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ग़ज़ल -- राम नहीं रावण देखा है

राम नहीं रावण देखा है

कलियुग का सज्जन देखा है



माली के ही हाथों उजड़ा

ऐसा भी उपवन देखा है.



काँप गया हूँ भीतर तक मैं

जबसे ये दर्पण देखा है



ढूँढ़ रही है बूढ़ी आँखें

क्या तुमने बचपन देखा है ?



हमने घर के बँटवारे में

रोता ये आँगन देखा है.



दिल का मोर खुशी को तरसे

इसने कब सावन देखा है



दूर कहीं अब धरती के संग

हम ने नील गगन देखा है



धनवानों का अक्सर मैंने

निर्धन अन्तर्मन देखा… Continue

Added by दिनेश कुमार on February 15, 2015 at 7:47pm — 17 Comments

ये कैसी नियति

तुम चलाओ गैंती-फावड़ा 

काटो पत्थर, बनाओ नाली 

दिन है तो सूरज को घड़ी मानो 

और रात है तो गिनते रहो एक-एक प्रहर

कुत्ते कब भौंके 

सियार कब चीखे

मुर्गे ने कब बांग दी 

यही है तुम्हारी नियति....

तुम चलाओ छेनी-हथौड़ी 

तुम्हारे लिए बन नहीं सकतीं 

ऐसी यांत्रिक घड़ियाँ 

जिनमे काम के घंटों का हिसाब हो 

और आराम के पल का ज़िक्र हो...

तुम लिखो कविता-कहानी 

फट जाए चाहे 

माथे की उभरी नसें 

फूट जाए ललाई…

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Added by anwar suhail on February 15, 2015 at 7:30pm — 7 Comments

आज़ाद कोई नहीं , सब डोर से बंधे हैं --- डॉ o विजय शंकर

बंधे सब डोरियों से हैं,

ये अलग बात है कि

किसकी डोर , मूलतः , किसके हाथ है ।

कोई अपनी डोरी में बस थोड़ी सी ढील चाहता है,

अपने साथ वाले की डोर बस थोड़ी टाइट चाहता है ।

किसी की खींच ली गई , किसी को ढील मिल रही है ,

किसी की फंस गई है , उनकी फंसी थी,निकल गई है ।

अब किसी को क्या कहें , जिस के हाथ अपनी डोर है ,

वही उसे दबाए बैठा है ।



चाहतें ऐसी ऐसी , उसकी डोर मेरे हाथ आ जाए ,

मेरी डोर काश यहाँ से छूटे , उसके पास पहुँच जाए

उनके तो हाल ही… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 15, 2015 at 11:25am — 8 Comments

अधूरी आस (कहानी )

“मम्मी मैं किटी पार्टी में जा रही हूँ , आप हेमा को कह दो वह विवान को दूध दे देगी ...वैसे भी विवान मेरे पास नहीं उसी के पास रहता है |” अपने लहराते हुए बालों को झटका देते हुए फाल्गुनी ने कहा ||स्टाइल में रहना, फैशनेबल कपड़े पहनना, सहेलियों के बीच अपनी सुन्दरता की प्रशंसा सुनना, यही तो मनपसंद कार्य है फाल्गुनी का | जन्म तो दिया बच्चे को मगर ममता नहीं लुटा पाई |

इसके विपरीत हेमा जो कि अपने से अधिक चिंता करती है घर परिवार की...अपनी जेठानी के पुत्र पर  जान से भी अधिक स्नेह लुटाती है मगर…

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Added by डिम्पल गौड़ on February 14, 2015 at 3:30pm — 14 Comments

दिल से दिल के तार................................

दिल से दिल के तार जुड़े संतूर जहाँ में बजते हैं

छंद पहेली गीत ग़ज़ल जब दूर जहाँ में सजते हैं

रुनझुन-रुनझुन घुंघरू आहट  का संदेशा लाती है

ताल मिलाती धड़कन से मगरूर जहाँ में लगते है

अंतस मन मेल हुआ दिलबाग रूमानी गुलशन है  

रुखसार गुलाबी होंठ शबाबी नूर जहाँ में लगते हैं

हया लबों पे खेल रही है नज़र नज़ाकत शानी है

कोयल किस्से कहती है मशहूर जहाँ में लगते हैं

नैन नख्श नखरों पे है नायाब नवेली नज्म अदा

फिदा फ़साने पर आनंद वो चूर जहाँ में लगते…

Continue

Added by anand murthy on February 14, 2015 at 2:59pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥ ( गिरिराज भंडारी )

॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥

कहने से नहीं

समझाने से नहीं

कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे

कौन रोक सकता है

बातें

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब

 

ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न

 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें

ये दिन , वो दिन

अफसोस होता है

 

पता नहीं क्यों

रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में

राधा-कृष्ण-मीरा को ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 14, 2015 at 8:55am — 16 Comments

भंग न तुम्हारा मौन हुआ

तुम साहसी हो,

मैं यह मानकर चला,

इसी  भाव  को,

हृदय में धारण कर,

प्रेम पथ पर आगे बढ़ा,

भावी जीवन का स्वप्न सजोयें,

परिवार, समाज, दुनिया से लड़ा,

पर देखो आज शर्मिन्दा खड़ा हूँ ,

स्वयं की नजरों में गिरा पड़ा हूँ ,

मुझे प्यार किया तुमने, पर कह ना सकीं,

मेरा जीवन होम हुआ, पर भंग न तुम्हारा मौन हुआ !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित

Added by Hari Prakash Dubey on February 14, 2015 at 8:52am — 16 Comments

अतुकांत कविता

क्या तुम्हें मालूम है

मुझे हरवक्त तुम्हें ,मेरे साथ होने का

अहसास रहता है

कि कहीं दूर से ही तुम मुझे कोई सहारा दे रही हो

मगर अबकी बार तुमसे मिलकर

मेरा वह अहसासों भरा विश्वास टूटता नजर आया

क्या तुम खुदको मुझसे दूर ले जाना चाहती हो

या दूर ले जा चुकी हो

बहुत दूर

मुझे तुम्हारी हर राहे मुकाम पर

जरूरत होगी

उस वक्त एक सूनापन

मेरे चेतन को अवचेतन करेगा

मेरे सोचने की शक्ति क्षीण हो जायेगी

मेरा शरीर सुन्न होने लगेगा

मेरी…

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Added by umesh katara on February 14, 2015 at 7:30am — 12 Comments

वैलेंटाइन डे

जिंदगी को सब प्यार करते है ,

इसलिए नहीं कि वह हमें जीने का मौक़ा देती है ,

बल्कि इसलिए कि वह हमें प्यार से जीने का मौक़ा देती है,

प्यार करने , प्यार बांटने और प्यार में रहने का मौक़ा देती है ,

प्यार है तो जिंदगी में कोई बोझ बोझ नहीं है ,

प्यार नहीं है तो जिंदगी से बड़ा कोई बोझ नहीं है ,

हम जिंदगी के लिए जीना नहीं चाहते हैं ,

हम प्यार के लिए जीना चाहते हैं,

हम प्यार के लिए जिंदगी चाहते है ,

इसीलिये हम सब जिंदगी को प्यार करते है .



हैपी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 14, 2015 at 1:30am — 20 Comments

ग़ज़ल : ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

 

फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता, रुक जाना

ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

 

उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते

एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना

 

दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको

ख़तरनाक है यूँ पानी खारा रुक जाना

 

तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो

नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना

 

पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में

अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2015 at 10:32pm — 17 Comments

पहाड़ और पीठ

 

पहाड़ और पीठ



एक



पहाड़,

सिर्फ पीठ होता है

मुह होता तो बोलता

पहाड़ के पैर भी नही होते

हाथ भी

वरना वह चलता

कुछ करता या,

उठता बैठता भी

पहाड़, अपनी पीठ पर

लाद लेता है तमाम जंगल नदी नाले,

हरी भरी झील भी

सड़क और बस्तियां भी

और कुछ नही बोलता

क्यों कि,

पहाड़ सिर्फ पीठ है

और पीठ कुछ नही बोलती



दो,



पीठ,

पहाड़ नही होती

पर लाद लेती है पहाड़

पीठ के भी मुह नही होता

पहाड़ की तरह होती है एक…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 13, 2015 at 12:24pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पाँच दोहे

मानव मन दुर्बल हुआ, जो पूजे इंसान ।
अंतर ईश मनुष्य का, ना समझे नादान।।

पंक घृणा के फेंककर, कहलाये भगवान।
इतनी सी इस बात को, समझे ना इंसान।।

अपनी अपनी है समझ, अपना अपना पंथ।
मन से दुर्बल के लिये, व्यर्थ सभी हैं ग्रंथ।।

रहे हृदय में आस्था, श्रृद्धा में हो ईश
बस उसके ही नाम पर, नत रखना तू शीश।।

मानव को मानव समझ, ऐसा रख व्यवहार।
बने हँसी का पात्र तू, ऐसा क्या आचार।।

-मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on February 13, 2015 at 8:00am — 9 Comments

वो मुझे देखकर मुस्कराती रही..

मैं उसे देखकर मुस्कराता रहा,

वो मुझे देखकर मुस्कराती रही।

उस कहानी का किरदार मैं ही तो था,

जो कहानी वो सबको सुनाती रही।।

मैं चला घर से मुझ पर गिरीं बिजलियां

बदलियां नफरतों की बरसने लगीं,

बुझ न जाए दिया इसलिए डर गया

देखकर आंधियां मुझको हंसने लगीं,

दुश्मनी जब अंधेरे निभाने लगे

रोशनी साथ मेरा निभाती रही,

मैं उसे देखकर मुस्कराता...

प्यास तुमको है तुम तो हो प्यासी नदी

एक सागर को क्या प्यास होगी भला,

हां अगर तुम…

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Added by atul kushwah on February 12, 2015 at 10:00pm — 14 Comments

धूमिल सपने हुए हमारे

धूमिल सपने हुए हमारे

रंगहीन सी

प्रत्याशाएँ

सोये-जागे सन्दर्भों की

फैली हैं

मन पर शाखाएँ

 

शंकायें तो रक्तबीज सी

समाधान पर भी

संशय है

अपने पैरों की आहट में

छिपा हुआ अन्जाना

भय है

 

किस-किसका अभिनन्दन कर लें

किस-किसका हम

शोक मनाएँ

 

सांस-सांस में दर्प निहित है

कुछ होने कुछ

अनहोने का

कुछ पाने की उग्र लालसा

लेकिन भय

सब कुछ खोने का

 

अनगिन…

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Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on February 12, 2015 at 8:30pm — 10 Comments

मेरी पलकों को......

मेरी पलकों को......एक रचना 

मेरी पलकों को अपने ख़्वाबों की  वजह दे दो

अपनी साँसों में  मेरे जज़्बातों को जगह दे दो

जिसकी  नमी  तुम ये  दामन सजाये बैठी हो

उसके  रूठे  सवालों को जवाबों में जगह दे दो

बंद हुआ  चाहती हैं  अब थकी हुई पलकें मेरी

अपनी तन्हाई में रूहानी रातों  को जगह दे दो 



ये ज़िंदगी तो गुज़र जाएगी तेरे हिज्र के सहारे 

इन हाथों में कुछ रूठे हुए वादों को जगह दे दो

कल का वादा न करो  कि अब न…

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Added by Sushil Sarna on February 12, 2015 at 8:00pm — 24 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : प्रीत (गणेश जी बागी)

कुष्ट रोग से ग्रसित बिधवा बुढ़िया अकेली ही रहती थी. इकलौता बेटा शादी कर पता नहीं कहाँ जा बसा था. किसी ने बताया कि रोग से मुक्ति चाहिए हो तो जुम्मे के रोज मजार वाले बाबा के पास जाओ. बुढ़िया अगले ही जुम्मे को मजार पर पहुँच गयी । वहाँ झाड़-फूंक चल रही थी. बाबा के एक शागिर्द ने चढ़ावा लिया और घर-परिवार, रिश्तेदारों आदि के बारे में पूछताछ कर एक तरफ बिठा दिया जहाँ पहले से उस जैसे अन्य मरीज इन्तजार कर रहे थे. खैर कुछ देर इन्तजार के पश्चात उसकी बारी आयी ।

बाबा की…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 12, 2015 at 4:00pm — 25 Comments

चांदनी और छाँव

 

आधी रात

चांदनी और छाँव

तस्करों का हरा-हरा गाँव

जालिमो में कुछ अधेड़

कुछ तरु, कुछ वृक्ष, कुछ पेड़

 

कुछ घर थे गरीबों के भी

दांतों के बीच जीभों के भी

सचमुच बदनसीबों के भी   

 

आधी रात

चांदनी और छाँव

सन्नाटे में डरा-डरा गाँव

एक गरीब बुढ़िया के द्वार

तेजी से आया इक घुड़सवार

 

बुढिया की बेटी को…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 12, 2015 at 10:54am — 14 Comments

गज़ल-मैं सीसा हूँ मुझे अफसोस क्या होगा बिखरने से

1222 1222 1222 1222

-----------------------------------------------

ठसक तेरी मेरी गैरत के आपस में उलझने से

मुहब्बत लुट गयी अपनी दिलों में जह्र पलने से

..........

दगाबाजी से अच्छा तो अलग होना मुनासिब था

बफाओं के बिना क्या है सफर में साथ चलने से

...........

मेरा घर अपने हाथों से कभी मैंने जलाया था

नहीं लगता मुझे अब डर किसी का घर भी जलने से

----------

तू पत्थर है मुझे हरबार चकनाचूर करता है 

मैं सीसा हूँ मुझे अफसोस क्या होगा बिखरने…

Continue

Added by umesh katara on February 12, 2015 at 10:48am — 16 Comments

ज़िंदगी गम का समंदर है ..............

दूर मुझसे कितने दिन रह पायोगे , सोच लो , फिर रहो

दर्द-ए-दिल है ये , सह पायोगे , सोच लो, फिर सहो



लौट के खुद पे आती हैं , बद-दुयाएँ , सुना है ?

सहन ये सब कर पायोगे , सोच लो , फिर कहो



क्या नहीं उसने दिया , पर क्या दिया तुमने उसे ?

क्या कभी उठ पायोगे इतना , सोच लो , फिर गिरो



इतना भी आसां नहीं है, रास्ता ख़ुद्दारियों का

सूरज की जलन सह पायोगे , सोच लो , फिर बढ़ो



घर से बे-घर होके भी उसने बसाई दिल की दुनिया

आँसुयों सा ये सफ़र कर…

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Added by ajay sharma on February 12, 2015 at 12:30am — 10 Comments

प्रकृति में सुकून---डॉ o विजय शंकर

प्रकृति प्रेमी है वह ,

प्रकृति से असीम प्रेम करता है,

पहाड़ों पर, समुद्र-तटों पर, जंगलों में, रेगिस्तान में ,

कहाँ नहीं जाता है वह , कई कई दिन ,

कई कई रातें बिताता है ,

प्रकृति की गोद में ही सुख पाता है ,

वहीं खो जाता है वह ।

बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,

बहुत घबड़ाता है ,

उनसे कुछ दूर ही रहता है वह ,

सर्वोत्तम कृति की प्रकृति , समझ ही नहीं पाता है वह ,

उनकी उष्णता , उदासीनता , विद्वता , कुछ समझ नहीं पाता ,

उनके बीच तो जैसे… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 11, 2015 at 9:17pm — 20 Comments

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