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लगती छबि मीत !

मनोरम छंद

(संक्षिप्त विधान : मनोरम छंद चार पक्तियों या पदों का वर्णिक छंद है. जिसके प्रत्येक पद में चार सगण और अंत में दो लघु वर्ण / अक्षर का विधान  हैं।)

लगती छबि मीत !

लगती छबि मीत मुझे मन भावन।

मन चंद चकोर समान लुभावन।।

मन प्रीत रिसे सुख पाय सुहावन।…

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Added by Satyanarayan Singh on April 24, 2014 at 10:30pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आँखों देखी - 17 ‘और नहीं बेटा, बहुत हो गया’

आँखों देखी - 17 ‘और नहीं बेटा, बहुत हो गया’

 

 

     मैं ग्रुबर कैम्प के उस अद्भुत अनुभव की यादों में खो गया था. हमारा हेलिकॉप्टर कब आईस शेल्फ़ के 100 कि.मी. चौड़े सन्नाटे को पार करने के बाद शिर्माकर ओएसिस को भी पीछे छोड़ चुका था, मुझे पता ही नहीं चला. अचानक जब धुँधली खिड़की से वॉल्थट पर्वतमाला की दूर तक विस्तृत श्रृंखला नज़र के सामने उभर आयी मैं वर्तमान में वापस आ गया. ग्रुबर आज हमारी बाँयी ओर पूर्व दिशा में था. हमारा लक्ष्य था पीटरमैन रेंज के उत्तरी सिरे…

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Added by sharadindu mukerji on April 24, 2014 at 8:28pm — 5 Comments

न फिर तुम पूंछना क्यूँ भाई की सूनी कलाई है

१२२२    १२२२    १२२२   १२२२ 

बड़ी उम्मीद से मालिक ने ये दुनिया बनायी है

दरिंदों ने मगर ये आग नफरत की लगाई है

 

कमर दुहरी हुई थी उसकी इक झोपड़ के ही खातिर

मगर हैवान ने वो भी नहीं छोडी जलाई है

 

नपुंसक हो गए हैं आज ताजो तख़्त दुनिया के

यही कहती है सबसे चीख बेबा की रुलाई है

 

कुलांचे भर रहा था जो लहू में है पड़ा भीगा

हिरन शावक पे किसने आज ये गोली चलायी है

 

अगर अब भी रही जारी यूं कन्या भ्रूण…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on April 24, 2014 at 3:42pm — 9 Comments

मत कहो तुम है खिलाफत - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    2122

**



दर्द  दिल  का  जो  बढ़ा  दे, बोलिए  मरहम  कहाँ है

रौशनी  के दौर में  अब तम  के  जैसा  तम  कहाँ है

**

कर  रहे  तुम  रोज  दावे   चीज  अद्भुत   है  बनाई

नफरतें  पर  जो  मिटा दे  लैब में  वो  बम  कहाँ है

**

जै जवानों, जै किसानों,  की सदा  में थी कशिश जो

अब  सियासत  की  कहन  में यार वैसा दम कहाँ है

**

मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना

चाहते  बस  जानना  हम  धार  का  उद्गम कहाँ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 24, 2014 at 1:00pm — 24 Comments

कविता : पूँजीवादी मशीनरी का पुर्ज़ा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ

मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने

मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था

इसलिए फ़ौरन सुनहरे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2014 at 11:30am — 16 Comments

एक नया नवगीत -जगदीश पंकज

एक नया नवगीत -जगदीश पंकज

नोंच कर पंख, फिर 

नभ में उछाला

जोर से जिसको

परिंदा तैर पायेगा

हवा में

किस तरह से अब

बिछाकर जाल

फैलाकर कहीं पर

लोभ के दाने

शिकारी हैं खड़े

हर ओर अपनी

दृष्टियाँ ताने

पकड़कर कैद

पिंजरे में किया

फिर भी कहा गाओ

क्रूर अहसास ही

छलता रहा है

हर सतह से अब

कांपते पैर जब

अपने, करें विश्वास

फिर किस पर

छलावों से घिरे

हैं हम ,छिपा है

आहटों में…

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Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on April 24, 2014 at 8:57am — 7 Comments

दूर करे अभाव (कामरूप छंद) - लक्ष्मण लडीवाला

दूर करे अभाव (काम रूप छंद 9-7-10 पर यति)

निर्भय रहे सब, वोट देकर,  करे सही चुनाव |

सही चुनाव से,  देश में हो, दूर करे अभाव ||

अच्छे को चुने, करे न लोभ, हो तभी कुछ काम 

ऐसा क्यों चुने, चुनकर वही, वसूले सब दाम ||

 …

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 23, 2014 at 7:53pm — 13 Comments

******(लोक-गीत)*******

एक प्रयास मित्रों !!! 

******(लोक-गीत)*******



गीतु लिखे वियोग मअ..अगन के |

जलत रातु -दिनु..बिनु सजन के ||



आए अबके न सावनु झूम के |

बौराए अबके न डारि अम्बुआ के |

भीज गयी असुअन.. हिचकारी रे |

जलत रातु -दिनु ..बिनु सजन के |

गीतु लिखे वियोग मअ.. अगन के ||



आगु लगे ..संगिनी -साथिन के |

बैठे राहें तन्हा..अँधेरिया अटारी पे…

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Added by Alka Gupta on April 23, 2014 at 6:30pm — 10 Comments


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गज़ल -- ' व्यक्तिगत सत्यों की सबको बाध्यता है '( गिरिराज भंडारी )

2122     2122     2122  

लंग सा जो भंग पैरों पर खड़ा है

हाँ, सहारा दो तो वो भी दौड़ता है

 

व्यक्तिगत सत्यों की सबको बाध्यता है  

कौन कैसा क्यों है, ये किसको पता है

 

दानवों सा इस जगह जो लग रहा है

सच कहूँ ! कुछ के लिये वो देवता है

 

सत्य सा निश्चल नही अब कोई आदम

मौका आने पर स्वयम को मोड़ता है

 

आप अपनी राह में चलते ही रहिये

बोलने वाला तो यूँ भी बोलता है

 

उनकी क़समों का भरोसा…

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Added by गिरिराज भंडारी on April 23, 2014 at 5:34pm — 36 Comments

चुनावी चौसर ! (चौपई छंद)

छिड़ी हुई शब्दों की जंग | दिखा रहे नेता जी रंग ||

वैचारिकता नंगधडंग | सुनकर हैरत जन-जन दंग ||

जाति धर्म के पुते सियार | इनपर कहना है बेकार ||

बात-बात पर दिल पर वार | जन मानस पर अत्याचार ||

 

पांच वर्ष में एक चुनाव | छोड़े मन पर कई प्रभाव ||

महँगाई भी देती घाव | डुबो रही है सबकी नाव ||

नारी दोहन अत्याचार | मिला नहीं अबतक उपचार ||

सरकारें करती उपकार | निर्धन फिरभी हैं बीमार ||

 

तीर तराजू औ तलवार | किसे कहें अब जिम्मेदार…

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Added by Ashok Kumar Raktale on April 23, 2014 at 2:00pm — 27 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कुंडलिया छंद : अरुण कुमार निगम

(1)

मत अपना कर्तव्य है , मत अपना अधिकार

एक - एक मत से बनें , मनचाही सरकार

मनचाही सरकार , चुनें प्रत्याशी मन का

मन जिसका निष्पाप, चहेता हो जन-जन का

क्षणिक लाभ का लोभ, मिटा देता हर सपना

हो कर हम निर्भीक , हमेशा दें मत अपना ||

(2)

झूठे निर्लज लालची , भ्रष्ट और मक्कार

क्या दे सकते हैं कभी, एक भली सरकार

एक भली सरकार, चाहिए - उत्तम चुनिए

हो कितना भी शोर,बात मन की ही सुनिए

मन के निर्णय अरुण , हमेशा रहें अनूठे …

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Added by अरुण कुमार निगम on April 23, 2014 at 9:00am — 15 Comments

पंछी उदास हैं/नवगीत/कल्पना रामानी

गाँवों के पंछी उदास हैं

देख-देख सन्नाटा भारी।

 

जब से नई हवा ने अपना,

रुख मोड़ा शहरों की ओर।

बंद किवाड़ों से टकराकर,

वापस जाती है हर भोर।

 

नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,

अब उनको मुंडेर, अटारी।

 

हर आँगन के हरे पेड़ पर,

पतझड़ बैठा डेरा डाल।

भीत हो रहा तुलसी चौरा,

देख सन्निकट अपना काल।

 

बदल रहा है अब तो हर घर,

वृद्धाश्रम में बारी-बारी।

 

बतियाते दिन मूक खड़े…

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Added by कल्पना रामानी on April 23, 2014 at 9:00am — 27 Comments

हम फिर से गुलाम हो जायेंगे

हमारे जीवन मूल्य

सरेआम नीलाम हो जायेंगें

हम फिर से गुलाम हो जायेंगें ..

स्वतंत्रता का काल स्वर्णिम

तेजी से है बीत रहा

हासिल हुआ जो मुश्किल से

तेजी से है रीत रहा.

धरी रह जाएगी नैतिकता,

आदर्श सभी बेकाम हो जाएँगे .

हम फिर से गुलाम हो जायेंगे ..

कहों ना ! जो सत्य है.

सत्य कहने से घबराते हो

सत्य अकाट्य है , अक्षत

छूपता नहीं छद्मावरण से

जो प्राचीन है , धुंधला,

गर्व उसी पर करके बार बार दुहराते हो.

टूटे…

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Added by Neeraj Neer on April 23, 2014 at 8:30am — 10 Comments

याद तेरी आविनाशी!

याद तेरी आविनाशी!  

 आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी

 याद तेरी अविनाशी!

 मिलन तुम्हारा बारहमासी  

 कभी लगा ना उबासी

 यादें तव मन मंदिर जग गयी  

 अलखन जगे जिमि काशी

 आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी

 याद तेरी अविनाशी!

 संग तुम्हारा था मधुमासी

 मन ना छायी उदासी

 चाँद सितारों में जा बस गयी

 मधुर हँसी की उजासी 

 आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी

 याद तेरी अविनाशी!

 मेरी दुनिया प्रेम पियासी

 रसमयी…

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Added by Satyanarayan Singh on April 22, 2014 at 11:07pm — 14 Comments

गजल : तंग हो हाथ पर दिल बड़ा कीजिए//शकील जमशेदपुरी

बह्र : 212/212/212/212

———————————————

तंग हो हाथ पर दिल बड़ा कीजिए

चाहे जितने भी गम हों हंसा कीजिए



ति​तलियां लौट जाती हैं हो कर उदास

सुब्ह में फूल बन कर खिला कीजिए



है जलन उनको मैं चाहता हूं तुम्हें

मत सहेली की बातें सुना कीजिए



प्यार हो जाएगा है ये दावा मेरा

आप गजलें हमारी पढ़ा कीजिए



चांद से आपकी क्यों बहस हो गई

ऐसे वैसों के मुंह मत लगा कीजिए



यूं मकां है मगर घर ये हो जाएगा

बनके मेहमान कुछ दिन रहा…

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Added by शकील समर on April 22, 2014 at 3:00pm — 18 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
जन का जन पर जनता-राज (चौपई छंद) // -सौरभ

चौपई छंद - प्रति चरण 15 मात्रायें चरणान्त गुरु-लघु

====================================

किसी राष्ट्र के पहलू चार । जनता-सीमा-तंत्र-विचार ॥

जन की आशा जन-आवाज । जन का जन पर जनता-राज ॥



प्रजातंत्र वो मानक मंत्र । शोषित आम जनों का तंत्र ॥

किन्तु सजग है…

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Added by Saurabh Pandey on April 22, 2014 at 2:00pm — 17 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
खेलते शतरंज (कामरूप छंद) // --सौरभ

(कामरूप छंद  9-7-10 की यति)

======================

सेवक कभी थे  अब ठगें ये     नाम ’नेता’ तंज !

भोली प्रजा की   भावना से     खेलते शतरंज !!

हर चाल इनकी  स्वार्थ प्रेरित     ताकि पायें राज ।

पासा चलें हर  सोच कर ये        हाथ आये ताज ॥…



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Added by Saurabh Pandey on April 22, 2014 at 1:30pm — 14 Comments

अगर हो जिंदगी देनी - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर'

1222    1222    1222    1222

**  **

हॅसी  में  राज पाया  है, कि कैसे  उन  को मुस्काना

उदासी  से  तेरी   सीखे, कसम  से  फूल  मुरझाना

**

भले ही  खूब  महफिल  में, हया का  रंग  दिखला तू

गुजारिश तुझ से पर दिल की, अकेले में न शरमाना

**

करो नफरत से  नफरत तुम, इसी से  दूरियाँ बढ़ती

मुहब्बत  पास  लाती है, भला  क्या  इससे घबराना

**

हमें   है   बंदिशों   जैसे,  कसम  से  रतजगे  उसके

इसी से हो  गया मुश्किल, सपन में  यार अब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2014 at 10:30am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
डगमगा जाते यहाँ ईमान कितने (ग़ज़ल 'राज')

२१२२  २१२२  २१२२

साधुओं के भेष में शैतान कितने

लूटते विश्वास के मैदान कितने   

 

फितरतें इनकी विषैली अजगरों सी   

डस चुके हैं जीस्त में इंसान कितने  

 

इस सियासी दौर में गुलज़ार हैं सब

रास्ते जो  थे कभी वीरान कितने

 

हाथ में इतनी मिठाई देख कर वो  

 भुखमरी से जूझते हैरान कितने

 

छीनना ही था हमेशा काम जिनका 

आज देते जा रहे हैं दान कितने

 

हड्डियाँ फेंकी उन्होंने सामने…

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Added by rajesh kumari on April 22, 2014 at 10:00am — 18 Comments

भारत हमारा, कामरूप छंद

भारत हमारा

(कामरूप छंद)

भारत हमारा, देश न्यारा, सृष्टि का उपहार।

तहजीब अपनी, गंग जमुनी, नाज जिसपर यार।।

सीख दे ममता, और समता, कर्म गीता सार ।

जनतंत्र आगर, विश्व नागर,…

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Added by Satyanarayan Singh on April 21, 2014 at 10:30pm — 15 Comments

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