मेरे पन्ने
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जीवन पृष्ठ मेरे
हाथों में तेरे
खुली किताब की तरह
कुछ
चिपके पन्ने
कह रहे
दास्तान पढ़ने को
है अभी बाक़ी
लौट आया हूँ फिर
चाहता हूँ
रुकूँ अभी
हवा के तेज झोंके
जीवन पृष्ठों को
तेजी से बदलते हुए
चिपका हूँ
दीवार के साथ
बूझेगा अब कौन
न है मधुशाला
न उसमे साकी
मौलिक और अप्रकाशित
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
१५ मार्च २०१४
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 15, 2014 at 8:00pm — 6 Comments
Added by Anurag Anubhav on March 14, 2014 at 10:59pm — 25 Comments
Added by Pragya Srivastava on March 14, 2014 at 10:56pm — 2 Comments
ज्यों जवां ये चांदनी होने लगी
त्यों सुबह की सुगबुगी होने लगी
जब समंदर सी नदी होने लगी
साहिलों सी ज़िन्दगी होने लगी
आदमी में हो न हो रूहानियत
आदमीयत लाज़मी होने लगी
तितलियों को मिल गयी जब से भनक
बाग़ में कुछ सनसनी होने लगी
यार ने आदी बनाया इस क़दर
हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी
आँधियों से रूह कांपी रेत की
पर्वतों में दिल्लगी होने लगी
फिर मुसाफ़िर रासता मंजिल…
Added by भुवन निस्तेज on March 14, 2014 at 9:30pm — 8 Comments
इन ख़यालों के रंगों को ख्वाबों के इतर देखता कौन है
जब मिल रही है मुफ्त में खुराक तो फेरता कौन है
तितली के रंग हों या हो किसी दीवार पर चिलमन
बिना फायदे के इनसे अपनी आँखों को सेंकता कौन है
जब चढ़ रहा था रंग फूलों की फुलवारी पर
इठला रही थी माँ अपने बच्चे की किलकारी पर
ठीक उसी समय बरसनें लगती हैं सावन की बूदें
वरना पानी का इतना सरल सुंदर रूप देखता कौन है
ये नदियाँ जब गाती हैं कल-कल की धुन
पत्तों की सरसराहट से बढ़ जाती है कई गुन
प्रकृति ही…
Added by राणा रुद्र प्रताप सिंह on March 14, 2014 at 8:10pm — No Comments
मेरी खुशी के संग खुल के खिलखिला जाना तेरा
ज़िंदगी मेरी नक्काशी तेरी और नज़राना तेरा
हो गई जो गलतियाँ या की कभी बदमाशियाँ
धीरे से चपत संग प्यार से समझाना तेरा
अब तू ही बता कैसे जियूं तेरे बगैर तेरे बगैर
चाँदनी के रंग सी याद है फितरत तेरी
देखते ही मुस्कुराना शायद थी आदत तेरी
शख्शियत सीने में रख कर याद फरमाता हूँ तुझे
प्लेट टूटी मुझसे थी पर भरना हरजाना तेरा
अब तू ही बता कैसे जियूं तेरे बगैर तेरे बगैर
हाजिरी तेरी सलामत अब भी है दराज़ में…
Added by राणा रुद्र प्रताप सिंह on March 14, 2014 at 8:06pm — 6 Comments
वादे नेता कर रहे , चुनावी है पुलाव
बीते पाँचों साल के कौन भरेगा घाव
कौन भरेगा घाव समझना चालें इनकी
रोटी कपड़ा वास नहीं है बस में जिनकी
सरिता कहती भाँप नहीं हैं नेक इरादे
निर्वाचन कर सोच झूठ हैं इनके वादे
...........मौलिक व अप्रकाशित...........
Added by Sarita Bhatia on March 14, 2014 at 3:29pm — 4 Comments
१११ १११२ ११ १११, १११२ ११११ ११
9-) मान बड़ाई सब चहे, कितनी इसकी हद।
दूजे को देते नहीं, पोषत खुद का मद॥
10-) मात-पिता व गुरु से, हर दम बोलत झूठ।
आपा भीतर झांक लो, हरि जाएगा रूठ॥
11-) ज्ञान क्षुदा उर में लिए, ढूंढत फिरत सुसंग।
उर की आंखे खोल लो, जग में भरो कुसंग॥
12-) धन दौलत कुछ न बचे, तब तक मन में चैन।
चरित्रिक बल सबल है, ना हो तुम बेचैन॥
13-) जनम-मरण के…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 14, 2014 at 2:30pm — 3 Comments
Added by C.M.Upadhyay "Shoonya Akankshi" on March 13, 2014 at 11:30pm — 15 Comments
दो परिंदे थे | दोनों में बड़ा प्रेम था | दोनों साथ ही रहा करते थे | जहां भी जाते एक साथ | जो भी खाते मिल बाँट कर खाते | दोनों ने एक ही वृक्ष की एक ही डाली पर एक ही प्रकार के तिनकों से एक साथ घरौंदा बनाया | एक दिन एक परिंदा बीमार पड़ गया | दूसरे ने भी खाना पीना छोड़ दिया किन्तु ऐसा कब तक चल सकता था ? स्वस्य्घ परिंदे ने सोचा मेरा भाई कमजोर हो गया है | कुछ दाने अपने चोंच में भरकर लेता आऊँ, हो सकता है मेरा भाई ठीक हो जाय? वह दाना इकठ्ठा करने चला गया | थोड़ी देर में एक और परिंदा उस पेड़ पर आया | उसने…
ContinueAdded by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 13, 2014 at 11:02pm — 6 Comments
सारी दुनिया कर रही अब तेरी पहचान
तू दुर्गा तू शक्ति है तेरा कर्म महान /
तेरा कर्म महान नहीं बनना तू अबला
खुद की कर पहचान हुई तू सक्षम सबला
पहचानो अधिकार करो शिक्षित हर नारी
होना कभी न मौन झुकेगी दुनिया सारी //
.........मौलिक व अप्रकाशित...........
Added by Sarita Bhatia on March 13, 2014 at 10:13am — 13 Comments
(मौन) शब्द से सभी परिचित है .... कौन नहीं जनता इस शब्द की विशालता को.....
आज 22 अप्रेल है पूरा एक साल हो गया दोनों को गए हुए, सुधा मन ही मन बुदबुदा रही थी।जरा चाय लाना बालकनी से पति ने आवाज लगाई। चाय तो बनी और पी भी रहे थे दोनों लेकिन सुधा क्षुब्ध, अकेली, बेचैन सी लग रही थी।आज का उजला-उजला नरम सबेरा भी अपना जादू न चला पा रहा था, महेश ने सुधा को हिलाते हुए कहा कहाँ हो? यहीं मीठी ...... क्या हो गया है तुमको ?
सुधा नम आँखों से महेश की ओर देख कर बोली गर ना पढ़ाते…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 12, 2014 at 11:00pm — 9 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
ये ख़ुराफ़ात करने से क्या फ़ायदा
जाति की बात करने से क्या फ़ायदा
हाय से बाय तक चंद पल ही लगें
यूँ मुलाकात करने से क्या फ़ायदा
हार कर जीत ले जो सभी का हृदय
उसकी शहमात करने से क्या फ़ायदा
आँसुओं का लिखा कौन समझा यहाँ?
आँख दावात करने से क्या फ़ायदा
ये जमीं सह सके जो बस उतना बरस
और बरसात करने से क्या फ़ायदा
कुछ नया कह सको गर तो ‘सज्जन’ सुने
फिर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2014 at 9:24pm — 20 Comments
बहुत शोर है यहाँ
बहुत ज़्यादा
मैं कैसे वो आवाज़ सुन सकूँ
जो मेरे लिए है
कितनी ही देर कानों पर हाथ लगा
सब अनसुना करती रही
लेकिन
शोर इतना है कि मेरी हथेलियों को
भेद कर मेरे कानों पर बरस पड़ता है
मष्तिष्क की हर नब्ज़ थर्राने लगी है
नसों में आक्रोश भर गया है
अजीब शोर है यहाँ
जलन, ईर्षा, द्वेष, अपमान का,
भेदभाव का शोर
धधकता, जलाता शोर
इस तरहा बढ़ता जाता है कि
इच्छाशक्ति…
ContinueAdded by Priyanka singh on March 12, 2014 at 3:30pm — 18 Comments
२१२१ २१२२ २१२२
हम भी अखबारों में जब इक दिन छपे थे
दोसतों की शक्ल पर बारह बजे थे
अब सुनो मंजिल तुम्हें हम क्या बताएं
इक तुम्हारे वास्ते क्या-क्या सहे थे…
ContinueAdded by sanju shabdita on March 12, 2014 at 12:30pm — 6 Comments
(1)
गोरा गोरा निर्मल तन है
उसके बिन सब सूनापन है
न पाये तो जाएँ बच्चे रूठ
क्या सखि साजन ? ना सखी दूध !!
(2)
हर दम उसको शीश सजाऊँ
पाकर उसको खिल खिल जाऊँ
अधूरी उस बिन रहूँ न दूर
क्या सखि साजन ? न सखि सिंदूर !!
(3)
कोमल कोमल तन है प्यारा
मन भावे लागे अति न्यारा
छुप जाये जो डालूँ अचरा
क्या सखि साजन ? न सखि गजरा !!
(4)
रूप सलोना…
ContinueAdded by annapurna bajpai on March 12, 2014 at 12:00pm — 6 Comments
तोड़ नीड़ की परिधि
सारी वर्जनाएं
भुला नीति रीति
लांघ कर सीमाएं
छोड़ संयम की कतार
दे परवाज़ को विस्तार
वशीकरण में बंधा
लिए एक अनूठी चाह
कर बैठा गुनाह
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा
**************
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 12, 2014 at 10:00am — 24 Comments
युवा भारत
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उमंग से भरे चेहरे
पल होंगे तभी सुनहरे
मिले दिशा जब उस ओर
होती है जिधर से भोर
खिलती कली खिलती धूप
बहती नदी खिलता रूप
उन्मुक्त हो गगन उड़ान
नारी स्वयं की पहचान
सफल होय जीवन अपना
शेष रहे न कोई सपना
गीत मिल वो गुनगुनाएं
आओ सब स्वर्ग बनायें
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
मौलिक /अप्रकाशित
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 11, 2014 at 9:56pm — 12 Comments
प्रथम प्रयास ............
1-) देह लता प्रभु दीन्ह है, काहे करत गुमान,
पर सेवा उपकार कर ,तब हीं पावे मान ।
2- ) सुत, दारा अरु बन्धु सब, स्वारथ को संसार,
भज लो साईं राम को, खुद का जनम संभार ।
3- ) मन मैला तन साफ है, क्यों फैलाये जाल ,
हरी को भावत साफ मन, लिखलो अपने भाल ।
4-) मंदिर, पूजा ,यज्ञ,तप, ऊपर का व्यापार ,
मन मंदिर नित झाढ़ लो, पाओगे प्रभु द्वार ।
5-) चौरासी…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 11, 2014 at 4:30pm — 12 Comments
Added by Ravi Prakash on March 11, 2014 at 2:33pm — 10 Comments
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