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ग़ज़ल .........नहीं हैं लफ्ज़ मिलते शायरी के .....

बह्र ~ 1222-1222-122
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन 

मतला ...

नहीं ये आँख में आंसू ख़ुशी के

ये आंसू हैं किसी मुफलिस दुखी के 


ग़ज़ल कैसे लिखूं मैं लिख न पाती, 

नहीं है लफ्ज़ मिलते शायरी के.

 

नहीं आदत है हमको तीरगी की ,

जियें कैसे बता बिन रौशनी के.

 

बहुत ग़मगीन हैं दिल की फिज़ायें,

किसे किस्से सुनाएँ बेबसी के.

 

कहे हमने नहीं अल्फाज दिल के,

गुजर ही जायेंगे दिन जिन्दगी के.

 

अगर “आभा जो  मुझ से बात करती ,

मुझे  भी प्यारे लगते दिन अभी के.

 

.....आभा

 

 

 अप्रकाशित एवं मौलिक 

 

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Comment by Abha saxena Doonwi on September 12, 2016 at 9:19am

आदरणीय समर कबीर जी नमस्कार ,

आप सही कह रहे हैं शायद इसको ग़ज़ल कहना उचित न होगा ....मैं मतला भी लिखने की कोशिश करुँगी ...शुक्रिया आपका ...

Comment by Samar kabeer on September 11, 2016 at 2:55pm
मोहतरमा आभा सक्सेना जी आदाब,अशआर आपने अच्छे लिखे,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं । इसे ग़ज़ल इसलिये नहीं कह सकता कि इसमें मतला नहीं है ।

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