कुछ ही मिनट पहले विदेश में जन्मे अपने पौत्र की तस्वीरें इंटरनेट पर देख रहे दंपति को खुशी से झूमते देखकर कोने में बैठा घर का नौकर भी अपने बेटे के कद काठ के बारे कयास लगा रहा था जिसे वह कुछ साल पहले गांव छोड़कर नौकरी के लिए शहर आ गया था।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on June 20, 2014 at 10:30am — 11 Comments
चलो एक वृक्ष लगाएं
करें पुण्य का काम
जो दे हम सब को
जीवन भर आराम
चलो एक वृक्ष लगाएं |
धरती माँ का गहना है ये
है ये उनका रूप श्रृंगार
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा
देता हमको जीवन दान
चलो एक वृक्ष लगाएं |
बरगद, पीपल, नीम, पाकड़
तुलसी, अक्षय, पारिजात
ये सब है उपहार प्रकृति का
मिला है सबको एक समान
चलो एक वृक्ष लगाएं |
जल का संग्रह करना है अब
सोच लें गर हम सब इक बार
वर्षा जल संचित कर के हम…
Added by Meena Pathak on June 20, 2014 at 8:30am — 13 Comments
कहा किसने कि राहे इश्क़ में धोका नहीं है
यहाँ जो दिखता है वो दोस्तों होता नहीं है
जो कुछ पाया ज़माने की नज़र में था हमेशा
गंवाया जो उसे इस दुनिया ने देखा नहीं है
गुज़ारी है वफ़ादारों में सारी उम्र मैंने
दग़ा करना किसी से भी मुझे आता नहीं है
मुझे मालूम है इक दिन जुदा होना है सबको
मगर ऐसे भी कोई दूर तो जाता नहीं है
मुहब्बत के सफ़र में हमसफ़र जितने थे मेरे
कोई भी साथ थोड़ी दूर चल पाया नहीं…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 20, 2014 at 12:37am — 10 Comments
पलकों ने चुम्बन के गीत सुने
आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने
साँसें यूँ साँसों से गले मिलीं
अंग अंग नस नस में डूब गया
हाथों ने हाथों से बातें की
और त्वचा ने सीखा शब्द नया
रोम रोम सिहरन के वस्त्र बुने
मेघों से बरस पड़ी मधु धारा
हवा मुई पी पीकर बहक गई
बाँसों के झुरमुट में चाँद फँसा
काँप काँप तारे गिर पड़े कई
रात नये सूरज की कथा गुने
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 19, 2014 at 9:24pm — 18 Comments
एक ताज़ा नवगीत -----जगदीश पंकज
मैं स्वयं निःशब्द हूँ,
निर्वाक् हूँ
भौंचक्क ,विस्मित
क्यों असंगत हूँ
सभी के साथ में
चलते हुए भी
खुरदरापन ही भरा
जब जिंदगी की
हर सतह पर
फिर कहाँ से खोज
चेहरे पर सजे
लालित्य मेरे
जब अभावों के
तनावों के मिलें
अनगिन थपेड़े
तब किसी अवसाद
के ही चिन्ह
चिपकें नित्य मेरे
मुस्कराते फूल
हंसती ओस
किरणों की चमक से …
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on June 19, 2014 at 7:30pm — 34 Comments
बरसाती बादल आ ही गए, ठंढक थोड़ी पहुंचा ही गए.
तपती धरती, झुलसाते पवन, ऊमस की थी घनघोर घुटन,
खाने पीने का होश नहीं, 'बिजली कट' और बढ़ाते चुभन
अब अम्बर को देख जरा, बिजली की चमक दिखला ही गए... बरसाती बादल आ ही गए,
सरकारें आती जाती है, बिजली भी आती जाती है,
वादों और सपनों की झोली,जनता को ही दिखलाती है
पर एक नियंता ऐसा भी, बस चमत्कार दिखला ही गए... बरसाती बादल आ ही गए,
अंकुरे अवनि से सस्य सुंड, खेतों में दिखते कृषक…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on June 19, 2014 at 3:30pm — 12 Comments
गजल- चल रही है आँंधियॉं...
बह्र-- 2122 2122 2122 212
जिन्दगी है आस्मां हर ओर खालीपन चुभे।
आजकल की दास्तां हर ओर खालीपन चुभे।।
चॉंद, अपनी चॉंदनी रखता नहीं जब पास में,
मेघ-मावस से जहां हर ओर खालीपन चुभे।1
भोर की लाली चहक कर मॉंगती वर खास है,
सॉंझ को लुटती यहां हर ओर खालीपन चुभे।2
प्यार आँंखों में दिलों में दर्द का दरिया बहे,
डूबती कश्ती शमां हर ओर खालीपन चुभे।3
झॉंकते हैं अब झरोखों से…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 19, 2014 at 1:30pm — 19 Comments
अहं के ताज़ को ……………
पूजा कहीं दिल से की जाती है
तो कहीं भय से की जाती है
कभी मन्नत के लिए की जाती है
तो कभी जन्नत के लिए की जाती है
कारण चाहे कुछ भी हो
ये निशिचित है
पूजा तो बस स्वयं के लिए की जाती है
कुछ पुष्प और अगरबती के बदले
हम प्रभु से जहां के सुख मांगते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
उसकी चौखट पे अपना सर झुकाते हैं
अपनी इच्छाओं पर
अपना अधिकार जताते हैं
इधर…
Added by Sushil Sarna on June 19, 2014 at 12:30pm — 16 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on June 19, 2014 at 8:53am — 16 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
हमें माझी की आदत है उसी के ही सहारे हैं
डुबो दे बीच में चाहे, वो चाहे तो किनारे हैं
मिटाने को हमें अब जा मिला घड़ियाल से माझी
कि साज़िश के निशाने पर ही हमने दिन गुजारे हैं
चमकती चीज ही मिलती रही सौगात में हमको
समझ बैठे ये धोखे से कि किस्मत में सितारे हैं
सियासत जो हमारे घर में ही होने लगी है अब
तभी हर बात में कहने लगे वो हम तुम्हारे हैं
अदावत घर में ही…
ContinueAdded by sanju shabdita on June 18, 2014 at 11:30pm — 34 Comments
बेटी बिन क्या हो सके, विकसित कभी समाज
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 18, 2014 at 8:00pm — 18 Comments
सिसकियाँ भरते रहे हम रात भर
चाँद ने भी देखा पर कुछ ना कहा
हवाएँ भी सुनकर चलती रही
दर्द सीने में लहरों सा उठता रहा
चाँदनी बादलों में छुपने लगी
सांस भी रह-रह कर रूकने लगी
सिर्फ बची मैं और मेरी तन्हाईयाँ
यादें करती रही पीछा बनकर परछाइयाँ
घटाओं ने समझा दर्द बस मेरा
बरसती रही वो रात भर
जख्म रिस-रिस कर ऐसे बहने लगे
घाव मरहम की ख्वाहिश में सहने लगे
पिघलकर रूह बिछने लगी
साया भी खुद से सहमने लगा
लौ जलती रही मगर तेल कम था
एक…
Added by Pragya Srivastava on June 18, 2014 at 5:30pm — 9 Comments
६ - हाइकु !
Added by AVINASH S BAGDE on June 18, 2014 at 3:07pm — 6 Comments
उफ़ गर्मी बहुत है रे
पैसे कौड़ी रह रह दिखाए
पास खड़ी खूब इतराए
महंगी से महंगी साड़ी पहने
गले में हीरो के लादे गहने
उफ़ गर्मी बहुत है रे ....
मंहगे पार्लर में जा के आये
कृतिम सुन्दरता पर भी इतराए
बालों की सफेदी मंहगे कलर से छुपाये
पैडी-मैनी क्योर न जाने क्या क्या करवाए
दात भी डाक्टर से चमकवाये
अपनी हर कुरूपता छुपाये
उफ़ गर्मी बहुत है रे.....
पति की नौकरी…
Added by savitamishra on June 18, 2014 at 11:21am — 18 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on June 18, 2014 at 8:06am — 22 Comments
कभी कभी
जब/ वाणी ,कलम और अनुभूतियाँ
यूँ छिटक जाते हैं
जैसे पहाड़ी बाँध से छूटी
उत्श्रिङ्खल लहरें
बहा ले जाती हैं /अचानक
खुशियाँ /सपने /और जिंदगियाँ …
जब /बदहवास रिश्ते
बहा नहीं पाते
अपनी आँखों और मन से
पीड़ा /स्मृतियाँ
और वो
जो ढह जाता है
ताश के महल की तरह
जब एक हूक उठती है
सीने में /और
भर देती है
अनंत आसमान का
सारा खालीपन
कभी सारा समन्दर
और उसका खारापन
जब जुगलबंदी…
ContinueAdded by dr lalit mohan pant on June 18, 2014 at 1:00am — 12 Comments
2122 1212 112
इश्क में जायेगी ये जान भी क्या
सब्र तोड़ेगा इम्तेहान भी क्या
.
ठोकरें हमको कर गयीं हैरां
आपने बदली है जबान भी क्या
.
गिर के नज़रों में कोई तुम ही कहो
जीत पायेगा ये जहाँन भी क्या
.
चाँद देखा था रात सहमा सा
'इस जमीं पर है आसमान भी क्या'
.
काट दे पर मेरे है ताब मुझे
रोक पायेगा तू उड़ान भी क्या
.
फिर मुझे प्यार पर यकीन हुआ
नर्म दिल में तेरा निशान भी क्या
.
एक जुम्बिश हुयी है दिल में…
Added by वेदिका on June 18, 2014 at 12:42am — 40 Comments
आदमी से आदमीयत, खो गई है रे कहां ।
आदमी से आदमी को, डर तभी तो है यहां ।।
आदमी में जो पड़ा है, स्वार्थ का साया जहां ।
आदमी अब आदमी से, बच नही पाये यहां ।।
आदमी आतंकवादी, उग्रवादी जो बने ।
आदमी के हाथ दोनो, खून से ही हैं सने ।।
मर्द जो है आदमी में, वो बलत्कारी लगे ।
गोद की बेटी उसे तो, ना दिखे अपने सगे ।।
आदमी को आदमी जो, है बनाना फिर कहीं ।
आदमी में तो जगाओ, आदमीयत फिर वही ।।
आदमी जो आदमी से, प्रेम करने फिर लगे…
Added by रमेश कुमार चौहान on June 17, 2014 at 11:00pm — 6 Comments
Added by atul kushwah on June 17, 2014 at 10:00pm — 16 Comments
2122/ 2122/ 212
ये नुमायाँ है किसे क्या चाहिये
बेख़िरद को सिर्फ़ चेहरा चाहिये बेख़िरद =कम अक्ल
हो गया है ताज़िरों का ये वतन ताज़िर=व्यापारी
खुश हुये वो जिनको वादा चाहिये
बच तो आयें लहरों से अहले जिगर
बस उन्हें कोई किनारा चाहिये
तख़्त पर जिसने बिठाया उनका कर्ज़
जानो दिल से अब चुकाना चाहिये
आप भी हँस लीजिये इस बात पर
झूठे को अब काम सच्चा…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 17, 2014 at 9:59pm — 23 Comments
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