धूप
जिधर देखो आज
धुन्धलाइ सी है धूप.
न जाने आज क्यों?
कुम्हलाई सी है धूप.
आसमाँ के बादलों से
भरमाई सी है धूप.
पखेरूओं की चहचाहट से
क्यों बौराई सी है धूप?
पेड़ों की छाँव तले
क्यों अलसाई सी है धूप?
चैत के माह में भी
बेहद तमतामाई सी है धूप.
हवाओं की कश्ती पर सवार
क्यों आज लरज़ाई सी है धूप?
"मौलिक व…
ContinueAdded by Veena Sethi on July 24, 2014 at 5:30pm — 8 Comments
11212 11212 11212 11212
न तो आँधियाँ ही डरा सकीं , न ही ज़लजलों का वो डर रहा
तेरे नाम का लिये आसरा , सभी मुश्किलों से गुजर रहा
न तो एक सा रहा वक़्त ही , न ही एक सी रही क़िस्मतें
कभी कहकहे मिले राह में , कभी दोश अश्कों से तर रहा
कोई अर्श पे जिये शान से , कहीं फर्श भी न नसीब हो
कहीं फूल फूल हैं पाँव में , कोई आग से है गुज़र रहा
तेरी ज़िन्दगी मेरी ज़िन्दगी , हुआ मौत से जहाँ सामना
हुआ हासिलों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 2:30pm — 22 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 24, 2014 at 10:55am — 14 Comments
सावन के झूलों ने मुझको बुलाया
डॉ० ह्रदेश चौधरी
मदमस्त चलती हवाएँ, और कार में एफएम पर मल्हार सुनकर पास बैठी मेरी सखी साथ में गाने लगती है “सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापिस आया”। गाते गाते उसका स्वर धीमा होता गया और फिर अचानक वो खामोश हो गयी, उसको खामोश देखकर मुझसे पूछे बिना नहीं रहा गया। वो पुरानी यादों में खोयी हुयी सी मुझसे कहती है कहाँ गुम हो गए सावन में पड़ने वाले झूले, एक…
ContinueAdded by DR. HIRDESH CHAUDHARY on July 23, 2014 at 7:30pm — 8 Comments
१२२ १२२ १२२ १२
जहाँ गलतियाँ हों बता दें मेरी
चुभें ये अगर साफ़ बातें मेरी
तुम्हें जिन्दगी दी तो हक़ भी मिला
तुम्हारे कदम पे निगाहें मेरी
हर इक मोड़ पर तुम मुझे पाओगे
नहीं हैं जुदा तुमसे राहें मेरी
तुम्हें नींद आती नहीं है अगर
कहाँ फिर कटेंगी ये रातें मेरी
छुपा क्या सकोगे जबीं की शिकन
हमेशा पढ़ेंगी ये आँखें मेरी
तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँ जब तलक
चलेंगी तभी तक…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 23, 2014 at 11:30am — 17 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 23, 2014 at 9:30am — 18 Comments
"ये क्या मम्मी , फिर आपने इस ठेले वाले से सब्ज़ी खरीद ली । कितनी बार कहा है की सामने वाले शॉपिंग माल से ले लिया करो । सब्ज़ियाँ ताज़ी भी मिलती हैं और अच्छी भी । क्या मिलता है आपको इसके पास"।
"बेटा , इसकी सब्ज़ी में अपनापन है और उसमे जो स्वाद मिलता है न वो और कहीं नहीं मिलता"।
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on July 23, 2014 at 3:00am — 12 Comments
वह लड़की!
मैं उसे बदलना चाहती थी
उसे पुराने खोह से निकालकर
पहनाना चाहती थी एक नया आवरण.
उसके बाल लम्बे होते थे
अरण्डी के तेल से चुपड़ी
भारी गंध से बोझिल
वह ढीली-ढाली सलवार पहनती थी
वह उस में नाड़ा लगाती थी
उसके नाखून होते थे मेँहदी से काले
एकाध बार सफ़ेद किनारा भी दिख जाता.
वह चलती थी सर झुकाये.
वह चुप रहती
मगर....उसके मन में सागर की लहरों
का सा होता घोर गर्जन.
आँखों में हरदम एक तूफ़ान लरजता
उसकी…
Added by coontee mukerji on July 22, 2014 at 9:12pm — 10 Comments
२१२२ १२२२ २
झोपड़ी को डुबाने निकले
सारे बादल दिवाने निकले
खेत घर हो गए बंजर से
बच्चे बाहर कमाने निकले
द्रोपदी सी प्रजा है बेबस
जब से राजा ये काने निकले
आदमी भूल आदम की पर
पाक खुद को बताने निकले
जब्त गम को किया तब हम भी
इस जहां को हँसाने निकले
माँ को खोया तो समझा मैंने
हाथ से जो खजाने निकले
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Added by gumnaam pithoragarhi on July 22, 2014 at 7:00pm — 10 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 22, 2014 at 1:16pm — 14 Comments
रीति संप्रदाय पर चर्चा करने से पूर्व यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि भारतीय हिन्दी साहित्य के रीति-काल में प्रयुक्त ‘रीति’ शब्द से इसका कोई प्रयोजन नहीं है I रीति-काल में लक्षण ग्रंथो के लिखने की एक बाढ़ सी आयी, जिसके महानायक केशव थे और इस स्पर्धा में कवियों के बीच आचार्य बनने की होड़ सी लग गयी I परिणाम यह हुआ कि अधिकांश कवि स्वयंसिद्ध आचार्य बने और कोई –कोई कवि न शुद्ध आचार्य रह पाए और न कवि I इस समय ‘रीति ‘ शब्द का प्रयोग काव्य शास्त्रीय लक्षणों के लिए हुआ I किन्तु, जिस रीति संप्रदाय की…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 22, 2014 at 11:30am — 17 Comments
सामाजिक सुरक्षा को तरसे
एकल परिवारों में जो पले,
आर्थिक सुरक्षा और -
स्नेह भाव मिले
संयुक्त परिवार की ही
छाया तले |
घर परिवार में
हर सदस्य का सीर
बुजुर्ग भी होते भागीदार,
बच्चो की परवरिश हो,
संस्कार या व्यवहार |
अभिभावक व माता पिता
जताकर समय का अभाव
नहीं बने
अपराध बोध के शिकार,
संयुक्त परिवार तभी
रहे और चले |
प्रतिस्पर्था से भरी
सुरसा सामान…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 22, 2014 at 10:30am — 10 Comments
मरा था मैं तड़प कर वो जमाना भी भुला देना
बसाया था तुझे दिल में फसाना भी भुला देना
जले खुद थे चरागो से बचाया था तुझे हमने
नहीं ये राह फूलो की बताना भी भुला देना
सहे है दर्द हम कितने पता हो तो जरा बोलो
छुपा कर दर्द मेरा मुस्कुराना भी भुला देना
निगााहो में बसाया था तुझे आखे बनाया था
चली जो छोड़ कर अाँसू बहाना भी भुला देना
उड़े आंचल तुम्हारे थे सभाला था हवाओं से
कहा था कुछ हवाओं ने बताना भी भुला…
Added by Akhand Gahmari on July 21, 2014 at 8:00pm — 23 Comments
2122 2122 2122
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घाट सौ-सौ हैं दिखाए तिश्नगी ने
कौन छोड़ा इस हवस के आदमी ने
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करके वादा रोशनी का हमसे यारो
रोज लूटा है हमें तो चाँदनी ने
**
राह बिकते मुल्क के सब रहनुमा अब
क्या किया ये खादियों की सादगी ने
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रात जैसे इक समंदर तम भरा हो
पार जिसको नित किया आवारगी ने
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झूठ को जीवन दिया है इसतरह कुछ
यार मेरे सत्य को अपना ठगी ने
**
पास आना था हमें यूँ भी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 21, 2014 at 7:46pm — 10 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 21, 2014 at 6:30pm — 25 Comments
यह बात 24 जून 1989 की है मेरे पिता जी जनपद देवरिया के पडरौना में तैनात थे। हम लोग वही से अपनी कार यू0पी0के0 4038 से पडरौना से अपनी मौसी की शादी में भाग लेने धरहरा मुँगेर जा रहे थे। हमारे साथ हमारी माता जी, दो भाई, मामा और वह मौसी जिनकी शादी थी और उनकी एक मित्र रूबी थी। हम लोग सुबह 6 बजे पडरौना से निकल कर 12 बजे गोपालगंज बिहार के पास पहुँचे थे उसी समय हम लोगो की कार खराब हो गयी हमारे मामा गोपालगंज बिहार से लाये मगर शा वह कार किसी तरह को गोपालगंज के अपने गैरेज में लाया मगर वह कार को पूरी तरह…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on July 20, 2014 at 4:17pm — 12 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
आजकल ये रुझान ज़्यादा है
ज्ञान थोड़ा बयान ज़्यादा है
है मिलावट, फ़रेब, लूट यहाँ
धर्म कम है दुकान ज्यादा है
चोट दिल पर लगी, चलो, लेकिन
देश अब सावधान ज़्यादा है
दूध पानी से मिल गया जब से
झाग थोड़ा उफ़ान ज़्यादा है
पाँव भर ही ज़मीं मिली मुझको
पर मेरा आसमान ज़्यादा है
ये नई राजनीति है ‘सज्जन’
काम थोड़ा बखान ज़्यादा है
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 20, 2014 at 3:35pm — 21 Comments
छपाक्… !
“अरे ये क्या किया.. जाने देते.. ”, एक यात्री डपटता हुआ चिल्लाया, “..फ़िर किसी और को बेच दोगे.. साले पूजा की चीजें भी नहीं छोडते हैं ये..”
“जब पूजा करना तो बोलना.. वर्ना सरकार ने अब गंगा को गंदा करने वालों को जेल भेजना शुरु कर दिया है..”, एक तिरछी मुस्कान के साथ मन्नू ने आँख…
Added by Shubhranshu Pandey on July 20, 2014 at 11:30am — 19 Comments
‘महिला उत्थान’ मुद्दे पर संगोष्ठी से घर लौटते ही कुमुद से उसके पति ने कहा... “अभी थोड़ी देर पहले ही दीपा आई थी मिठाई लेकर वो बहुत अच्छे नम्बरों से पास हुई है कंप्यूटर कोर्स तो उसका पूरा हो ही गया था,तुम्हारी प्रेरणा और मार्ग दर्शन से कितना कुछ कर लिया इस लड़की ने हमारे घर में काम करते-करते.... अब सोचता हूँ अपने ऑफिस में एक वेकेंसी निकली है इसको रखवा दूँ “
कुमुद कुछ सोच कर बोली”अजी इतनी भी क्या जल्दी, वैसे भी सोचो इतनी अच्छी काम वाली फिर कहाँ मिलेगी, फिर तो ये काम करेगी…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 20, 2014 at 11:00am — 28 Comments
1222 1222 122 ---
कभी महसूस कर मेरी कमी भी
तेरी आँखों में हो थोड़ी नमी भी
नदी की धार सी पीड़ा बही, पर
किनारों के दिलों में क्या जमी भी ?
खुशी तो है उजालों की, मगर क्यों
कहीं बाक़ी दिखी है बरहमी* भी ( खिन्नता )
उड़ाने आसमानी भी रखो पर
तुम्हे महसूस होती हो ज़मी भी
ये रिश्ता किस तरह का है बताओ ?
अदावत* भी हमी से, हमदमी भी ( दुश्मनी )
उफ़क पे देख लाली है खुशी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 20, 2014 at 10:39am — 22 Comments
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