गजल-गुप अॅधेंरा, चॉंदनी भी दरबदर
बह्र....2122 2122 212
नींद जब आती नहीं गुल सेज पर,
सो रहे रिक्शे पे घोड़ा बेच कर।
स्वर्ण है या वोट किसको क्या पता,
शोर संसद में वतन की लूट पर।
चापलूसी नीति निशदिन छल रही,
गर्म है बाजार माया धर्म धर।
शोख कमसिन सी कली नित सुर्ख है,
तल्ख हैं अखबार पढ़ कर मित्रवर।
क्या किया है आपने इस देश में,
लुट रही है अस्मिता हर राह पर।
ताख पर जलता दिया जब…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 27, 2014 at 1:57pm — 9 Comments
2122 1122 22
ज़ोर तूफ़ान का चल जाने दो
मुझको लहरों पे निकल जाने दो
है मुख़ालिफ़ कि हवाओं का रूख
ठहरो कुछ देर सँभल जाने दो
फिर न दिल में कोई रह जाये मलाल
इक दफा दिल को मचल जाने दो
मोजज़ा हो न हो उम्मीदें हों मोजज़ा =चमत्कार
जी किसी तरह बहल जाने दो
आग आखिर ये बुझेगी तो ज़रूर
डर इसी आग में जल जाने दो
बूंद जायेगी कहाँ तक देखूँ
गिर के…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 27, 2014 at 10:00am — 21 Comments
Added by Ashish Srivastava on April 26, 2014 at 10:00pm — 9 Comments
दीवार
आसमां में कोई सरहद नहीं
फिर धरती को क्यों बाँटा है
ये तो हम और तुम हैं ,जिन्होंने
दिलों को भी दीवार से पाटा है
कहीं नफ़्रत की तो कहीं अहं की
आओ इस दीवार को गिरा कर देखें
कि दिल कितना बड़ा होता है..
****************
महेश्वरी कनेरी
मौलिक /अप्रकाशित
Added by Maheshwari Kaneri on April 26, 2014 at 4:45pm — 8 Comments
जमघट था हर ओर वहां
हर ओर अजब सा शोर था
छल्ले धुऐं के थे कहीं
और कहीं वाद विवाद का जोर था
एक अजनबी से बने
एक मूक दर्शक की तरह
हम कुर्सी की तलाश में
भीड़ से हट कर
एक कोनें में खडे
बार बार अपना
चश्मा साफ़ कर
इधर उधर
बार बार झाँक कर
पलकों के भीतर
आँखों की पुतलियों को
डिस्को करवा रहे थे
तभी एक कुर्सी खाली हुई
ओर हमने तुरत फुरत में
एक लाटरी की तरह
उसे झपट लिया
और एक गहरी सांस के साथ बैठ गये…
Added by Sushil Sarna on April 26, 2014 at 4:00pm — 14 Comments
सिर चढ़ आया
फिर से दिन का
भीतर धमक मलालों में..
ऐसे हैं
संदर्भ परस्पर..
थोथी चीख.. उबालों में !
जहाँ साँझ के
गहराते ही…
Added by Saurabh Pandey on April 25, 2014 at 5:00pm — 28 Comments
मनोरम छंद
(संक्षिप्त विधान : मनोरम छंद चार पक्तियों या पदों का वर्णिक छंद है. जिसके प्रत्येक पद में चार सगण और अंत में दो लघु वर्ण / अक्षर का विधान हैं।)
लगती छबि मीत !
लगती छबि मीत मुझे मन भावन।
मन चंद चकोर समान लुभावन।।
मन प्रीत रिसे सुख पाय सुहावन।…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on April 24, 2014 at 10:30pm — 12 Comments
आँखों देखी - 17 ‘और नहीं बेटा, बहुत हो गया’
मैं ग्रुबर कैम्प के उस अद्भुत अनुभव की यादों में खो गया था. हमारा हेलिकॉप्टर कब आईस शेल्फ़ के 100 कि.मी. चौड़े सन्नाटे को पार करने के बाद शिर्माकर ओएसिस को भी पीछे छोड़ चुका था, मुझे पता ही नहीं चला. अचानक जब धुँधली खिड़की से वॉल्थट पर्वतमाला की दूर तक विस्तृत श्रृंखला नज़र के सामने उभर आयी मैं वर्तमान में वापस आ गया. ग्रुबर आज हमारी बाँयी ओर पूर्व दिशा में था. हमारा लक्ष्य था पीटरमैन रेंज के उत्तरी सिरे…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on April 24, 2014 at 8:28pm — 5 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
बड़ी उम्मीद से मालिक ने ये दुनिया बनायी है
दरिंदों ने मगर ये आग नफरत की लगाई है
कमर दुहरी हुई थी उसकी इक झोपड़ के ही खातिर
मगर हैवान ने वो भी नहीं छोडी जलाई है
नपुंसक हो गए हैं आज ताजो तख़्त दुनिया के
यही कहती है सबसे चीख बेबा की रुलाई है
कुलांचे भर रहा था जो लहू में है पड़ा भीगा
हिरन शावक पे किसने आज ये गोली चलायी है
अगर अब भी रही जारी यूं कन्या भ्रूण…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on April 24, 2014 at 3:42pm — 9 Comments
2122 2122 2122 2122
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दर्द दिल का जो बढ़ा दे, बोलिए मरहम कहाँ है
रौशनी के दौर में अब तम के जैसा तम कहाँ है
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कर रहे तुम रोज दावे चीज अद्भुत है बनाई
नफरतें पर जो मिटा दे लैब में वो बम कहाँ है
**
जै जवानों, जै किसानों, की सदा में थी कशिश जो
अब सियासत की कहन में यार वैसा दम कहाँ है
**
मत कहो तुम है खिलाफत धार के विपरीत चलना
चाहते बस जानना हम धार का उद्गम कहाँ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 24, 2014 at 1:00pm — 24 Comments
मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ
मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने
मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था
इसलिए फ़ौरन सुनहरे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2014 at 11:30am — 16 Comments
एक नया नवगीत -जगदीश पंकज
नोंच कर पंख, फिर
नभ में उछाला
जोर से जिसको
परिंदा तैर पायेगा
हवा में
किस तरह से अब
बिछाकर जाल
फैलाकर कहीं पर
लोभ के दाने
शिकारी हैं खड़े
हर ओर अपनी
दृष्टियाँ ताने
पकड़कर कैद
पिंजरे में किया
फिर भी कहा गाओ
क्रूर अहसास ही
छलता रहा है
हर सतह से अब
कांपते पैर जब
अपने, करें विश्वास
फिर किस पर
छलावों से घिरे
हैं हम ,छिपा है
आहटों में…
Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on April 24, 2014 at 8:57am — 7 Comments
दूर करे अभाव (काम रूप छंद 9-7-10 पर यति)
निर्भय रहे सब, वोट देकर, करे सही चुनाव |
सही चुनाव से, देश में हो, दूर करे अभाव ||
अच्छे को चुने, करे न लोभ, हो तभी कुछ काम
ऐसा क्यों चुने, चुनकर वही, वसूले सब दाम ||
…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 23, 2014 at 7:53pm — 13 Comments
एक प्रयास मित्रों !!!
******(लोक-गीत)*******
गीतु लिखे वियोग मअ..अगन के |
जलत रातु -दिनु..बिनु सजन के ||
आए अबके न सावनु झूम के |
बौराए अबके न डारि अम्बुआ के |
भीज गयी असुअन.. हिचकारी रे |
जलत रातु -दिनु ..बिनु सजन के |
गीतु लिखे वियोग मअ.. अगन के ||
आगु लगे ..संगिनी -साथिन के |
बैठे राहें तन्हा..अँधेरिया अटारी पे…
Added by Alka Gupta on April 23, 2014 at 6:30pm — 10 Comments
2122 2122 2122
लंग सा जो भंग पैरों पर खड़ा है
हाँ, सहारा दो तो वो भी दौड़ता है
व्यक्तिगत सत्यों की सबको बाध्यता है
कौन कैसा क्यों है, ये किसको पता है
दानवों सा इस जगह जो लग रहा है
सच कहूँ ! कुछ के लिये वो देवता है
सत्य सा निश्चल नही अब कोई आदम
मौका आने पर स्वयम को मोड़ता है
आप अपनी राह में चलते ही रहिये
बोलने वाला तो यूँ भी बोलता है
उनकी क़समों का भरोसा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 23, 2014 at 5:34pm — 36 Comments
छिड़ी हुई शब्दों की जंग | दिखा रहे नेता जी रंग ||
वैचारिकता नंगधडंग | सुनकर हैरत जन-जन दंग ||
जाति धर्म के पुते सियार | इनपर कहना है बेकार ||
बात-बात पर दिल पर वार | जन मानस पर अत्याचार ||
पांच वर्ष में एक चुनाव | छोड़े मन पर कई प्रभाव ||
महँगाई भी देती घाव | डुबो रही है सबकी नाव ||
नारी दोहन अत्याचार | मिला नहीं अबतक उपचार ||
सरकारें करती उपकार | निर्धन फिरभी हैं बीमार ||
तीर तराजू औ तलवार | किसे कहें अब जिम्मेदार…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on April 23, 2014 at 2:00pm — 27 Comments
(1)
मत अपना कर्तव्य है , मत अपना अधिकार
एक - एक मत से बनें , मनचाही सरकार
मनचाही सरकार , चुनें प्रत्याशी मन का
मन जिसका निष्पाप, चहेता हो जन-जन का
क्षणिक लाभ का लोभ, मिटा देता हर सपना
हो कर हम निर्भीक , हमेशा दें मत अपना ||
(2)
झूठे निर्लज लालची , भ्रष्ट और मक्कार
क्या दे सकते हैं कभी, एक भली सरकार
एक भली सरकार, चाहिए - उत्तम चुनिए
हो कितना भी शोर,बात मन की ही सुनिए
मन के निर्णय अरुण , हमेशा रहें अनूठे …
Added by अरुण कुमार निगम on April 23, 2014 at 9:00am — 15 Comments
गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।
नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,
अब उनको मुंडेर, अटारी।
हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
बतियाते दिन मूक खड़े…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 23, 2014 at 9:00am — 27 Comments
हमारे जीवन मूल्य
सरेआम नीलाम हो जायेंगें
हम फिर से गुलाम हो जायेंगें ..
स्वतंत्रता का काल स्वर्णिम
तेजी से है बीत रहा
हासिल हुआ जो मुश्किल से
तेजी से है रीत रहा.
धरी रह जाएगी नैतिकता,
आदर्श सभी बेकाम हो जाएँगे .
हम फिर से गुलाम हो जायेंगे ..
कहों ना ! जो सत्य है.
सत्य कहने से घबराते हो
सत्य अकाट्य है , अक्षत
छूपता नहीं छद्मावरण से
जो प्राचीन है , धुंधला,
गर्व उसी पर करके बार बार दुहराते हो.
टूटे…
Added by Neeraj Neer on April 23, 2014 at 8:30am — 10 Comments
याद तेरी आविनाशी!
आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी
याद तेरी अविनाशी!
मिलन तुम्हारा बारहमासी
कभी लगा ना उबासी
यादें तव मन मंदिर जग गयी
अलखन जगे जिमि काशी
आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी
याद तेरी अविनाशी!
संग तुम्हारा था मधुमासी
मन ना छायी उदासी
चाँद सितारों में जा बस गयी
मधुर हँसी की उजासी
आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी
याद तेरी अविनाशी!
मेरी दुनिया प्रेम पियासी
रसमयी…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on April 22, 2014 at 11:07pm — 14 Comments
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