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गीतिका --8+8+8 .....फिर आऊँगा

मातृधरा को शीश नवाने फिर आऊँगा

जननी तेरा कर्ज़ चुकाने फिर आऊँगा

 

चंदन जैसी महक रही है जो साँसों में

उस माटी से तिलक लगाने फिर आऊँगा

 

आँसू पीकर खार जमा जिनके सीनों में

उन खेतों में धान उगाने फिर आऊँगा

 

इक दिन तजकर परदेशों का बेगानापन

आखिर अपने ठौर ठिकाने फिर आऊँगा

 

गोपालों के हँसी ठहाके यादों में हैं

चौपालों की शाम सजाने फिर आऊँगा

 

खाट मूँज की छाँव नीम की थका हुआ तन

जेठ दुपहरी…

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Added by khursheed khairadi on February 11, 2015 at 11:29am — 24 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
(एक तरही ग़ज़ल )“सामान सौ बरस के हैं कल की खबर नहीं" ( गिरिराज भंडारी )

 221   2121  1221    2 2

रख ले चराग़ साथ में, शम्सो क़मर नहीं  --

रहजन बिना यहाँ पे कोई रहगुज़र नहीं

शम्सो क़मर - चाँद  सूरज

 

तेरी लगाई आग की तुझको ख़बर नहीं

सब ख़ाक हो चुका यहाँ  कोई शरर नहीं

रो ले अगर, तेरा बिना  रोये गुज़र  नहीं

लेकिन ये सच है, आँसुओं में अब असर नहीं

 

सब कुछ वही है इस जहाँ में , बस तेरे बिना

मेरी वो शाम गुम हुई , वैसी सहर नहीं

 

मिल जायें बदलियाँ तो वो सूरज को ढ़ाँक…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 11, 2015 at 8:30am — 29 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आखिर क्यों मैं ऐसा हूँ ..... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

22--22--22--22--22--22--22--2

----------------

हँसते - हँसते  रो  लेता  हूँ,   रोते - रोते  हँसता  हूँ

कोई मुझसे  ये मत पूछो आखिर क्यों  मैं  ऐसा हूँ

 

आईने-सी…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 11:00pm — 45 Comments

ग़ज़ल

इक ग़रीब औरत की बेबसी का क़िस्सा है

सादगी समझते हो, सादगी का क़िस्सा है



मैं सुना रहा हूँ और आप मुस्कुराते हैं

थोड़ा सोचकर देखें आप ही का क़िस्सा है



एक था सख़ी हातिम ये वही रिवायत है

मेरे मोहतरम महमाँ ये उसी का क़िस्सा है



एटमी धमाकों का इन पे क्या असर होगा

अब भी इनके मकतब में जलपरी का क़िस्सा है



बुलबुलों के होटों पर गुलशनों की बातें हैं

आदमी के होटों पर आदमी का क़िस्सा है



रोज़ ही वो सुनते थे, पूछ ही लिया इक दिन

किस हसीं… Continue

Added by Samar kabeer on February 10, 2015 at 10:42pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पहली दफ़ा मुझे न खुशी से खुशी हुई

221 2121 1221 212

पहली दफ़ा मुझे न खुशी से खुशी हुई
दामे हयात में मेरी जाँ है फँसी हुई

घुटने लगा है दम मेरा रिश्तों के बोझ से
ये दुनिया जैसे बर्फ के अंदर धँसी हुई

तेरी शिकायतों का करूँ क्या कोई गिला
आँखों में तेरी दिख गई हसरत दबी हुई

था इक मलाल दिल में तगाफ़ुल का हमनशीं
वो बात तेरे वस्ल से आई गई हुई

औराक़ पर उतर गये पल इंतज़ार के
मिसरों में तेरी शक्ल सी मानो बनी हुई

-मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on February 10, 2015 at 10:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल .........;;;गुमनाम पिथौरागढ़ी

२१२२ २१२२ २१२



बात करते हो वफ़ा की सोच लो

इश्क होता है सजा भी सोच लो





ये सफ़र तो इश्क का दुश्वार है

राह में है रात काली सोच लो





लक्ष्य से भटके युवा हर ओर हैं

बन न जाएँ ये मवाली सोच लो





जाति मजहब रंग के ही नाम पर

बाँट दी जनता बिचारी सोच लो





फिर मसीहा आयें तो मंजिल मिले

झूठ है हर सम्त पापी सोच लो





ख्वाब में जब यम मिले बोले यही

रह गए दिन चार बाकि सोच लो





क्यों ग़ज़ल… Continue

Added by gumnaam pithoragarhi on February 10, 2015 at 6:05pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
॥ मै ईश्वर नहीं ॥ अतुकांत रचना ( गिरिराज भंडारी )

॥ मै ईश्वर नहीं ॥

**********

मै ईश्वर नहीं

किसी ईश्वरीय व्यवहार की उम्मीदें न लगायें

मै तो क्या कोई भी चाहे तो ईश्वर नहीं हो सकता

बस दूसरों में ईश्वरीय गुण खोजने में लगे रहते हैं

हम , आप , सब

इसलिये, आज

ये ऐलान है मेरा ,

मुझमें केवल इंसानी गुण ही हैं

अच्छों से उनसे अधिक अच्छा

बुरों से भरसक बुरा

उनके व्यवहार के प्रत्युत्तर में भेज रहा हूँ

कुछ दिल से निकली मौन गालियाँ

कुछ आत्मा से निकली बद…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 10:00am — 21 Comments

ग़ज़ल -- दिल है सीने से लापता शायद

दिल है सीने से लापता शायद

इश्क़ मुझको भी हो गया शायद



जिन्दगी उलझनों का नाम हुई

ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद



बिन कहे वो मिरी करे इमदाद

ज़ेह्न में उसके कुछ पका शायद



हर घड़ी वो जो मुस्कुराता है.

जख़्म उसका कोई हरा शायद



झूठ को झूठ अब भी कहता मैं

मुझ में बाक़ी है बचपना शायद



रात भर करवटें बदलता हूँ

बोझ पापों का बढ़ गया शायद



कौन करता लिहाज़ अपनों का

जह्र रिश्तों में अब घुला शायद



नर्म लहज़े में आप… Continue

Added by दिनेश कुमार on February 9, 2015 at 12:40pm — 33 Comments

कुर्सी को जानों -----डॉ o विजय शंकर

कुर्सी को जानों

कुर्सी को पहचानों ,

कुर्सी है तो जीवन है, जान है.

कुर्सी है तो भोंडापन भी ज्ञान है ,

अन्यथा क्या ज्ञान है, क्या विज्ञान है ,

डिग्रियों के लिए कूड़ेदान है।

कुर्सी है तो आस है ,

अपना चतुर्दिश विकास है |



तख़्त उलटते रहे होंगें ,

सिंहासन डोलते रहे होंगें ,

कुर्सी न उलटती है, न डोलती है ,

न उसे कोई ऐसा ख़तरा होता है ,

हाँ , कुर्सी पर जो बैठा हो

वो औरों के लिए जरूर ख़तरा होता है |

कोई कहता है ताक़त बन्दूक से… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 9, 2015 at 11:37am — 17 Comments

बिस्तर पर सिलवटें

सुबह शाम

दफ्तर काम

ढलता सूरज

उगता चाँद

रात, तुम्हारी याद

आखों से बरसात !!

कभी भूख

कभी प्यास

कभी हर्ष

कभी विषाद

तन्हाई, रात वीरान

सुलगते हुए अरमान !!

तन्हा सफर

स्ट्रीट लाईट

पाखी जलता

मन मचलता

प्यास, बैचैन करवटें

बिस्तर पर सिलवटें !!

उगता सूरज

आँखें लाल

वही सवाल

वही मदहोशी

गुम, खुद में कहीं

नहीं सुध किसी चीज़ की !!

फिर…

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Added by Hari Prakash Dubey on February 9, 2015 at 10:21am — 26 Comments

दोनों हाथ (कहानी )

अब तक आदित्य को लगता था कि पति-पत्नी क रिश्ते में पति ज्यादा अहम होता है | उसे ज्यादा तवज्जो, मान सम्मान  मिलना चाहिए | शायद इसमें उसका कोई दोष भी नही था जिस समाज में वह पला-बढ़ा वह एक पितृ-सत्तात्मक समाज है जहाँ पिता भाई व पति होना ही बहुत बड़ी उपलब्धि है |माँ-बहन व पत्नी ये हमेशा निचले पायदान पर ही रही हैं, बेशक वो समाजिक तौर पर कितनी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करें |

बालक के जन्म लेने पर उसके स्वागत में उत्सव और कन्या जन्म पर उदासी |बालक को हर चीज़ में तरजीह और आज़ादी जबकि…

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Added by somesh kumar on February 8, 2015 at 11:30pm — 10 Comments

कब तक मनाऊँ मैं...............

कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं|

गर्दिश में अक्सर.... हर सहारे छूट जाते हैं|1



न मनाने का सलीका है,न रिझाने का तरीका है|

मनाते ही मनाते वो      अक्सर रूठ जाते है|2



संजोकर दिल में रखता हूँ,नजर को खूब पढ़ता हूँ|

मगर खास होते ही   ,अक्सर नजारे छूट जाते हैं|3



आयना समझकर हम.., उन्ही को देख जाते हैं|

संभालने की ही कोशिश में,जो अक्सर टूट जाते…

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Added by anand murthy on February 8, 2015 at 9:20pm — 8 Comments

कह गए थे तुम वापस आओगे-- डॉ o उषा चौधरी साहनी

कह कर गए थे तुम

आओगे वापस ,

जरूर आओगे ।

आस में तुम्हारी ,

लगे युग बीत गए जैसे ,

पर न आये तुम ,

न आये तुम्हारे खत ,

ना ही कोई संदेश ,

कहाँ खो गए तुम ,

भटक गए किस देश ?

जिन राहों पर दूर ,

बहुत दूर तक , चले थे ,

खोये , इक दूसरे में हम,

उन्हें, अब ये आँखें तकती हैं,

ढूंढती हैं तुम्हें , शायद कभी

लौटों तुम उन पर ढूंढते हुये

कि तुम्हारा भी

कुछ रह गया वहां पर ,

कुछ खो गया वहां पर ,

और मैं पा लूँ तुम्हें… Continue

Added by Usha Choudhary Sawhney on February 8, 2015 at 7:30pm — 14 Comments

ग़ज़ल - चींटियों को देखना तुम

2122 2122 2122 212



होंठ पर अटकी सदा की लर्ज़िशें* क्या होती हैं?

छोड़ दें जब साथ अपने, गर्दिशें क्या होती हैं?



आपने दिल तोड़ डाला खेलकर जज़्बात से,

मेरे टूटे दिल से पूछो, ख़्वाहिशें क्या होती हैं?



क्यों हुई घर में लड़ाई, ये बड़ों से पूछिये!

बच्चों से मत पूछिये के रंजिशें* क्या होती हैं?



छूटने की, मौत से, होती हैं सौ गुंजाइशें,

ज़िंदगी से बचने की गुंजाइशें क्या होती हैं?



दो दिलों में प्यार होना सर्द बूँदों के तले,

इश्क़ वालों… Continue

Added by Zaif on February 8, 2015 at 2:40pm — 8 Comments

धारावाहिक गजल भाग -1 ( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

2122    2122    2122

***********************

डूबता  हो  सूर्य तो अब डूब जाए

मत कहो तुम रोशनी से पास आए /1

******

एक अल्हड़ गोद में शरमा रही जब

चाँद से  कह दो नहीं वह मुस्कुराए /2

******

थी  कभी  मैंने लगायी बोलियाँ भी

मोलने पर तब न मुझको लोग आए /3

******

आज मैं अनमोल हूँ बेमोल बिक कर

व्यर्थ  अब  बाजार जो कीमत लगाए /4

******

कामना जब मुक्ति की थी खूब मुझको

बाँधने  सब  दौड़ कर नित पास आए /5



रास  आया  है मुझे  जब  आज…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 8, 2015 at 1:52pm — 7 Comments

आगे पीछे : लघुकथा



"कहाँ आगे-आगे बढ़े जा रहे हो जी', मैं पीछे रह जा रही हूँ |"

"तुम हमेशा ही तो पीछे थी"

"मैं आगे ही रही "

"और चाहूँ तो हमेशा आगे ही रहूँ, पर तुम्हारें अहम् को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती हूँ समझे|"

"शादी वक्त जयमाल में पीछे ..."

"डाला जयमाल तो मैंने आगे"

"फेरे में तो पीछे रही"

"तीन में पीछे, चार में तो आगे रही न "

"गृह प्रवेश में तो पीछे"

"जनाब भूल रहे हैं, वहां भी मैं आगे थी "

इसी आगे पीछे को लेकर लड़ते -हँसते  पार्क से बाहर निकले और एक दूजे से…

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Added by savitamishra on February 8, 2015 at 10:59am — 24 Comments

ले लो एक सलाम(अतुकांत कविता)

ले लो एक सलाम

आने को फागुन,

है सुन रही गुनगुन,

किसकी अहो,किसकी कहो?

हटा घूँघट अब कली-कली का,

कौन रहा यह मुखड़े बाँच?

कलियों से अठखेली करता,

नाच रहा है घूर्णन नाच ?

हुआ व्यग्र,पहचान नहीं कि

कौन कली खुशबू की प्याली,

कौन रूप की होगी थाली,

खिलखिलाकर खिलने देता,

रूप-वयस को मिलने देता,

देता कुछ सपने उधार,

कलियाँ कहतीं रूप उघाड़---

आज तो अब जा रहा,

हम आज के कल हैं,

अबल कब?सबल…

Continue

Added by Manan Kumar singh on February 8, 2015 at 10:00am — 1 Comment

तेरी बेव़फाई मेरी बेव़फाई

तेरी बेव़फाई मेरी बेव़फाई
कहानी समझ में अभी तक न आई
..........
मेरे इश्क़ में तू उधर ज़ल रहा है 
इधर मैंने ज़ल कर मुहब्बत निभाई
..........
बहाने बनाकर ज़ुदा हो गये हम
यूँ दोनों ने मिलके ही दुनिया हँसाई
..........
तुझे मैंने मारा क़भी खंजरों से 
क़भी सेज काँटों की तूने बिछाई
..........
जलाये जो तूने मेरे प्यार के ख़त
तो तस्वीर तेरी भी मैंने ज़लाई

उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित



Added by umesh katara on February 8, 2015 at 9:05am — 22 Comments

वो एक लड़की ...

गुनगुन करती थी सदा

वो एक लड़की ..

खिड़की से आती थी नज़र

वो एक लड़की

कभी नाचती गुड़िया संग

कभी लगाती गुलाबी रंग

बाबा के कंधों पर चढ़

दुनिया थी देखती

माँ की बाहों में झुला झूलती

समय उपरान्त

उसी खिड़की में

आई  नज़र

वो एक लड़की

ले रंगबिरंगी चुनर

पूरियाँ तलती थी  

बाबा को बिस्तर पर सुला

माथा सहलाती 

वो एक लड़की...

बहुत दिनों से

बंद थी खिड़की

नहीं आती नजर…

Continue

Added by डिम्पल गौड़ on February 8, 2015 at 12:27am — 14 Comments

सोने का संसार

सोने का संसार !

उषा छिप गयी नभस्थली में,

देकर यह उपहार !

लघु–लघु कलियाँ भी प्रभात में,

होती हैं साकार !

प्रातः- समीरण कर देता है,

नव-जीवन संचार !

लोल-लोल लहलही लतायें,…

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Added by Hari Prakash Dubey on February 8, 2015 at 12:16am — 19 Comments

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