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तरही गजल (मुहब्बत में अगर कोई कभी बीमार हो जाये)

बह्र 1222 1222 1222 1222



कहीं जो खेत में कमबख्त खरपतवार हो जाये

जमीं हो लाख उपजाऊ मग़र बेकार हो जाये



ज़रा सच से अगर जो रूबरू अखबार हो जाये

जगे जनता वतन की और सज़ग सरकार हो जाये



कोई घर मे अगर जयचंद सा गद्दार हो जाये

इरादे हों भले मजबूत फिर भी हार हो जाये



दवा भी बेअसर हो वैद्य भी लाचार हो जाये

मुहब्बत में अगर कोई कभी बीमार हो जाये



करें सहयोग माँ के साथ जो सब घर के कामों में

तो फिर उसके लिये भी एक दिन इतवार हो… Continue

Added by नाथ सोनांचली on May 22, 2017 at 12:30pm — 20 Comments

जो चाहेगा वो हंस लेगा - डॉo विजय शंकर

बातें ,
वादे ,
इरादे ,
जब पूरे न हों
तो बात बदल दो ,
इरादे बदल दो ,
चुटकुले सुना दो,
लोगो को हंसा दो ,
इस पर हंस लो ,
उस पर हंस लो ,
जिस पर चाहो
उस पर हंस लो ,
खुद पर हंस लो।
खुद पर ?
खुद पर क्यों ?
नहीं , खुद पर मत हंसो।
ये काम कल कोई और कर लेगा ,
जो चाहेगा वो कर लेगा ,
जो चाहेगा वो हंस लेगा।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on May 22, 2017 at 12:28pm — 1 Comment

किसी मरते को जीने का वहाँ अधिकार हो जाए(तरही गजल)

1222 1222 1222 1222

किसी मरते को जीने का वहाँ अधिकार हो जाए

अगर सहरा में पानी का ज़रा दीदार हो जाए



ये गिरना भी सबक कोई सँभलने के लिए होगा

मिलेगी कामयाबी हौंसला हर बार हो जाए



वफ़ा करके नहीं मिलती वफ़ा सबको यहाँ यारो

किसी की जीत उल्फत में,किसी की हार जाए



कि खुलकर आज कह डालो दबी है बात जो दिल में

*बुरा क्या है हकीकत का अगर इज़हार हो जाए*



खमोशी को हमेशा ही समझते हो क्यों कमजोरी?

यही गर्दिश में इंसाँ का बड़ा औज़ार हो… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 22, 2017 at 9:00am — 17 Comments

गजल( वह जमीं पर आग यूँ बोता रहा)

2122  :    2122         212 

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

वह जमीं पर आग यूँ बोता रहा

और चुप हो आसमां सोया रहा।1



आँधियों में उड़ गये बिरवे बहुत

साँस लेने का कहीं टोटा रहा।2



डुबकियाँ कोई लगाता है बहक

और कोई खा यहाँ गोता रहा।3



पर्वतों से झाँकती हैं रश्मियाँ

भोर का फिर भी यहाँ रोना रहा।4



हो…

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Added by Manan Kumar singh on May 22, 2017 at 8:27am — 7 Comments

बहती नदी (कविता)

बहती नदी से पूछा मैंने

बहती रहती हो थमती नहीं



देख मुझको वो मुस्कायी

बोली कुछ पल कुछ भी नहीं ।



देख हंसी उसकी फिर पूछा मैंने

बोलो न क्यों तुम रूकती नहीं



देख मेरी उत्सुकता वह बोली

अरे मेरी भोली सी बहना



रुक गयी तो कैसे चलेगा

खेतों का गागर कैसे भरेगा



सागर से फिर कौन मिलेगा

हरियाली से कौन बतियाईएगा



इतराती नहीं नारी हूँ मैं भी

चंचल हिरणी , मनभावन हूँ मैं भी



टकरा जाती हूँ चट्टानों… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 22, 2017 at 7:45am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बटा ग़िलाफ़ तलक माँ की उस रिजाई का (ग़ज़ल 'राज')

1212 1122 1212 22 (ग़ज़ल कतआ से शुरू है )

किसी की आँख से अश्कों की आशनाई का

किसी जुबान से लफ़्ज़ों की बेवफाई का

सुखनवरों का हुनर है जो ये समझते हैं

भला क्या रिश्ता है कागज से रोशनाई का

जमीन बिछ गई आकाश बन गया कम्बल

बटा ग़िलाफ़ तलक  माँ की उस रिजाई का

जहर भी पी गई मीरा  जुनून-ए-उल्फत में

न होश था न उसे इल्म जग हँसाई का

लगाम लग गई उसके फिजूल खर्चों पर

गया जो पैसा…

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Added by rajesh kumari on May 21, 2017 at 3:30pm — 13 Comments

ग़ज़ल नूर की- किसे गुरेज़ जो दो-चार झूठ बोले है,

१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)

.

किसे गुरेज़ जो दो-चार झूठ बोले है,

मगर वो शख्स लगातार झूठ बोले है.

.

चली भी आ कि तुझे पार मैं लगा दूँगी, 

हमारी नाव से मँझधार झूठ बोले है.

.

सवाल-ए-वस्ल पे करना यूँ हर दफ़ा इन्कार 

ज़रूर मुझ से मेरा यार झूठ बोले है.

.

कहानी ख़ूब लिखी है ख़ुदा ने दुनिया की,

कि इस में जो भी है किरदार, झूठ बोले है. 

.

पटकना रूह का ज़िन्दान-ए-जिस्म में माथा,

बिख़रना तय है प् दीवार झूठ बोले है.   

.

निलेश…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 21, 2017 at 9:33am — 25 Comments

जिजीविषा (लघुकथा)

“छह महीने होने आए, डॉक्टर साहब माई की सेहत में कोई खास अंतर तो दिख नही रहा!”

आश्रम के संचालक ने अपने आश्रम के नियमित डॉक्टर से चिंता बांटी, जो अभी अभी सब मरीज़ों का रुटीन चेकअप करके आश्रम स्थित छोटे से कमरे में आकर बैठें थे जो कि उनका आश्रम में क्लिनिक था।

“हाँ, विलास बाबू! है तो चिंता की बात, इतनी ऊँचाई से गिरी थी और उम्र भी है,आप खुद ही सोचिए।” डॉक्टर साहब में गोल-गोल शब्दों में स्पष्ट किया।

“हाँ आपने कहा तो था शहर ले जाने को, पर क्या करें हमारी विवशता है। वो तो आपका सहारा है…

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Added by Seema Singh on May 21, 2017 at 9:00am — 6 Comments

ग़ज़ल बह्र-22/22/22/2

उसने बस धन देखा है,
कब ये जीवन देखा है ।
टेसू छाया बाग़ों में,
उसका यौवन देखा है ।
देखी उसकी सूरत तो,
फिर से दरपन देखा है ।
जब-जब बरसे बादल तो,
भीगा तन-मन देखा है ।
उसकी बजती पायल पर,
खिल उठता मन देखा है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 21, 2017 at 7:54am — 15 Comments

गज़ल

1222 1222 122

अना की बात में कुछ दम नहीं है ।

कहा किसने तेरा परचम नहीं है ।।



मिलेंगी कब तलक ये स्याह रातें ।

मेरी किस्मत में क्या पूनम नही है ।।



अभी तक मुन्तजिर है आंख उसकी ।

वफ़ा के नाम पर कुछ कम नहीं है ।।



चिरागे इश्क़ पर है नाज़ उसको ।

उजाला भी कहीं मध्यम नहीं है ।।



सजा देंगे हमे ये हुस्न वाले ।

हमारे हक़ का ये फोरम नहीँ है ।।



तेरी जुल्फों की मैं तश्वीर रख लूँ।

मगर मुद्दत से इक अल्बम नही है… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on May 21, 2017 at 6:06am — 3 Comments

दुनिया कहती है, मैं ऐसा हूँ। दुनिया कहती है, मैं वैसा हूँ॥

दुनिया कहती है,

मैं ऐसा हूँ।

दुनिया कहती है,

मैं वैसा हूँ॥

जेठ की दोपहरी

पसीने का एहसास,

ताम्र वर्ण की-

अतृप्त प्यास॥

तेरी काँख के गंध

जैसा हूँ॥



दुनिया कहती है,

मैं ऐसा हूँ।

दुनिया कहती है,

मैं वैसा हूँ॥

सही वक़्त, सही लोग

मिल नहीं पाए।

शब्द बिखरे रहे,

अर्थ मिल नहीं पाए॥

उनींदी रातों की,

सिलवटों जैसा हूँ॥



दुनिया…

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Added by SudhenduOjha on May 20, 2017 at 10:05pm — No Comments

टूटा पहिया (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"ये मैं नहीं, तुम हो जो झुकते, डगमगाते टूट चुकी हो!"

"नहीं, यह सच नहीं! मीडिया और जनता तो यह कहती है कि तुम ही तो हो जिसकी यह हालत हुई है, समझीं!"



काठगाड़ी के आगे का पहिया ग़ायब था और उसी पर वे तीनों स्वयं को पहिया मानकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहीं थीं।

दरअसल ग़रीबी और पर्यावरण-प्रदूषण लटकाये लोकतंत्र की यह काठगाड़ी खींचती भारत-माता बुढ़िया के वेष में सच्चाई जानने के लिए निकल पड़ीं थीं। उनके कानों में मीडिया और जनता के आरोप-प्रत्यारोप भी सुनाई देने लगे।

"इस… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 20, 2017 at 8:17pm — No Comments

तरही ग़ज़ल, जनाब निलेश 'नूर' साहिब की नज़्र

मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन



बताऊँ,कैसे शब-ए-इन्तिज़ार गुज़री है

मेरे हवास पे होकर सवार गुज़री है



यही तो होता है हर शब हमारे सीने पर

ग़मों की फ़ौज बनाकर क़तार गुज़री है



न जाने कितनी तमन्नाओं का लहू पीकर

बड़ी ही धूम से फ़स्ल-ए-बहार गुज़री है



तुम्हें ख़बर ही नहीं है कि ये शब-ए-हिज्राँ

किसी ग़रीब का करके शिकार गुज़री है



तुम्हारा साथ जहाँ तक रहा वहाँ तक तो

हयात मेरी बहुत शानदार गुज़री है



हमारी नस्ल भी मग़रिब की तर्ज़… Continue

Added by Samar kabeer on May 20, 2017 at 12:08am — 25 Comments

ग़ज़ल--शम अ रोशन करो मुहब्बत की

ग़ज़ल

-----

(फ़ाइलातुन -मफ़ाइलुंन -फेलुंन)



आँधियाँ चल रही हैं नफ़रत की।

शमअ रोशन करो मुहब्बत की।



जिसको तदबीर पर यक़ीन नहीं

बात करता है वह ही किस्मत की।



दुश्मने जान हो गए उमरा

में ने मुफ़लिस की जब हिमायत की।



रहबरी के लिए चुना जिसको

साथ उसने मेरे सियासत की।



होश में आ जा बागबाने चमन

हो गई इब्तदा बग़ावत की।



उनके जलवों से वह नहीं वाकिफ़

बात करते हैं जो कियामत की।



वक़्त तस्दीक़ इम्तहान का… Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on May 19, 2017 at 9:18pm — 17 Comments

माँ

सुख के दुख के हर सांचे में, मिटटी जैसी ढलती माँ

मैं क्या कोई जान न पाया, कब सोती कब जगती माँ

गाँव छोड़कर, गया नगर में, लाल कमाने धन दौलत,

अच्छे दिन की आशा पाले, रही स्वयं को ठगती माँ

दीवाली पर सजते देखे, घर आँगन चौबारे

रहे भागती और दौड़ती, पता नहीं कब सजती माँ

घर के कोने कोने का, दूर अँधेरा करने को,

दीपक में बाती के जैसी, रात रात भर जलती माँ

बेटी और बहू की खातिर, जोड़े जाने क्या क्या तो,

सपने बुनकर…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 18, 2017 at 10:25pm — 4 Comments

ग़ज़ल.. जला दो दीप उल्फत के कभी काशी मदीने में

1222 1222 1222 1222

उठा लो हाथ में खंज़र लगा दो आग सीने में

धरा है क्या नजाकत में नफासत में करीने में



बड़े खूंरेज कातिल हो जलाया खूब इन्सां को

जला दो दीप उल्फत के कभी काशी मदीने में



उठी लहरें हजारों नागिनें फुफकारती जैसे

न कोई बच सका जिन्दा समंदर में सफीने में



न सर पे आशियाँ जिनके न खाने को निवाले हैं

उन्हें क्या फर्क पड़ता है यूँ मरने और जीने में



हुये मशहूर किस्से जब अदाए कातिलाना के

सहेजूँ किस तरह तुमको अँगूठी के नगीने… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 18, 2017 at 8:05pm — 12 Comments

अँधेरे ...

अँधेरे ...

किसने

स्वर दे दिए

रजनी तुम्हें

तुम तो

वाणीहीन थी

मूक तम को

किसने स्वरदान दे दिया

शून्यता को बींधते हुए

कुछ स्वर तो हैं

मगर

अस्पष्ट से

क्षण

तम के परिधान में

सुप्त से प्रतीत होते हैं

भाव

एकांत के दास हैं

शायद

तुम

इस तम की

वाणीहीनता का कारण हो

पर हाँ

ये भी सच है कि

तुम ही इस का

निवारण भी हो

दे दो प्राण

इन एकांत

अँधेरे को

छू लो इन्हें…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 17, 2017 at 5:18pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - हम चाह कर ख़ुदा की इबादत न कर सके ( गिरिराज भंडारी )

221  2121  1221 212

हो चाह भी, तो कोई ये हिम्मत न कर सके

तेरी जफ़ा की कोई शिकायत न कर सके

 

तुम क़त्ल करके चौक में लटका दो ज़िस्म को

ता फिर कोई  भी शौक़ ए बगावत न कर सके

 

हाल ए तबाही देख तेरी बारगाह की  

हम जायें बार बार ये हसरत न कर सके

बारगाह - दरबार

मैंने ग़लत कहा जिसे, हर हाल हो ग़लत

तुम देखना ! कोई भी हिमायत न कर सके

 

बन्दे जो कारनामे तेरे नाम से किये

हम चाह कर ख़ुदा की इबादत न कर…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on May 17, 2017 at 7:24am — 27 Comments

ग़ज़ल नूर की-मैं पहले-पहल शौक़ से लाया गया दिल में

22 11 22 11 22 11 22

.

मैं पहले-पहल शौक़ से लाया गया दिल में

फ़िर नाज़ से कुछ रोज़ बसाया गया दिल में.

.

वो ख़त तो बहुत बाद में शोलों का हुआ था,

तिल तिल के उसे पहले जलाया गया दिल में.

.

हालाँकि मुहब्बत वो मुकम्मल न हो पाई 

शिद्दत से बहुत जिस को निभाया गया दिल में.

.

अंजाम पता है हमें कुछ और है फिर भी,  

हीरो को हिरोइन से मिलाया गया दिल में.   

.

हम सच में तेरी राह में कलियाँ क्या बिछाते

पलकों को मगर सच में बिछाया गया…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on May 16, 2017 at 7:30pm — 22 Comments

रेत पर फूल खिलाने आये (ग़ज़ल)

2122 1122 22



रेत पर फूल खिलाने आये

दश्त में कितने दीवाने आये



मिल गया राह में बचपन का यार

याद फिर गुज़रे ज़माने आये



धूप के पंख निकल आये जब

कुछ शजर जाल बिछाने आये



एक दिन बेखुदी जो ले डूबी

तब मेरे होश ठिकाने आये



वक़्त-बेवक्त भड़क कर आँसू

ग़म की सरकार गिराने आये



नाम लिक्खा था किसी का उनपर

किसी के हिस्से में दाने आये



दिल का दरवाज़ा खुला ही रक्खो

किस घड़ी कौन न जाने आये



आया है हिज्र का… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on May 15, 2017 at 9:55pm — 15 Comments

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