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मेरे पन्ने (प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा)

मेरे पन्ने 

-----------
जीवन पृष्ठ मेरे
हाथों में तेरे
खुली किताब की तरह
कुछ
चिपके पन्ने
कह रहे
दास्तान पढ़ने को
है अभी बाक़ी
लौट आया हूँ फिर
चाहता हूँ
रुकूँ अभी
हवा के तेज झोंके
जीवन पृष्ठों को
तेजी से बदलते हुए
चिपका हूँ
दीवार के साथ
बूझेगा अब कौन
न है मधुशाला
न उसमे साकी
मौलिक और अप्रकाशित
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
१५ मार्च २०१४

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 15, 2014 at 8:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल- रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया

रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया

रौशनी के वास्ते खुद को जलाता रह गया



पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए

गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया



कोठियाँ बेशक मेरे बच्चों ने कर दी हैं खड़ी

पर तुम्हारी याद का उसमें अहाता रह गया



आज मुझको काम से इक रोज की फुर्सत मिली

आज दिनभर लाडला बस मुस्कुराता रह गया



धन की देवी आपके घर क्यों कभी रुकती नहीं

चौक पर बैठा नजूमी ये बताता रह गया



आँख का हर प्रश्न आंसू की सतह में बह… Continue

Added by Anurag Anubhav on March 14, 2014 at 10:59pm — 25 Comments

अच्छा लगता है

छोटी खुशियाँ
गम पहाड़ से
फिर भी जीना
अच्छा लगता है
गम से लड़कर खुशियाँ पाना
अच्छा लगता है
दर्द बहुत है जीवन में
पर हाथ कोई मरहम का फेरे
अच्छा लगता है
खाकर तीखा और चटपटा
मीठा कुछ मिल जाए तो
अच्छा लगता है

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on March 14, 2014 at 10:56pm — 2 Comments

ग़ज़ल

ज्यों जवां ये चांदनी होने लगी

त्यों सुबह की सुगबुगी होने लगी

 

जब समंदर सी नदी होने लगी

साहिलों सी ज़िन्दगी होने लगी

 

आदमी में हो न हो रूहानियत

आदमीयत लाज़मी होने लगी

 

तितलियों को मिल गयी जब से भनक

बाग़ में कुछ सनसनी होने लगी

 

यार ने आदी बनाया इस क़दर

हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी

 

आँधियों से रूह कांपी रेत की

पर्वतों में दिल्लगी होने लगी

 

फिर मुसाफ़िर रासता मंजिल…

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Added by भुवन निस्तेज on March 14, 2014 at 9:30pm — 8 Comments

ख़यालों के रंग

इन ख़यालों के रंगों को ख्वाबों के इतर देखता कौन है

जब मिल रही है मुफ्त में खुराक तो फेरता कौन है

तितली के रंग हों या हो किसी दीवार पर चिलमन

बिना फायदे के इनसे अपनी आँखों को सेंकता कौन है



जब चढ़ रहा था रंग फूलों की फुलवारी पर

इठला रही थी माँ अपने बच्चे की किलकारी पर

ठीक उसी समय बरसनें लगती हैं सावन की बूदें

वरना पानी का इतना सरल सुंदर रूप देखता कौन है



ये नदियाँ जब गाती हैं कल-कल की धुन

पत्तों की सरसराहट से बढ़ जाती है कई गुन

प्रकृति ही…

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Added by राणा रुद्र प्रताप सिंह on March 14, 2014 at 8:10pm — No Comments

तेरे बगैर

मेरी खुशी के संग खुल के खिलखिला जाना तेरा

ज़िंदगी मेरी नक्काशी तेरी और नज़राना तेरा

हो गई जो गलतियाँ या की कभी बदमाशियाँ

धीरे से चपत संग प्यार से समझाना तेरा

अब तू ही बता कैसे जियूं तेरे बगैर तेरे बगैर



चाँदनी के रंग सी याद है फितरत तेरी

देखते ही मुस्कुराना शायद थी आदत तेरी

शख्शियत सीने में रख कर याद फरमाता हूँ तुझे

प्लेट टूटी मुझसे थी पर भरना हरजाना तेरा

अब तू ही बता कैसे जियूं तेरे बगैर तेरे बगैर



हाजिरी तेरी सलामत अब भी है दराज़ में…

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Added by राणा रुद्र प्रताप सिंह on March 14, 2014 at 8:06pm — 6 Comments

चुनावी [कुण्डलिया]

वादे नेता कर रहे , चुनावी है पुलाव
बीते पाँचों साल के कौन भरेगा घाव
कौन भरेगा घाव समझना चालें इनकी
रोटी कपड़ा वास नहीं है बस में जिनकी
सरिता कहती भाँप नहीं हैं नेक इरादे
निर्वाचन कर सोच झूठ हैं इनके वादे

...........मौलिक व अप्रकाशित...........

Added by Sarita Bhatia on March 14, 2014 at 3:29pm — 4 Comments

दोहे (भाग २)

    १११  १११२  ११ १११, १११२  ११११ ११

9-) मान बड़ाई सब चहे, कितनी इसकी हद।

     दूजे को देते नहीं, पोषत खुद का मद॥ 

10-) मात-पिता व गुरु से, हर दम बोलत झूठ।  

       आपा भीतर झांक लो, हरि जाएगा रूठ॥

11-) ज्ञान क्षुदा उर में लिए, ढूंढत फिरत सुसंग।

       उर की आंखे खोल लो, जग में भरो कुसंग॥

12-) धन दौलत कुछ न बचे, तब तक मन में चैन।

       चरित्रिक बल सबल है, ना हो तुम बेचैन॥ 

13-) जनम-मरण के…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 14, 2014 at 2:30pm — 3 Comments

दोहे (शून्य आकांक्षी)

दोहे 
घुला कुदरती रंग  में, मौसम  का  उल्लास । 

धूप  गुलाबी  टहलती,  हरी - हरी  है  घास ॥1॥ 



हवा  बिखेरे  हर  तरफ, देखो  प्रेम - गुलाल । 

प्रकृति गा रही फाग है, करतीं दिशा धमाल ॥2॥ 



होली   समरसता   तथा,  सद्भावों   का  पर्व । 

सामूहिकता  को  निरख, परम्परा  पर  गर्व ॥3॥ 



नहीं  बुरा  पीछे  भ्रमण, गर कोई नहिं रुष्ट । 

जाएँ  उसी  अतीत  में,  वर्तमान   हो  पुष्ट ॥4॥ 



वैर  और  ईर्ष्या  जले,  पले  हृदय…
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Added by C.M.Upadhyay "Shoonya Akankshi" on March 13, 2014 at 11:30pm — 15 Comments

दो परिंदे (लघुकथा)

दो परिंदे थे | दोनों में बड़ा प्रेम था | दोनों साथ ही रहा करते थे | जहां भी जाते एक साथ | जो भी खाते मिल बाँट कर खाते | दोनों ने एक ही वृक्ष की एक ही डाली पर एक ही प्रकार के तिनकों से एक साथ घरौंदा बनाया | एक दिन एक परिंदा बीमार पड़ गया | दूसरे ने भी खाना पीना छोड़ दिया किन्तु ऐसा कब तक चल सकता था ? स्वस्य्घ परिंदे ने सोचा मेरा भाई कमजोर हो गया है | कुछ दाने अपने चोंच में भरकर लेता आऊँ, हो सकता है मेरा भाई ठीक हो जाय? वह दाना इकठ्ठा करने चला गया | थोड़ी देर में एक और परिंदा उस पेड़ पर आया | उसने…

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Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 13, 2014 at 11:02pm — 6 Comments

महिला दिवस पर [कुण्डलिया]

सारी दुनिया कर रही अब तेरी पहचान
तू दुर्गा तू शक्ति है तेरा कर्म महान /
तेरा कर्म महान नहीं बनना तू अबला
खुद की कर पहचान हुई तू सक्षम सबला
पहचानो अधिकार करो शिक्षित हर नारी
होना कभी न मौन झुकेगी दुनिया सारी //

.........मौलिक व अप्रकाशित...........

Added by Sarita Bhatia on March 13, 2014 at 10:13am — 13 Comments

"मौन" लघु कथा

(मौन) शब्द से सभी परिचित है .... कौन नहीं जनता इस शब्द की विशालता को.....

आज 22 अप्रेल है पूरा एक साल हो गया दोनों को गए हुए, सुधा मन ही मन बुदबुदा रही थी।जरा चाय लाना बालकनी से पति ने आवाज लगाई। चाय तो बनी और पी भी रहे थे दोनों लेकिन सुधा क्षुब्ध, अकेली, बेचैन सी लग रही थी।आज का उजला-उजला नरम सबेरा भी अपना जादू न चला पा रहा था, महेश ने सुधा को हिलाते हुए कहा कहाँ हो? यहीं मीठी ...... क्या हो गया है तुमको ?

सुधा नम आँखों से महेश की ओर देख कर बोली गर ना पढ़ाते…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 12, 2014 at 11:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल : जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

बह्र  : २१२ २१२ २१२ २१२

 

ये ख़ुराफ़ात करने से क्या फ़ायदा

जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

 

हाय से बाय तक चंद पल ही लगें

यूँ मुलाकात करने से क्या फ़ायदा

 

हार कर जीत ले जो सभी का हृदय

उसकी शहमात करने से क्या फ़ायदा

 

आँसुओं का लिखा कौन समझा यहाँ?

आँख दावात करने से क्या फ़ायदा

 

ये जमीं सह सके जो बस उतना बरस

और बरसात करने से क्या फ़ायदा

 

कुछ नया कह सको गर तो ‘सज्जन’ सुने

फिर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2014 at 9:24pm — 20 Comments

बहुत शोर है यहाँ......

बहुत शोर है यहाँ

बहुत ज़्यादा

मैं कैसे वो आवाज़ सुन सकूँ

जो मेरे लिए है

 

कितनी ही देर कानों पर हाथ लगा

सब अनसुना करती रही

लेकिन

शोर इतना है कि मेरी हथेलियों को

भेद कर मेरे कानों पर बरस पड़ता है

मष्तिष्क की हर नब्ज़ थर्राने लगी है

नसों में आक्रोश भर गया है

 

अजीब शोर है यहाँ

जलन, ईर्षा, द्वेष, अपमान का,

भेदभाव का शोर

धधकता, जलाता शोर

इस तरहा बढ़ता जाता है कि

इच्छाशक्ति…

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Added by Priyanka singh on March 12, 2014 at 3:30pm — 18 Comments

ग़ज़ल -जब चने की झाड़ पर हम भी चढ़े थे

२१२१       २१२२       २१२२   

हम भी अखबारों में जब इक दिन छपे थे

दोसतों की शक्ल पर बारह बजे थे

 

अब सुनो मंजिल तुम्हें हम क्या बताएं

इक तुम्हारे वास्ते क्या-क्या सहे थे…

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Added by sanju shabdita on March 12, 2014 at 12:30pm — 6 Comments

कह मुकरियाँ -- अन्नपूर्णा बाजपेई

(1)

गोरा गोरा निर्मल तन है 

उसके बिन सब सूनापन है 

न पाये तो जाएँ बच्चे रूठ

क्या सखि साजन ? ना सखी  दूध !! 

(2)

हर दम उसको शीश सजाऊँ 

पाकर उसको खिल खिल जाऊँ 

अधूरी उस बिन रहूँ न दूर 

क्या सखि साजन ? न सखि सिंदूर !!

(3)

कोमल कोमल तन है प्यारा

मन भावे लागे अति न्यारा

छुप जाये  जो डालूँ अचरा 

क्या सखि साजन ? न सखि गजरा !!

(4)

रूप सलोना…

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Added by annapurna bajpai on March 12, 2014 at 12:00pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
उन्मत्त परिंदा

तोड़ नीड़ की परिधि

सारी वर्जनाएं

भुला  नीति रीति

लांघ कर सीमाएं

छोड़ संयम की कतार

दे परवाज़ को विस्तार

वशीकरण में बंधा

लिए एक अनूठी चाह

कर बैठा गुनाह

लिया परीरू चांदनी का चुम्बन

जला बैठा अपने पर

उसकी शीतल पावक चिंगारी से

गिरा औंधें मुहँ

नीचे नागफनी ने डसा

खो दिया परित्राण

ना धरा का रहा

ना गगन का

बन बैठा त्रिशंकु

वो उन्मत्त परिंदा

**************

 (मौलिक एवं…

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Added by rajesh kumari on March 12, 2014 at 10:00am — 24 Comments

युवा भारत

युवा भारत
------------

उमंग से भरे चेहरे
पल होंगे तभी सुनहरे
मिले दिशा जब उस ओर
होती है जिधर से भोर
खिलती कली खिलती धूप
बहती नदी खिलता रूप
उन्मुक्त हो गगन उड़ान
नारी स्वयं की पहचान
सफल होय जीवन अपना
शेष रहे न कोई सपना
गीत मिल वो गुनगुनाएं
आओ सब स्वर्ग बनायें
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
मौलिक /अप्रकाशित

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 11, 2014 at 9:56pm — 12 Comments

कुछ दोहे

प्रथम प्रयास ............

1-) देह लता प्रभु दीन्ह है, काहे करत गुमान,

पर सेवा उपकार कर ,तब हीं पावे मान ।

2- ) सुत, दारा अरु बन्धु सब, स्वारथ को संसार,

भज लो साईं राम को, खुद का जनम संभार

3- ) मन मैला तन साफ है, क्यों फैलाये जाल ,

हरी को भावत साफ मन, लिखलो अपने भाल ।

4-) मंदिर, पूजा ,यज्ञ,तप, ऊपर का व्यापार ,

मन मंदिर नित झाढ़ लो, पाओगे प्रभु द्वार

5-) चौरासी…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 11, 2014 at 4:30pm — 12 Comments

हर बार - (रवि प्रकाश)

उस पार किनारा होगा,हर बार यही लगता है;

कुछ दूर नज़ारा होगा,हर बार यही लगता है।

मंज़िल पे जा निकलेंगे,ये ऊँचे-नीचे रस्ते;

फिर दौर हमारा होगा,हर बार यही लगता है॥

.

तपती राहों पे चल कर,

सूरज से आँख मिलाना;

रातों की बेचैनी को,शबनम के घूँट पिलाना।

बेकार न होंगे आँसू,नाकाम न होंगी आहें;

हर दर्द सहारा होगा,हर बार यही लगता है।

कुछ दूर नज़ारा होगा,हर बार यही लगता है॥

.

अक्सर कच्ची नींदों में,टूटे हैं बहुत से सपने;

उलझे हैं कहीं पे नाते,छूटे… Continue

Added by Ravi Prakash on March 11, 2014 at 2:33pm — 10 Comments

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