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ये हवा मस्ती भरी...

ये हवा मस्ती भरी इस पार तक आती तो है।।

तन को मेरे छु के मुझसे प्यार फ़रमाती तो है।।



गाँव की सुन्दर सी गालियाँ और उनकी याद सब।

संग मेरे खेतों की मिट्टी ये हवा लाती तो है।।



जिनकी नजरों में सिवा नफरत के न कुछ और था।

ये हवा झकझोर कर के जात बतलाती तो है।।



क्यों बुराई कर रहा है बाप माँ ही शान हैं।

नाव कितनी भी हो जर्जर पार ले जाती तो है।।



क्यों नही है काम की लिक्खी गई ये पुस्तकें।

धूल इनपर है चढ़ी दीमक इन्हें खाती तो… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on September 7, 2016 at 1:49am — 5 Comments

दर्द अपना कह रही बस प्रीत गजलों की मेरे।

2122-2122-2122-212



मत करो तारीफ फ़र्जी गीत गजलों की मेरी।।

दर्द अपना कह रही बस प्रीत गजलों की मेरी।।



कशमकश है आप की मेरे दिले दरबार में।

लिख रहा हूँ आज जो भी जीत गजलों की मेरी ।।



राह में निकला मुसाफिर मुफलिसी हूँ ख्वाब हूँ।

चल रही गुपचुप सी बाता चीत गजलों की मेरी।।



मानता हूँ दर्द से लिपटी रही है उम्र भर।

दौरे पर्दा उठ गया है मीत गजलों की मेरी।।



वाह वाही लूटते दिख जायेगे बेशक हमीं।

बज्म बेशक जानती है रीत गजलों की… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on September 7, 2016 at 1:30am — 7 Comments

बराबरी--

"मैं संजू से शादी कर रही हूँ और हम लोग चेन्नई शिफ्ट कर रहे हैं", घर में घुसते ही उसने माँ से कह दिया| बैग को टेबल पर रखकर उसने फ्रिज से पानी की बोतल निकाली और पीने लगी, माँ उसे देखे जा रही थी|

"लेकिन चेन्नई शिफ्ट करने की क्या जरुरत है, मुझे तो कोई ऐतराज नहीं है तुम लोगों की शादी से", माँ ने पूछा|

"दर असल उसको एक बढ़िया जॉब मिल गयी है चेन्नई में और मैंने भी अपने ट्रांसफर की अर्जी लगा दी है", उसने सोफे पर बैठते हुए कहा|

"तो अब तुम उसके हिसाब से चलोगी, ख़त्म हो गयी सब बराबरी की…

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Added by विनय कुमार on September 6, 2016 at 7:33pm — 12 Comments

कुछ दोहे

कुछ दोहे

----------



१.

केवल धन की चाह में,भूला खान व पान

आपा-धापी में सदा, पड़ा रहे इंसान।

२.

बुद्धिमान भी मूढ़ है,क्रोध चले जब जीत

पलभर में ही खत्म हो,वर्षों की सब प्रीत।

३.

सबको दें उपदेश जो,हो खुद उससे दूर

कोरी उस बकवास को,क्यों सब मानें नूर।

४.

पढ़े शास्त्र को बैठ कर,नीयत हो नापाक

बस झूठे ही ज्ञान से,फिरे जमाता धाक।

५.

ढाई आखर प्रेम के,रखते शक्ति अपार

वहाँ चली तलवार कब,जहाँ चला है प्यार।

६.

कलम… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 6, 2016 at 4:00pm — 14 Comments

व्यवस्था/ लघुकथा

"सारी व्यवस्था आपको ही करना है। लोगों को बुलाना और कार्यक्रम का उद्देश्य को सफलता से प्रस्तुत करना है।"

"जी, लेकिन मैं अकेले कैसे कर पाऊँगी?"

" अकेले कहाँ हैं आप! मैं पीछे से समस्त इंतजाम कर दूँगा , पैसों की चिंता बिलकुल मत करना । बैनर आपका पैसा हमारा, अब सिर्फ हमारे लिये काम करेंगी आप ।"

वह चुप हो इत्मीनान से सुनती रही।जिंदगी अपना नया दाँव चल रही थी।

" अरे मैडम , हम आपको भी पेमेंट करेंगे।"

" मुझे " पे " करेंगे यानि मेरी कीमत देंगे ?"

"जी हाँ, आप अपना समय दे रही…

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Added by kanta roy on September 6, 2016 at 2:30pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
'फटफटिया' लघु कथा (राज )

घुर्र्र घुर्र.. फट. फट..फट..फट  ... “या अल्लाह आग लगे इसकी फटफटिया को  मरदूद कहीं का जब देखो हमें फूँकने के लिए घर के सामने ही फट फट करता रहता है इसे दूसरे के सिर दर्द की  क्या परवाह ” |

“बस करो.. बस करो.. बेगम, क्यूँ बिला बजह कोसती रहती हो, आग लगे.. आग लगे.. हरदम यही बददुआ देती रहती हो खुदा  से डरो मोटरसाइकिल है तो आवाज तो करेगी ही”|

“बस बस!!  तुम तो चुप ही रहो तुम्हें कुछ समझ नही आता| अब्बाजान को भी कितनी तकलीफ होती है ये तेज आवाज सुनकर मालूम है ” |

“किसी को…

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Added by rajesh kumari on September 6, 2016 at 11:31am — 29 Comments

एक देश (अतुकांत कविता)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

अपनों से ही जुदा

अपनों से ही लुटता

बहुचर्चित एक देश।



एक देश का ग़ुलाम

हथियार पाकर है बदनाम

ख़ुद बेलगाम एक देश।



ख़ुद को ख़ुद से भुलाता

मज़हब की आड़ लेता

कट्टरों का ग़ुलाम एक देश।



आतंक की ले पहचान

आतंक की खुली दुकान

पलता, पालता एक देश।



एक देश का है टुकड़ा

'आधा' खाकर, 'आधे' पर अकड़ा

छोटे से छोटा होता एक देश।



**



[2]



अपनों से ही संवरता

अपनों को ही उलझाता

बहुचर्चित… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 5, 2016 at 11:45pm — 10 Comments

ग़ज़ल : गालों पर है रंग गुलाबी तौबा तौबा

2221 21122 2222



गालों पर है रंग गुलाबी तौबा तौबा ।

मतवाली की चाल शराबी तौबा तौबा ।।



कातिल शम्मा रात जला कर लूटे हस्ती।

नयी अदा में बात नबाबी तौबा तौबा ।।



अंदाजों से हुस्न बयां वो आधा है अब ।

हुई हया से आँख हिजाबी तौबा तौबा ।।



खंजर दिल पे मार गई है हक से यारों ।

पढ़ती है वो रोज तराबी तौबा तौबा ।।



खैरातों में इश्क बटा कब उस के दर पे ।

निकली वह भी खूब हिसाबी तौबा तौबा ।।



अंगड़ाई न ले तू खुले दरीचों से अब…

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Added by Naveen Mani Tripathi on September 5, 2016 at 9:30pm — 8 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ग़ज़ल - फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है // --सौरभ

2122  2122  2122  212

 

एक दीये का अकेले रात भर का जागना..

सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना !



सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच

फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !



फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है

क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।



राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?

सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !



क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी 

दिख रहा…

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Added by Saurabh Pandey on September 5, 2016 at 1:30pm — 22 Comments

ग़ज़ल-तुम्हारा प्यार चंदन-रामबली गुप्ता

वह्र=1222 1222 122



तुम्हारा प्यार चंदन हो गया है।

सुवासित आज तन-मन हो गया है।।



जो' सूना बाग दिल का था सदा से।

तेरे आने से' मधुबन हो गया है।।



ये' मन-मन्दिर तू' मूरत ईश जैसी।

ये' मेरा प्यार पूजन हो गया है।।



जलाया प्यार का जो दीप तुमने।

अँधेरा दिल ये' रौशन हो गया है।।



न टूटेगा जो' मर कर भी जहां में।

मेरा तुझसे वो' बन्धन हो गया है।।



धनुष-भौहें ये' चंचल नैन तेरे।

छुरी ये हाय! अंजन हो गया… Continue

Added by रामबली गुप्ता on September 5, 2016 at 8:00am — 4 Comments

गजल(बंदिशों को तोड़कर....)

2122 2122 2122 212

बंदिशों को तोड़कर हलचल करूँगाआज भी

बात मन की बेझिझक मैं तो कहूँगा आज भी।1



फिर गयीं नजरें बहुत ही क्या हुआ कुछ गम नहीं,

आँख में बनकर सपन मैं तो रहूँगा आज भी।2



ले गये कितने बवंडर तोड़ कर कलियाँ मगर,

डाल पर इक फूल बन मैं तो सजूँगा आज भी।3



टूटती अबतक रही हैं गीत की लड़ियाँ मगर,

राग बन हमराज का मैं तो बजूँगा आज भी।4



लुट गये कितने सपन बेढ़ब फिजाओं के तले,

इक घरौंदा रेत पर फिर से रचूँगा आज भी।5



होंठ… Continue

Added by Manan Kumar singh on September 5, 2016 at 5:00am — 8 Comments

विरासत - (लघुकथा)-

विरासत - (लघुकथा)-

सुजाता मैडम पिछले तीन दिन से कक्षा सात के छात्रों को विरासत के मायने समझा रहीं थीl  जो छात्र तेज और मेधावी थे, वे तो पहले रोज ही समझ गये लेकिन अधिकांश छात्र अभी भी इसका वास्तविक मतलब नहीं जान पाये थेl मैडम ने इसे सरल तरीके से समझाने के लिये छात्रों को एक  गृह कार्य दिया कि सभी छात्र अपने परिवार के बुजुर्गों से पूछ कर पिछली तीन पीढ़ियों द्वारा छोड़ी गयी चल और अचल संपत्तियों का व्यौरा लिख कर लायेंl

आज मैडम उस शीर्षक को अंतिम रूप देकर समाप्त कर देना चाह रही थींl…

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Added by TEJ VEER SINGH on September 4, 2016 at 9:01pm — 22 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हे गणपति! हे विघ्न विनाशक.....वंदना गीत//डॉ. प्राची

हे गणपति! हे विघ्न विनाशक! वंदन तुम स्वीकार करो।

राह कठिन चहुँ ओर अँधेरा, प्रभु तम का संहार करो।



हैं पग के उद्देश्य सभी शुभ

तुम मंज़िल इनको देना,

जो रोकें रस्ता मंज़िल का

उन विघ्नों को हर लेना

तुम असीम हम प्राणी सीमित, प्रभु तुम ही उद्धार करो।हे गणपति...



बिछी बिसातें चौसर की और

मंगल हुए अमंगल हैं,

अपने गढ़ते चक्र-व्यूह और

अपनों से ही दंगल हैं,

सुलझे गुत्थी शह-मातों की, हर उलझन से पार करो। हे गणपति...



जीवन -जैसे जटिल… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on September 4, 2016 at 2:30pm — 6 Comments

दीवारें और भरोसे के ताले (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

'भरोसे' पर चल रही चर्चा के तहत सोशल साइट पर टिप्पणियों को पढ़कर कपिल ने रंजन से कहा- "पहले दीवारें छोटी होतीं थीं, लेकिन पर्दा होता था....ताले की ईजाद से पहले सिर्फ भरोसा होता था, मेरे दोस्त!"



रंजन ने प्रत्युत्तर में कहा- "हाँ, पर अब, दीवारें बड़ी हैं, पारदर्शी हैं। घर में सब कुछ भले नकली हो, पर ताला ज़रूर असली है।"



"असली है, पर क्या भरोसे का है?" कपिल ने पूछा।



"किसकी बात कर रहे हो, ताले की ही या धार्मिक बंधन और परम्परा, रिवाज़ों के बंधन की भी!" -रंजन ने कुछ… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 4, 2016 at 2:28pm — 3 Comments

रिश्तों को समझ जाएगी ...

रिश्तों को समझ जाएगी ...



न आवाज़ हुई

न किसी ने कुछ महसूस किया

इक जलजला आया

इक सूखा पत्ता

दरख़्त से गिरा

और बेनूर हुआ

इक आदि का

अंत हुआ

सीने में ही घुट गया

किसी अपने के खोने का दर्द

हरी कोपल हँसी

जीवन के इस खेल का

ए दरख़्त

अफ़सोस कैसा ?

नमनाक नज़रों से

दरख़्त

आरम्भ को देखता रहा

गिरते हुए पत्तों में

रिश्तों का अंत

देखता रहा

वो अंश था मेरा

जो इस तन से

टूट…

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Added by Sushil Sarna on September 4, 2016 at 1:30pm — 8 Comments

तरही ग़ज़ल (समीक्षार्थ)

तरही मिसरा:जनाब समर कबीर जी



खजां से अब खफ़ा मन हो गया है

कि बंजर आज गुलशन हो गया है।



रहे जिसकी इबादत में सदा हम

खफ़ा हमसे वो' भगवन हो गया है।



नशे में खो गयी सारी जवानी

सभी का खोखला तन हो गया है।



मिटा नफरत बसाया प्यार दिल में

"मेरे सीने की धड़कन हो गया है।"



करें खुशहाल हम अपने वतन को

उसी पर तो फ़िदा मन हो गया है।



चलो सचकी पकड़ के राह 'सत्तू'

सही सबका ही' जीवन हो गया है।





मौलिक एवं… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 4, 2016 at 12:00pm — 10 Comments

दिग्पाल छ्न्द(वियोग शृंगार रसः)/ मृदुगति छ्न्द

दिग्पाल छ्न्द(मात्रिक छ्न्द)/ मृदुगति छ्न्द



मापनी:2212 122 2212 122

(वियोग श्रृंगार रस)



हाँ, प्रेम है तुम्हीं से,मनमीत मान लो तुम

चाहत हमें तुम्हीं से, ये बात जान लो तुम

क्यों छोड़ चल दिए हो,मँझधार में मुझे तुम

मुख मोड़ चल दिये हो, तज धार में मुझे तुम।



मुश्किल हुआ विरह अब,ये पल बिता न पाऊँ

साथी बिना तुम्हारे, किस ओर पग बढ़ाऊँ

जो होंठ पर टिका है, इक नाम है तुम्हारा

अब याद ही तुम्हारी, प्रीतम मुझे सहारा।



ये प्रेम का… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 3, 2016 at 8:30pm — 9 Comments

लाचार व्यवस्था / अलका चंगा

अंधकार में उजली बातें, लहू से बोझिल होती रातें

इक दूजे को काट रहे सब , डर का कारोबार बढ़ा है



ग़ुरबत झेल रहा अन्नदाता, वादों का व्यापार बढ़ा है

छिन्न भिन्न लाचार व्यवस्था, खेतो का अस्तित्व कड़ा है

लक्ष्मी पूजन कन्या पूजन, इतिहास न हो जाए

जननी रूठ गई जो जग से, वंश व्रद्धि पर प्रश्न पड़ा है

भावी पीढ़ी भटक रही है, गफलत के गलियारों में

भीख मांगता कोमल बचपन, यौवन आरक्षण में गड़ा है

अभी आजादी बाकी है, एक संग्राम बाकी है…

Continue

Added by अलका 'कृष्णांशी' on September 3, 2016 at 4:00pm — 10 Comments

मृत्यु फिर जीत गयी .....

मृत्यु फिर जीत गयी .......

लम्हे यादों के 

बढ़ती शब् के साथ

पिघलते रहे

मेरे अहसास

लफ़्ज़ों के पैरहन में

गूंगे बन

सिरहाने रखीं किताब में

पिघलते रहे

दीवारों पर

छाई शून्यता की काई में

ये नज़रें

किसी के बहते लावे के साथ

पिघलती रही

मैं और तुम

का अस्तित्व

पिघलकर

एक हुआ

ज़िस्म केज़िंदाँ में

अनबोले लम्स

पिघलते रहे

ज़िस्म मिटे

साये…

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Added by Sushil Sarna on September 3, 2016 at 4:00pm — 12 Comments

चुप्पी /कान्ता रॉय

एक चुप्पी इधर,एक चुप्पी उधर भी

चुप रहने का यह क्षण,दरअसल शोर था

झंझावात था



आमादा था निगलने पर

रिश्ते को रिश्ते के साथ ,जो आस्तित्वहीन था

उस आस्तित्वहीन की गर्माहट…

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Added by kanta roy on September 3, 2016 at 10:30am — 17 Comments

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