वाहिशमंद सच के तो पसे मंज़र गये होते
अगर होती फ़ज़ाओं में कहीं आमद ख़िज़ाओं की
हवायें गर्म होतीं और पत्ते झर गये होते
शिकायत भी नहीं रहती गमे फ़ुर्क़त भी होता कम
न होती आँख 'ब्रज' शबनम अगर कह कर गये…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 28, 2017 at 11:00am — 18 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on August 28, 2017 at 12:18am — 9 Comments
गीत
आधार छंद-आल्हा/वीर छंद
जयति जयति जय मात भारती, शत-शत तुझको करुँ प्रणाम।
जननी जन्मभूमि वंदन है, प्रथम तुम्हारी सेवा काम।
जयति जयति जय........
जन्म लिया तेरी माटी में, खेला गोद तुम्हारी मात!
लोट तुम्हारे रज में तन को, मिला वीर्य-बल का सौगात।।
तुझसे उपजा अन्न ग्रहण कर, पीकर तेरे तन का नीर।
ऋणी हुआ शोणित का कण-कण, ऋणी हुआ यह सकल शरीर।।
अब तो यह अभिलाषा कर दूँ, अर्पित सब कुछ तेरे नाम।
जननी जन्मभूमि वन्दन है प्रथम…
Added by रामबली गुप्ता on August 27, 2017 at 10:50pm — 26 Comments
Added by Manan Kumar singh on August 27, 2017 at 11:27am — 16 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 27, 2017 at 8:00am — 11 Comments
अँधियारे गद्दी पर बैठा,
सूरज सन्यास लिए फिरता
नैतिकता सच्चाई हमने,
टाँगी कोने में खूँटी पर.
लगा रहे हैं आग घरों में,
जाति धर्म के प्रेत घूमकर.
सत्ता की गलियों में जाकर,
खेल रही खो-खो अस्थिरता.
…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 26, 2017 at 7:16pm — 17 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 26, 2017 at 7:00pm — 5 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on August 25, 2017 at 10:30pm — 2 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 25, 2017 at 7:10am — 14 Comments
प्रकाश को काटते नभोचुम्बी पहाड़
अब हुआ अब हुआ अँधेरा-आसमान ...
अनउगा दिन हो यहाँ, या हो अनहुई रात
किसी भी समय स्नेह की आत्मा की दरगाह
दीवारों के सुराख़ों में से बुलाती है मुझको
और मैं आदतन चला आता हूँ तत्पर यहाँ
पर आते ही आमने-सामने सुनता हूँ आवाज़ें
इस नए निज-सर्जित अकल्पनीय एकान्त में
अनबूझी नई वास्तविकताओं के फ़लसफ़ों में
और ऐसे में अपना ही सामना नहीं कर पाता
झट किसी दु:स्वप्न से जागी, भागती,…
ContinueAdded by vijay nikore on August 25, 2017 at 6:49am — 23 Comments
१२२ १२२ १२२ १२२
नहीं है यहाँ पर मुझे जो बता दे
सही रास्ता जो मुझे भी दिखा दे
ये कैसी हवा जो चली है यहाँ पर
परिंदा नहीं जो पता ही बता दे
चले थे कभी साथ साथी हमारे
पुरानी लकीरों से यादें मिटा दें
कभी तो मिलेगी ज़िन्दगी पुरानी
वफ़ा की ज्वाला यहाँ भी जला दे
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 24, 2017 at 9:00pm — 24 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 24, 2017 at 6:39pm — 10 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 24, 2017 at 1:26pm — 13 Comments
Added by Mohammed Arif on August 23, 2017 at 10:00pm — 19 Comments
अरकान हैं 'फ़ाइलातून फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
आज तू जो मुझे बदला सा नज़र आता है
दोस्ती में तिरी धोका सा नज़र आता है
तूने छोड़ा था मुझे यार किसी की शह पर
इसलिये आज तू तन्हा सा नज़र आता है
ये तो शतरंज की बाजी है बिछाई उसकी
तू तो इस खेल में मुहरा सा नज़र आता है
है शिकन साफ़,शिकस्तों की तिरे माथे पर
तू हमें कुछ डरा सहमा सा नज़र आता है
#संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Added by santosh khirwadkar on August 23, 2017 at 8:30pm — 15 Comments
2122 1212 22 /122
मंज़रे ख़्वाब से निकल जायें
अब हक़ीकत से ही बहल जायें
ज़ख़्म को खोद कुछ बड़ा कीजे
ता कि कुछ कैमरे दहल जायें
तख़्त की सीढ़ियाँ नई हैं अब
कोई कह दे उन्हें, सँभल जायें
मेरे अन्दर का बच्चा कहता है
चल न झूठे सही, फिसल जायें
शह’र की भीड़ भाड़ से बचते
आ ! किसी गाँव तक निकल जायें
दूर है गर समर ज़रा तुमसे
थोड़ा पंजों के बल उछल जायें
चाहत ए रोशनी में…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 23, 2017 at 8:11pm — 37 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on August 23, 2017 at 9:00am — 8 Comments
2122 1122 1122 22
जब भी देखूँ वो मुझे चाँद नज़र आता है !
रोशनी बन के दिलो जाँ मे समा जाता है !!
उस हसीं शोख़ का दीदार हुआ है जब से !
उसका ही चेहरा हरेक शै में नज़र आता है !!
मै मनाऊँ तो भला कैसे मनाऊँ उसको !
मेरा महबूब तो बच्चो सा मचल जाता है !!
क्यूं भला मान लूँ ये इश्क़ नहीं है उसका !
छु्पके तन्हाई में गीतों को मेरे गाता है !!
मैं तुझे चाँद कहूँ फूल कहूँ या खुश्बू !
तेरा ही चेहरा हरेक शै…
Added by SALIM RAZA REWA on August 22, 2017 at 11:00pm — 21 Comments
डिग्री धारी एक कवि ने पूछा इक बेडिग्रे से
कैसे लिखते हो कविताएँ दिखते तो बेफिक्रे से।
अलंकार रस छंद वर्तनी कैसे मैनेज करते हो
करते हो कुछ काट - चिपक या फिर अपना ही धरते हो।
पिंगल और पाणिनि को पढ़ मैं तो सोचा करता हूँ,
मात्रिक वार्णिक वर्णवृत्त मुक्तक में लोचा करता हूँ।
यति गति तुक मात्रा गण आदि सभी अंगों को ढो लाते
जरा बताओ ज्ञान कहाँ से इतने सब कुछ का पाते?
-- तब बेचारे हकबकाए क्वैक कवि ने उत्तर दिया --
भाई मैंने आज ही जाना इतने…
ContinueAdded by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 22, 2017 at 8:25pm — 4 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on August 22, 2017 at 6:00pm — 10 Comments
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