212221222122212
गर्भ में ही निज सुता की, काटकर तुम नाल माँ!
दुग्ध-भीगा शुभ्र आँचल, मत करो यूँ लाल माँ!
तुम दया, ममता की देवी, तुम दुआ संतान की,
जन्म दो जननी! न बनना, ढोंगियों की ढाल माँ!
मैं तो हूँ बुलबुल तुम्हारे, प्रेम के ही बाग की,
चाहती हूँ एक छोटी सी सुरक्षित डाल माँ!
पुत्र की चाहत में तुम अपमान निज करती हो क्यों?
धारिणी, जागो! समझ लो भेड़ियों की चाल माँ!
सिर उठाएँ जो असुर, उनको…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 16, 2014 at 10:00am — 28 Comments
कभी कभी खो जाता हूँ ,
भ्रम में इतना कि
एहसास ही नहीं रहता कि
तुम एक परछाई हो..
पाता हूँ तुम्हें खुद से करीब
हाथ बढ़ा कर छूना चाहता हूँ.
हाथ आती है महज शुन्यता .
स्वप्न भंग होता है ..
पर सत्य साबित होता है
क्षणभंगुर.
स्वप्न पुनः तारी होने लगता है.
पुनः आ खड़ी होती हो
नजरों के सामने ..
नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं प्रकाशित
Added by Neeraj Neer on April 16, 2014 at 8:07am — 13 Comments
आँखों देखी – 16 वॉल्थट में वह पहली रात !
“थुलीलैण्ड” में क्रिसमस की पूर्व संध्या का अनुभव यादगार बनकर रह गया हमारे मन में. अगले दो दिनों में हेलिकॉप्टर द्वारा कई फेरों में आवश्यक सामग्री जहाज़ से शिर्माकर स्थित भारतीय शिविर, जिसे नाम दिया गया था ‘मैत्री’, तक पहुँचा दिया गया. 27 दिसम्बर 1986 के दिन ‘मैत्री’ को पूरी तरह रहने योग्य बनाकर छठे अभियान के ग्रीष्मकालीन दल के हवाले कर दिया गया. विभिन्न वैज्ञानिक कार्यक्रमों को इसी शिर्माकर ओएसिस में अथवा मैत्री को…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on April 16, 2014 at 2:00am — 5 Comments
फागुन बीता देखिये ,खिली चैत की धूप
सर्दी की मस्ती गई, झुलस रहा है रूप
झुलस रहा है रूप ,सुहाती है वैशाखी
धरती तपती खूब ,करे क्या मनुवा पाखी
होते सब बीमार ,बढ़ी मच्छर की भुन भुन ।
आगे जेठ अषाढ़ , कहाँ अब भीगा फागुन ॥..
अप्रकाशित एवं मौलिक
Added by annapurna bajpai on April 15, 2014 at 9:20pm — 8 Comments
बेशर्मी को ओढ़कर कायर हुआ समाज
चीखे अबला द्रोपदी, कौन बचाए लाज
कौन बचाए लाज, खुले घूमे उन्मादी
अपराधी आजाद, मिली ऐसी…
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 15, 2014 at 5:30pm — 6 Comments
2122 2122 2122 212
क्या मुआफी मांग इंसा यूँ भला हो जायेगा
एक अच्छाई से दानव, देवता हो जायेगा ?
खूब घेरी चाँद को , बेशक हज़ारों बदलियाँ
क्या लगा ये ? चाँद भी अब साँवला हो जायेगा
जिस तरह से धूप अब अठखेलियाँ करने लगी
सच अगर तू देख लेगा , बावला हो जायेगा
थोड़ा डर भी है सताता इस जमे विश्वास को
पर कभी लगता, चमन फिर से हरा जो जायेगा
हौसलों को तुम अमल में भी कभी आने तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 15, 2014 at 5:00pm — 18 Comments
122 122 122 122
सियासी जमातो! ग़दर कर दिया है,
वतन को लहू की नज़र कर दिया है।
निशाँ भी नहीं है कहीं रोशनी का,
के हर सू अँधेरा अमर कर दिया है।
डरी और सहमी है औलादे आदम,
ज़हन पर कुछ ऐसा असर कर दिया है।
नई नस्ले नफरत को पाने की धुन में,
रगों में रवाना ज़हर कर दिया है।
यहाँ कल तलक थी हज़ारों की बस्ती,
बताओ के उसको किधर कर दिया है।
ये वादा था सिस्टम बदल देंगे सारा,
मगर और देखो लचर कर दिया है।
गबन…
Added by इमरान खान on April 15, 2014 at 1:30pm — 11 Comments
Added by Akhand Gahmari on April 15, 2014 at 12:30pm — 10 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २
जीने का या मरने का
ढंग अलग हो करने का
सबका मूल्य बढ़ा लेकिन
भाव गिर गया धरने का
आज बड़े खुश मंत्री जी
मौका मिला मुकरने का
सिर्फ़ वोट देने भर से
कुछ भी नहीं सुधरने का
कूदो, मर जाओ `सज्जन'
नाम तो बिगड़े झरने का
-
(मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 15, 2014 at 10:30am — 14 Comments
2122 2122 212
वक़्त की रफ़्तार तो पैहम रही
जिंदगी की लौ मगर मद्धम रही
बर्फ बनकर अब्र जो है गिर रहा
पीर की बहती नदी भी जम रही
ग़म भरे अशआर जिसमे थे लिखे
धूप में भी वो ग़ज़ल कुछ नम रही
टूट के बिखरे सभी वो आईने
रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही
वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया
सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही
कैसे कह दें वो जहाँ में खुश रहे
आँखे उनकी तो सदा…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 15, 2014 at 9:30am — 31 Comments
अपना फ़र्ज़ निभाने दे!
फिर से वही बहाने दे !!
तेरा भी हो जाऊँगा !
खुद का तो हो जाने दे !!
गैरों के घर खूब रहा!
अपने घर भी आनें दे !!
मूर्ख दोस्त से अच्छा है !
दुश्मन मगर सयाने दे!!
कागज़ की फिर नाव बनें !
बचपन वही पुराने दे !!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on April 14, 2014 at 11:30pm — No Comments
बह्र : 221/2121/1221/212
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किरदार मेरा अपनी सहेली से पूछना
औ लम्स* मेरा अपनी हथेली से पूछना *[स्पर्श]
मैं इक खुली किताब हूं तू खुल के बात कर
मुझसे न कोई बात पहेली से पूछना
पहले तो मुझसे कहना किसी और की हूं मैं
फिर हाल-ए-दिल हमारा सहेली से पूछना
बेदर्द वक्त कितना है हो जाएगा पता
खंडर हुई है कैसे हवेली से पूछना
खुशबू तुम्हारे जिस्म की है जानता 'शकील'
अच्छा नहीं सहन* की…
Added by शकील समर on April 14, 2014 at 11:30pm — 11 Comments
दिल में उम्मीदों का चलता कारवाँ रखिये
हर अँधेरे के लिए कोई शमाँ रखिये
बज़्म में आ ही गए कुछ तो निशाँ रखिये
कुछ अलग अपना भी अंदाज़े बयाँ रखिये
रोज़ का मेहमाँ कोई मेहमाँ नहीं होता
शह्र के बाहर सही अपना मकाँ रखिये
देवता, बुत और पत्थर बन के रहते हो
कुछ तो इंसानों के जैसी ख़ामियाँ रखिये
ख्वाब जब होंगे नहीं तासीर क्या होगी
ख्वाब को अब तो सवार-ए-कहकशाँ रखिये
तीरगी को है मिटाती एक…
ContinueAdded by भुवन निस्तेज on April 14, 2014 at 10:30pm — 14 Comments
1212212122
किसे सुनाएँ व्यथा वतन की।
है कौन बातें करे अमन की।
हुई हुकूमत हितों पे हावी,
हताश है, हर गुहार जन की।
फिसल रहे पग हरेक मग पर,
कुछ ऐसी काई जमी पतन की।
फरेब क़ाबिज़ हैं कुर्सियों पर,
कदम तले बातें सत वचन की।
निगल के खुशबू को नागफनियाँ,
कुचल रहीं आरज़ू चमन की।
ये किसके बुत क्यों बनाके रावण,
निभा रहे हैं प्रथा दहन की।
ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 14, 2014 at 9:45pm — 10 Comments
221 2121 1221 212
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जिंदगी मैं अभी भी कुछ इम्तेहान बाकी हैं
गुजरी हैं आंधियां अभी तूफ़ान बाकी हैं
मैं दूर तेरी महफ़िल से जाऊं भी तो कैसे
महफ़िल मैं तेरी मेरे भी कदरदान बाकी हैं
बे-ईमानों की दुनिया मैं घूमता हूँ शान से
जब तक मेरे सीने मैं मेरा ईमान बाकी है
लौटकर के मौत भी घर से मेरे खाली गई
मेरी माँ का कोई ऐसा वरदान बाकी है
सो रहा है मुल्क मेरा जो सुकूं…
ContinueAdded by Sachin Dev on April 14, 2014 at 4:00pm — 29 Comments
Added by Pragya Srivastava on April 14, 2014 at 1:27pm — 12 Comments
कटी-पतंग
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सतरंगी वो चूनर पहने
दूर बड़ी है
इतराती बलखाती इत-उत
घूम रही है उड़ती -फिरती
हवा का रुख देखे हो जाती
कितनों का मन हर के फिरती
'डोर' हमारे हाथ अभी है
मेरा इशारा ही काफी है
नाच रही है नचा रही है
सब को देखो छका रही है
प्रेम…
Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 14, 2014 at 10:00am — 12 Comments
पत्थर बना रहा सदा पत्थर बना रहा
ग़ज़लों में रोये ज़ार हम वो अनसुना रहा
दुनिया है हुक्मरान की क़ानून हैं बड़े
लाखों किये जतन मगर ये बचपना रहा
रातो में नीद भी नही दिन में नही सुकूं
सब कुछ रहा अजीब सा जब तुम बिना रहा
मंजिल से दूर रोकने क्या क्या नही हुआ
रस्ते भुलाने के लिए कुहरा घना रहा
सोचा बुला दूँ जो तुझे जाएगी मेरी जान
जीता रहा जरूर मै पर तडपना रहा
अनुराग सिंह “ऋषी”
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Anurag Singh "rishi" on April 13, 2014 at 1:00pm — 19 Comments
सभी रास्ताें पर सिपाही खटे हैं
ताे फिर लाेग क्याें रास्ते से हटे हैं ।
सियासत अाै मज़हब की दीवारें देखाे
दीवाराें से ही लाेग गुमसुम सटे हैं ।
सरहद है सराें के लिए अाखरी हद
अकारण यहाँ पर कई सर कटे हैं…
ContinueAdded by Krishnasingh Pela on April 13, 2014 at 12:00pm — 27 Comments
हिज्र में भी उसकी याद ……
आज वो रहगुज़र ..हमें बेगानी सी लगती है
उनके वादों पे यकीं इक नादानी सी लगती है
इक वाद-ऐ-फ़र्दा के साथ उनका यूँ ज़ुदा होना
फिर इंतज़ार उनका इक कहानी सी लगती है
जिनकी आमद से ख़ल्वत जलवत हो जाती थी
दीद-ओ-दिल में वही मूरत .पुरानी सी लगती है
दम भरती थी जो सदा जन्नत तक साथ देने का
तसव्वुर में उसकी तस्वीर .अंजानी सी लगती है
आज मेरे ख्वाब में वो इक शरर बनके चमकी है
हिज्र में भी…
Added by Sushil Sarna on April 12, 2014 at 4:34pm — 10 Comments
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