दिल के मिले ना दाम बाजार में
खुद को किया नीलाम बाजार में
दो वक़्त की रोटी जुटाने में भी
जेबें हुई नाकाम बाजार में
औरत ने अपना चीर खुद छोड़ा है
देखें खड़े ये श्याम बाजार में
अब दाल रोटी मुश्किलों से मिले
कैसे खरीदें आम बाजार में
थे पेट भूखे जिनको भरने को ही
कमसिन गुजारे शाम बाजार में
२२१२ २२१२ २१२
मौलिक व अप्रकाशित
Added by gumnaam pithoragarhi on June 26, 2014 at 10:30am — 4 Comments
सच-झूठ,दिन-रात
बनाते रहते हैं लोग.
औरत और आदमी को
अलगाते रहते हैं लोग.
हर रोज जीवन को
उलझाते रहते है लोग.
कभी बनाते है भोग्या
तो कभी चढ़ाते हैं भोग.
नर-नारीपूरक हैं,
नही समझ पाते लोग.
दोनो का सम- भाव हो
कब आएगा यह संजोग?
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 25, 2014 at 9:00pm — 12 Comments
सावन का था महीना ......
वो आ के छम्म से बैठी मेरे करीब ऐसे
बरसी हो बादलों से सावन की बूंदें जैसे
सावन का था महीना
मदहोश थी ...हसीना
गालों पे .लग रही थी
हर बूँद ..इक नगीना
आँचल निचोड़ा उसने ..मेरे करीब ऐसे
बरसी हो बादलों से ख़्वाबों की बूंदें जैसे
पलकें झुकी हुई थीं
सांसें ..रुकी हुई थीं
लब थरथरा .रहे थे
पायल थकी हुई थी
इक इक कदम वो मेरे आई करीब ऐसे …
Added by Sushil Sarna on June 25, 2014 at 7:30pm — 14 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on June 25, 2014 at 4:49pm — 18 Comments
हे भगवन वर दीजिए, रहे सुखी संसार |
घर परिवार समाज पे, बरसे कृपा अपार ||
दीन दुखी कोई न हो, ना सूखे की मार |
अम्बर बरसे प्रेम से, भरे अन्न भण्डार ||
कृपा करो हे शारदे, बढ़े कलम की धार |
अक्षर चमके दूर से, शब्द मिले भरमार ||
बेटी सदन की लक्ष्मी, मिले उसे सम्मान |
रोती जिस घर में बहू, होती विपत निधान ||
मीना पाठक
मौलिक अप्रकाशित
(दोहों पर एक छोटा सा प्रयास है )
Added by Meena Pathak on June 25, 2014 at 12:00pm — 27 Comments
पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए
===============
एक कली जो खिलने को थी
कुछ सहमी सकुचाई भय में
पंखुड़ियाँ सब कुचल दिए
------------------------
कितनी सुन्दर धरा हमारी
चंदन सा रज महके
चह-चह चहकें चिड़ियाँ कितनी
बाघ-हिरन संग विचरें
हिम-हिमगिरि वन कानन सारे
शांत स्निग्ध सब सहते
महावीर थे बुद्ध यहीं पर
बड़े महात्मा, हँस सब शूली चढ़ते
स्वर्ग सा सुन्दर भारत भू को
पूजनीय सब बना गए
पर आज ..
एक…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 25, 2014 at 11:20am — 12 Comments
याद की छाई घटाये चाँद उनमे खो गया I
रोते-रोते थक गया तो नील नभ पर सो गया I
ह्रदय सागर की लहर पर ज्वार का छाया नशा
स्वप्न के टूटे किनारे चांदनी में धो गया I
पर्वतो के श्रृंग पर है शाश्वत हिम का मुकुट
मौन के सम्राट का भी ह्रदय प्रस्तर हो गया I
देखकर इस देह के पावन मरुस्थल का धुआं
एक सहृदय रेत में कुछ आंसुओ को बो गया I
कल्पना के कलश में करुणा अभी 'गोपाल'…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 24, 2014 at 9:00pm — 43 Comments
आज मन के भाव को,
प्रेम का शुभ संचार दो।
आज हृदय की पीर को,
आत्मा में विस्तार दो।।
मैं तुम्हारे गीत गाती
ही रहूँगी जन्म भर।
तुम्हारे प्रेम-दीवानी हो,
ये कहूँगी मृत्यु तक।।
मुझे विरह में लीन रखो,
तुम चाहे तो आजीवन।
दो न अपने दर्शन मुझे,
तुम चाहे तो आमरण।।
सुनो,मैं तुम्हारी प्रेयसी,
औ मैं ही तुम्हारी प्रेरणा।
चैन कब आएगा तुमको,
इस जन्म में मेरे बिना।।
'सावित्री राठौर'
[मौलिक एवं अप्रकाशित]
Added by Savitri Rathore on June 24, 2014 at 5:24pm — 9 Comments
दिल में सोंधी महक (एक हास्य रचना )
अरे! ये क्या हुआ
कल ही तो वर्कशाप मेंठीक करवाया था
टेस्ट ड्राईव भी करवाई थी
कार्य प्रणाली
बिलकुल ठीक पाई थी
माना टक्कर बहुत भारी थी
कई टुक्क्डे हो गए थे
मगर वर्कशाप में
कमलनयनी ब्रांड के नयनों के फैविकोल से
टूटे दिल के टुकड़े अच्छी तरह चिपकाए थे
उसकी मधुर मुस्कान ने ओके किया था
दिल फिर
अपनी ओरिजनल कंडीशन…
Added by Sushil Sarna on June 24, 2014 at 1:30pm — 16 Comments
Added by Ravi Prabhakar on June 24, 2014 at 1:00pm — 19 Comments
( गुरुजनों की समीक्षार्थ प्रस्तुत )
तृष्णा मृग की ज्यों उसे, सहरा में भटकाय |
तपती रेत में देता , जल का बिम्ब दिखाय ||
जल का बिम्ब दिखाय, बुझे पर प्यास न उसकी|
त्यों माया से होय , बुद्धि कुंठित मानव की ||
प्रज्ञा का पट खोल, नाम ले राधे - कृष्णा |
सुमिरन करते साथ, मिटेगी हरेक तृष्णा ||
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मौलिक व अप्रकाशित
Added by shalini rastogi on June 24, 2014 at 11:30am — 12 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on June 24, 2014 at 10:26am — 15 Comments
माँ ने आज उसके हाथ पर पूरी गोल रोटी और गुड का टुकड़ा रखा तो गोलू की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। पलटकर आसमान की ओर देखा। पूनम का गोल चाँद चमक रहा था। दोनों की नज़रें मिलीं और एक मीठी सी मुस्कान हवा में घुल गई।
.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by कल्पना रामानी on June 24, 2014 at 9:00am — 17 Comments
तुम्हारे और मेरे बीच है
कांच की एक मोटी दीवार
जो कभी कभी अदृश्य प्रतीत होती है
और पैदा करती है विभ्रम
तुम्हारे मेरे पास होने का
मैं कह जाता हूँ अपनी बात
तुम्हें सुनाने की उम्मीद में
तुम्हारे शब्दों का खुद से ही
कुछ अर्थ लगा लेता हूँ.
क्या तुम समझ पाती होगी
मैं जो कहता हूँ
क्या मैं सही अर्थ लगाता हूँ
जो तुम कहती हो ..
कांच की इस दीवार पर
डाल दिए हैं कुछ रंगीन छीटें
ताकि विभ्रम की स्थिति में
मुझे…
Added by Neeraj Neer on June 23, 2014 at 8:00pm — 16 Comments
(सभी गुरुजनों की समीक्षार्थ ... सादर -)
चिंता चित पर ज्यों चढ़े, पल-पल मन झुलसाय|
चिंता रथ पर जो चढ़े, चिता तलक पहुँचाय ||
चिता तलक पहुँचाय , रहे तन छिन-छिन घुलता |
छिने दिमागी चैन , नींद से वंचित फिरता ||
देत न कोय उपाय, सुख व सेहत की हंता |
करें चिंतन सदैव, करें न कभी भी चिंता ||
.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by shalini rastogi on June 23, 2014 at 6:30pm — 9 Comments
जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था
मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था
सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था
उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था
जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी…
Added by Madan Mohan saxena on June 23, 2014 at 1:07pm — 5 Comments
2122 2122 2122 212
******************************
पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
***
जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
***
रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है
***
सिर्फ दौलत को यहाँ पर रोज भगदड़ है मची
प्यार की खातिर मनों को छानता अब कौन है
***
सबको…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 23, 2014 at 11:30am — 31 Comments
1212 1122 1212 22
हुई न खत्म मेरी दास्ताने ग़म यारो
हरेक लफ़्ज़ अभी अश्क़ से है नम यारो
है ज़िन्दगी तो यहाँ मुश्किलात भी होंगी
चलो जियें इसे हर सांस दम ब दम यारो
इधर चराग का जलना उधर हवा की रौ
ये मेरा ज़ोरे जिगर और वो सितम यारो
लिबास ही से न होगा कभी नुमायाँ सच
सफ़ेदपोश तो लगते हैं मुह्तरम यारो
रहा न बस कोई तहरीर पर किसी का अब
चलाना भूल गईं उँगलियाँ क़लम यारो
मैं रफ़्ता-…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 23, 2014 at 10:13am — 21 Comments
ग़ज़ल -
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मौत का आना है तय उससे बचा कोई नहीं |
काम आ पायेगी अब शायद दुआ कोई नहीं |…
ContinueAdded by Abhinav Arun on June 23, 2014 at 7:30am — 22 Comments
ज़िन्दगी की ढिबरी
डूबती संध्याओं की उदास झुकी पलकों में
एक रिश्ते-विशेष के साँवलेपन की झलक
बरतन पर लगी नई कलाई की तरह
हर सुबह, हर शाम और रात पर चढ़ रही, मानो
गम्भीर उदास सियाह अन्तर्गुहाओं में व्याकुल
मूक अन्तरात्मा दुर्दांत मानव-प्रसंगों को तोल रही
रिश्ते के साँवलेपन में समाया वह दानवी दर्द
अतीत की आँखों से टपक-टपक कर अब
क्यूँ है मेरी रुँधी हुई आवाज़ में छलक…
ContinueAdded by vijay nikore on June 23, 2014 at 7:00am — 24 Comments
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