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ज़िन्दगी (कविता)

छोटी छोटी सी खुशियां

भर देती हैं  झोली

हंसी ख़ुशी दिन बीते जब

ज़िन्दगी लगती  हमजोली



जीवन के है रंग निराले

जो  खेले आँख मिचोली

एक आये जब दूजा जाए  

ज़िन्दगी लगती मखमली |



लेकर बहार आती है ज़िन्दगी

प्यार से जब सींचि जाती है

कड़वाहट का ज़हर भी पीती

अपना असर दिखाती है |



अपनों के बीच अपनों के संग

प्यार को पाती है ज़िन्दगी

प्यार गर न मिले तो

सूखे पत्तों की तरह मुरझा जाती है ज़िन्दगी |

मौलिक एवं…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 6, 2016 at 10:30pm — 10 Comments

जब ठहरना न मुनासिब हो तो चलते रहिये(तरही गज़ल)/सतविन्द्र कुमार

बह्र:2122,1122 1122 22



जब ठहरना न मुनासिब हो तो चलते रहिए

साथ चलके भी जमाने को' बदलते रहिए।  



रुत बदलती सी ये तबियत पे ही होती भारी

ठीक होगा यूँ अगर आप भी ढलते रहिये।



आग खामोश करा देती सभी  का जीवन

एक दीपक की' तरह खुद ही तो जलते रहिए।



वक्त आवाज खिलाफत में उठाने का है

जुल्म से दब क्युँ यूँ बस खुद ही में गलते रहिए।



ग़म मिला है तो ख़ुशी भी आ मिलेगी यारो

*हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिये*।



क्या मिला है जो… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 6, 2016 at 8:35pm — 6 Comments

ममता--

फोन की घंटी लगातार बज रही थी, रश्मि दूसरे कमरे में बैठी काँप गयी| किसी तरह फोन बंद हुआ तब तक विवेक भी अंदर आ गया और दूसरे कमरे में आकर बोला "यहीं बैठी हो, फोन क्यों नहीं उठाया?

रश्मि कुछ बोल नहीं पायी, उसके चेहरे पर जैसे सन्नाटा छाया हुआ था| तभी विवेक के मोबाइल पर बेटी का फोन आया "पापा, मम्मी घर में नहीं है क्या, फोन नहीं उठाया उन्होंने"|

"नहीं बेटा, वो घर में ही है, लो बात कर लो", कहते हुए उसने फोन रश्मि को पकड़ा दिया|

"सब ठीक है बेटी, बस ऐसे ही झपकी आ गयी थी इसलिए फोन नहीं उठा…

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Added by विनय कुमार on October 6, 2016 at 6:24pm — No Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मखमली यादों में लिपटी ज़िन्दगानी और है- शिज्जु शकूर

2122 2122 2122 212

मखमली यादों में लिपटी ज़िन्दगानी और है

वो लड़कपन खूब था अब ये  जवानी और है

 

आसमाँ सर पर उठाकर तूने साबित कर दिया

तेरा किस्सा और कुछ था हक़बयानी और है

 

मैं छुपाता हूँ जहाँ से दर्द-ए-दिल ये बोलकर

हिज़्र की तासीर कुछ मेरी कहानी और है

 

वस्ल की बातें वो लमहे भूल भी जाऊँ मगर

मेरे दिल में इक मुहब्बत की निशानी और है

 

आबले हाथों के मुझसे कह रहे हैं फूटकर

कामयाबी और शय है जाँफ़िशानी…

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Added by शिज्जु "शकूर" on October 6, 2016 at 5:54pm — 16 Comments

वादा .....

वादा .....

मेरे ग़मगुसार ने

इक वादा किया था

कि वो हर लम्हा

मेरा ज़िस्म होगा

मेरा हर ग़म

उस पे आशकार होगा

फ़ना की तारीक वादियों में भी

वो मेरे साथ होगा

क्या सच में उसने

इस जहां से

उस जहां तक

साथ निभाने का

वादा किया था

लम्हा दर लम्हा

दूरी का अज़ाब बढ़ता गया

अकेलेपन की शाखाओं पे

यादों का शबाब

बढ़ता गया



साये गुफ़्तगू करने लगे

मेरी अफ़सुर्दा निगाहें

जाने ख़ला में…

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Added by Sushil Sarna on October 6, 2016 at 2:02pm — 10 Comments

ख़ाना ख़राब (लघुकथा) जानकी बिष्ट वाही

दो दिन से भूखा-प्यासा कबीर धूल भरी पगडंडियों में भटक रहा है।अज़ब है उसकी जिंदगी भी,दुनिया वालों के लिए अनाथ और पागल, न उसकी कोई जाति न कोई धर्म,जाने किसने,कब ,कहाँ,उसका नाम कबीर रख दिया। लोगों के रहमों करम से मिल गया तो खा लिया, हिन्दू के घर से रोटी ली तो मुसलमान के घर से सब्जी, स्वाद में कोई फ़र्क नहीं। गाँव दर गाँव नापता।



इधर सरहद पर तनातनी के बाद मरघट सी ख़ामोशी हवाओं में सरसरा रही है।मीलों आदमजात की आमद दरफ्त नहीं हैं।बेज़ार भटकता कबीर उस गाँव में पहुँचा तो लगा मकानों के…

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Added by Janki wahie on October 6, 2016 at 11:30am — 9 Comments

मर्ज

मरीज के
मर्ज का इल्जाम
मरीज पर आ रहा है
आश्चर्य नहीं
इस दौर में
मरीज को
मरीज
खींचे जा रहा है ।
क्या
किसी की
नजर में
बीमार
बीमार है?
मगर
स्वस्थ दिखने वाले
कितने
लाचार हैं ।
जन-जन
कण-कण
समस्त पर्यावरण
कौन
किसको
दवा दे?
क्योंकि
चिकित्सक और दवाखाना
दोनों
बीमार हैं।

सुरेश कुमार ' कल्याण '
मौलिक व अप्रकाशित

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 6, 2016 at 9:45am — 8 Comments

लघुकथा- फर्क (अर्पणा शर्मा)

 "अरे , मकान का काम देखने मम्मी जी , पापाजी को भेज दें।", राखी कुनमुनाई, "बेकार ही घर में बैठे हैं" वो सोचने लगी, " हम तो खाना निपटा कर फिर थोड़ी देर वहाँ काम देख आएँगे", सास-ससुर के जाते ही उसने आजादी की साँस ली और जल्दी से मायके फोन लगाया । वैसे तो सुबह उठकर सबसे पहले अपने पिताजी से बात करके ही उसका दिन शुरू होता है पर फिर भी पूछना था कि उन्होंने ठीक से खाना खाया कि नहीं । तभी नन्ही पलक ठुमकती आई-"मम्मी सू आरही है", "अरे भई, अपन से नहीं होता ये सब, बच्चों की सू-सू, पाॅटी", राखी ने…

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Added by Arpana Sharma on October 5, 2016 at 11:00pm — 4 Comments

नयन भी तरस गये ( कविता)

छम छम करती हुई
आयी जब वो छत पर
चाँद भी जैसे ठहर सा गया
यौवन उसका देखकर
श्वेत वस्त्रों में लिपटी हुई
कुछ शरमाई कुछ अलसायी
देख रही थी बादलों को
लगा मानो कह रही हो
बुला दो मेरे प्रियतम को
देख उसको बादल भी बरस पड़े
पीड़ा थी जुदाई की
या थी प्रीत की जीत
चाँद भी जा चूका था
बादल भी बरस गये
पिया के दरस को
नयन भी तरस गये |

मौलिक एवं अप्रकाशित


Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 5, 2016 at 5:20pm — 10 Comments

ग़ज़ल

बहर :१२२*४

सभा में गरीबों की चर्चा नहीं है

किसी को  कभी उनकी चिन्ता नहीं है |

वज़ह होगी तो ही कहे दिल का अपना 

सकल सच तो कोई बताता नहीं है |

सभी ओर धोखा है सच्चा न कोई

सही कोई रिश्ता निभाता नहीं है |

हमारा तुम्हारा जो नाता पुराना

यहाँ ऐसा अब इक भी रिश्ता नहीं है |

सगे सब कुटुम्बी दिखावे के हैं अब

कमी है समझ की समझता नहीं है |

प्रणय गीत गाना सनम प्यार से अब

बिना प्यार जीवित ही रहना नहीं है…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on October 5, 2016 at 5:00pm — 10 Comments

करमों से नाम बने

कोई सूली पर चढ़े
और मसीह बने
कोई वन को गए
और राम बने
कोई सीता पर मरे
और रावण बने
अपमानित हुई नारी
और भीष्म बने
राहुल को त्यागे
और गौतम बने
नर्क भी यहीं है
स्वर्ग भी यहीं है
इतिहास मरने
से पहले है बनता
धरती पर ही
अपने करमों से
कुछ राम बने
और रावण बने
मौलिक अप्रकाशित

Added by S.S Dipu on October 5, 2016 at 1:11am — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४५

है ख़ुदी जब तक बनी खुद्दारियाँ जातीं नहीं 

हो अना जब सामने दुश्वारियां जातीं नहीं

मुश्किलें हैं कोह की मानिंद गिर्दोपेश में 

ज़िंदगी की ज़िल्लतोलाचारियाँ जातीं नहीं

हूँ फसां मैं रोज़गारी फ़िक्र के गिर्दाब में 

सख्त हैं हालात जिम्मेदारियाँ जातीं नहीं

दिल हुआ मजरूह जिसकी इक नज़र से उम्र भर 

उस फ़ुसूनेनाज़ की आजारियाँ जातीं नहीं

वो नहीं मुझको मिला सौगात लेकिन दे गया 

खू-ए-सोज़िश हो गई गमख्वारियाँ जातीं…

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Added by राज़ नवादवी on October 4, 2016 at 5:50pm — 10 Comments

कविता - "उत्कर्ष"/अर्पणा शर्मा

“उत्कर्ष“

एक टिमटिमाते, बुझते तारे का उत्कर्ष,

देख लोग, होते चमत्कृत,

लेकिन वे बूझने में असमर्थ,

उसका नैपथ्य में छिपा,

गहन, सतत संघर्ष,

रुपहली चमक के पीछे छिपे,

कालिमा के सुदीर्घ, लंबे वर्ष,

फिर भी आशाओं से परिपूर्ण,

बाधाएँ, चुनौतियाँ पार कर,

उत्साहित, प्रसन्नचित्त, प्रकाशमान सहर्ष,

प्रोत्साहन देता अनूठा, गांभीर्य शब्द संघर्ष,

छिपा गूढ इसमें तात्पर्य,

ड़टे रहो कर्तव्यपथ पर “ संग + हर्ष",

अब दूर कहीं मुसकुराता है,…

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Added by Arpana Sharma on October 4, 2016 at 5:41pm — 6 Comments

मुसीबत और हो जाती (मिजाहिया गज़ल)

अगर ना भागता छुट कर मुसीबत और हो जाती

तेरे घरवालों से मेरी मुरम्मत और हो जाती।

.

बुला कर घर में पिटवाना कहीं इतना ज़रूरी था

तू खुद ही डाँट देती तो नसीहत और हो जाती।

.

खुदा का शुक्र है भाई तुझे दो ही दिए उसने

अगर दो और दे देता क़यामत और हो जाती।

.

बड़ी मुश्किल तेरे कुत्ते से हमने कफ़ था छुड़वाया

जो फ़ट पतलून जाती तो फजीहत और हो जाती।

.

कि रस्ते में तो बिल्ली ने इशारा भी किया था पर

अगर कुछ बोल कर कहती सहूलत और हो…

Continue

Added by Gurpreet Singh jammu on October 4, 2016 at 9:30am — 9 Comments

हिट-पिट , गिटपिट -- डॉo विजय शंकर

हिट हिटा हिट हिट

पिट पिटा पिट पिट

ये भी एक अज़ब दौर है

क्या हो जाए कब हिट

क्या जाये कब पिट

पब्लिक की च्वॉइस

मीडिया की वॉयस।

जिस नेता की जयंती बरसी

दो दिन उसकी बातें हिट।

जिससे हो अपना भला ,

हो अपना मामला फिट

वही हिट, वही हिट, वही हिट ,

बाकी सब गिटपिट गिटपिट।

ये बड़ी ख़बर , वो ख़बर हिट ,

गाना हिट , पिक्चर हिट ,

विचार हिट , डायलॉग हिट

मेकियावली हिट , चाणक्य हिट ,

ये नेता हिट ,उसका घोर विरोधी भी हिट… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on October 4, 2016 at 9:15am — 4 Comments

ग़ज़ल ( शुरुआते मुहब्बत हो गयी )

ग़ज़ल ( शुरुआते मुहब्बत हो गयी )

------------------------------------------

(फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन- फाइलुन )

यक बयक मुझ पर सितमगर की इनायत हो गयी ।

ऐसा लगता है शुरुआते  मुहब्बत   हो  गयी ।

की वफ़ा गैरों से अहदे इश्क़ अपनों से किया

जानेमन यह तो अमानत में खयानत हो गयी ।

यह नतीजा तो अज़ीज़ों पर  यक़ी करने का है

यूँ नहीं पैदा सनम के दिल में नफरत हो गयी ।

दिल की अब कीमत कहाँ है हुस्न के बाजार…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on October 3, 2016 at 8:58pm — 16 Comments

हिन्दी दिवस - लघुकथा

उस दिन मैं हिन्दी दिवस के एक समारोह में शामिल होने के लिए शेयरिंग कैब में दिल्ली एयरपोर्ट से सिविल लाइंस जा रहा था। कैब में दो और सहयात्री सवार थे। वे दोनों पीछे की सीट पर और मैं फ्रंट सीट पर था। उन दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई तो पता चला एक मद्रासी तो दूसरा राजस्थानी है। 

मद्रासी – तुम कहाँ का रहनेवाला है ? 

राजस्थानी – आई’m फ़्रोम जयपुर, एंड यू ? 

मद्रासी – मैं चेन्नै में रहता। तुम क्या करता है ? 

राजस्थानी – आई’m ए एग्जीक्यूटिव इन बैंकिंग…

Continue

Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on October 3, 2016 at 6:44pm — 4 Comments

ग़ज़ल( इस्लाह के लिए )मनोज अहसास

1222 1222 122



खुदा की दुनिया में क्या क्या नहीं है

हमारी आस को खतरा नहीं है



खुदा से यूँ हमे शिकवा नहीं है

उसे हमने मगर देखा नहीं है



किसी के हाथ में चुभती है चाँदी

किसी के हाथ में चिमटा नहीं है



बदलते दौर में उस घर का नक्शा

गली के मोड़ से दिखता नहीं है



बिखरकर खो गए यादों के मोती

हुनर का मुझमें ही धागा नहीं है



दुआ में और क्या मांगूं मैं या रब

उन्हें मुद्दत से बस देखा नहीं है



उतर आती है ज़न्नत… Continue

Added by मनोज अहसास on October 3, 2016 at 2:54pm — 8 Comments

त़रह़ी ग़ज़ल..

1222 1222 1222 1222



तेरे औ' मेरे नामों पर सियासत और हो जाती

निहाँ होता नहीं सब कुछ तो आफ़त और हो जाती.



ह़दों से आगे जा कर ये ग़मे फ़ुर्क़त असर करता

अगर मुझको तेरी स़ुह़्बत की आ़दत और हो जाती.



ये रोने धोने का आ़लम, फ़िराक़े यार का मौसम

ए क़िस्मत! हैं अभी ये कम, अज़ीयत और हो जाती!



ख़िरद पर ग़र यकीं करते नहीं फिर जाने क्या होता

जो सुनते दिल की, दुनिया से अ़दावत और हो जाती.



चलो अच्छा हुआ दो टूक तुमने कह दिया… Continue

Added by shree suneel on October 3, 2016 at 11:45am — 3 Comments

तड़प

(श्रृंगार छंद की रचना। 16 मात्रा आदि 32 अंत 23(21) )



सजन ना प्यास अधूरी छोड़।

हमारा नाजुक दिल ना तोड़।

बहुत हम तड़पे करके याद।

एक दुखिया करती फरियाद।।



सदा तारे गिन काटी रात।

बादलों से करती थी बात।

रही मैं रोज चाँद को ताक।

कलेजा होता रहता खाक।।



मिलन रुत आई बरसों बाद।

करो मत इसको यूँ बरबाद।

गले से लगने की है चाह।

निकलती साँसों से अब आह।।



बाँह में लो निचोड़ तुम आज।

छेड़ दो रग रग के सब साज।

होंठ अब रहे… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 2, 2016 at 7:17pm — 10 Comments

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