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देह-भाव : पाँच भाव-शब्द // --सौरभ

१.
चिलचिलाती धूप सिखाती है
प्रेम करना..
तबतक वन
महुआ-पलाशों में बस
उलझा रहता है.

२.
तुम्हारी उंगलियों ने दबा कर मेरी हथेलियों को
जो कुछ कहा था उस दफ़े..
मेरा आकाश
बस वही बरतता है,
आजतक.

३.
अधरों का ज्वालामुखी जब-जब सक्रिय होता है
सोखने लग जाता है खौलती झील..
लावा उगलने के लिए !

४.
अनुभवहीनता
उत्कट निवेदन की सान्द्रता को अक्सर
विरल कर देती है.

५.
उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !
काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम !

**********
-सौरभ
**********
(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 10, 2023 at 2:02pm

आपका सादर आभार, आदरणीय सुरेंद्र ’भ्रमर’ जी.

एक अरसे बाद धन्यवाद ज्ञापन रचना को सतह पर पुनः ळे आने की प्रक्रिया की तरह भी स्वीकार करें. 
सादर

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 18, 2014 at 12:08pm

उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !
काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम !

आदरणीय सौरभ जी बहुत सुन्दर क्षणिकाएँ एक से बढ़ एक जीवन के बिभिन्न पहलू उजागर हुए और संवेदनाएं भी
भ्रमर ५


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 13, 2014 at 8:02pm

आपकी संवेदनापूरित प्रतिक्रिया मेरे प्रयास का संबल रही हैं, आदरणीय सत्यनारायणजी.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 13, 2014 at 8:01pm

आप जैसे युवा रचनाकारों से अनुमोदन पाना सदा से उत्साहित करता है.
हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 13, 2014 at 7:58pm

भाई अरुणजी, गत दिनों की चहल-पहल भरी सड़कों पर, जबकि आज वे निश्चल पगडंडियाँ भर भी नहीं रह गयी हैं, कभी-कभार अनायास चलना अच्छा लगता है. आपकी संवेदना भाव-दशाओं को संबल देती है.
हार्दिक धन्यवाद

Comment by Satyanarayan Singh on May 9, 2014 at 4:44pm

सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति इन क्षणिकाओं के माध्यम से साका रहुई  है आदरणीय बधाई स्वीकार करें 

चिलचिलाती धूप सिखाती है
प्रेम करना.., अधरों का ज्वालामुखी, अनुभवहीनता, स्पर्शों के बोल..... सब ही अति सुन्दर भाव मन को भा गए 

सादर नमन 

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on May 6, 2014 at 6:52pm

आदरणीया सौरभ जी

पहला, तीसरा और चौथा..गहन संकेंद्रण की ज़रूरत..भाव जैसे बीच भंवर में और दिमाग़ उसके चारो तरफ चक्कर लगाता हुआ.. कुछ समझता है कुछ नही समझता..एक पहेली जैसा..

दूसरा और पाँचवा..सहज ..जैसे धूप से परेशान मुसाफिर छाँव में आ चुका है..अच्छा लगता है..प्रसन्न चित्त..विजय का एहसास.

आपको पढ़ना गौरव की बात है..
इस सार्थक और ग़ूढ रचना के लिए.. तहे दिल से बधाई

Comment by Arun Sri on May 6, 2014 at 12:25pm

पिछले कुछ दिनों में कई बार पढ़ चुका हूँ ! लेकिन कुछ कह न सका ! कारण ये नहीं कि कुछ कह नही सकता या कुछ कहना नहीं चाहता बल्कि ये कि कविताओं का गहन परोक्ष मन को वहाँ पहुंचा दे रहा है हर बार जहाँ मैं हमेशा चुप ही रहा ! अब कुछ कहना पांडित्य-प्रदर्शन के अतिरिक्त और क्या होता आदरणीय ???

समझ में नहीं आता कि साधुवाद दूँ या कोसूं कि आप हर उस जगह पर ले गए जहाँ जाने से बचना होता है मन को !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 6, 2014 at 11:54am

जिस गहनता से आपने प्रस्तुति के सभी भाव-शब्दों को परखा है, आदरणीया, वह आपके पाठकीय दायित्व को ही बताता है.
प्रस्तुति को अनुमोदित करने के लिए हार्दिक आभार.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 6, 2014 at 11:52am

आपको प्रस्तुति के भाव पसंद आये यह मेरे प्रयास को मिला आपका अनुमोदन है, आदरणीय अखिलेशभाईजी.
सादर

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