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रोज़ देखतीं हूँ
शाख पर बैठी हुई
चिड़ियाओं को

जो बैठती हैं
एक शाख़ पर
कलरव करती हैं ।

भूख लगने पर
पंखों को फ़ैलाए
उड़ जाती हैं ।
अपने लिए
दाना ढूंढने ।

समय आने पर
बीनती हैं तिनके
अपने लिए
एक घरौंदा बनाती हैं ।


करती हैं परवरिश
विहग-सुवन की ।

करतीं हैं इन्तज़ार
समय का
पंख आ जाने पर
जो कल एक
बच्चा था
उड़ जाता है
ऊँचे गगन में
उड़ जाता है
अपनी फुर्रर्रर
की आदत से ।

रह जाती है
पीछे वे शाखें
जो करतीं हैं
फिर से उन चिड़ियाओं का इंतज़ार ।

मौलिक ऐवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 15, 2016 at 8:11pm
आदरणीया कल्पना भट्ट जी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 14, 2016 at 5:45am
धन्यवाद आदरणीय राजेश दी ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 13, 2016 at 10:34pm

बहुत  भावपूर्ण रचना बधाई आपको प्रिय कल्पना जी 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 13, 2016 at 3:52pm
धन्यवाद आदरणीय विजय जी ।
Comment by vijay nikore on October 13, 2016 at 3:28pm

सुंदर रचना। पढ़ कर आनंद आ गया । बधाई।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 12, 2016 at 10:03pm
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब तस्दीक़ साहब ।
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 12, 2016 at 9:07pm

मोहतरमा  कल्पना   साहिबा  ,  दिल की गहराईयो में उतरती और  सीख देती सुन्दर कविता  के  लिए दिल से मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 12, 2016 at 3:07pm
धन्यवाद आदरणीय श्याम नारायण जी ।
Comment by Shyam Narain Verma on October 12, 2016 at 1:17pm
वाह ! बहुत खूब | सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 12, 2016 at 10:40am
धन्यवाद आदरणीय रामबली सर ।

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