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किताब : चार क्षणिकाएँ // --सौरभ

1.
शेल्फ़ किताबों के लिए हो सकती है
किताबें शेल्फ़ के लिए नहीं होतीं
शेल्फ़ में किताबों को रख छोड़ना
किताबों की सत्ता का अपमान है.
 
2.
कुछ पृष्ठों के कोने वो मोड़ देता है
न भी पलटे जायें बार-बार
उन पृष्ठों को खास होने का अहसास बना रहता है..
"शुक्रिया दोस्त !.."
 
3.
चाहती है किताब / पृष्ठ प्रति पृष्ठ
शब्द-शब्द जीमती दृष्टि
पलटती उंगलियों की छुअन
बूझते चले जाने की आत्मीय स्वीकृति.
हर किताब चाहती है
पढ़ा जाना
अंतर्निहित तरंगों का महसूसा जाना..
रोम-रोम.. शब्द-शब्द.. बूझा जाना.
 
4.
किताबों के अक्षर-शब्द..
किताबों में पड़ी पँखुड़ियाँ..
परस्पर निर्लिप्त !
नियमित संज्ञा / और
विशिष्ट परम्पराओं के बावज़ूद
किताबें चुपचुप कितना कुछ जीती हैं !

***************
--सौरभ
***************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 16, 2014 at 9:11pm

आदरणीया कल्पनाजी, आपकी गहन और भावुक दृष्टि तथा रचनाओं के प्रति आपकी आत्मीयता किसी रचना की थाती होती है. आपने इन क्षणिकाओं को सम्मान दे कर मेरे रचना प्रयास को अनुमोदित किया है जो मुझे और उत्साह से रचना लेखन हेतु प्रेरित करेगा.
आपका सादर आभार..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 16, 2014 at 9:11pm

आदरणीय सुरेन्द्र भ्रमरजी, आपका हार्दिक आभार कि आपने इस प्रस्तुति को अपना बहुमूल्य समय दिया.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 16, 2014 at 9:11pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, आपका संवेदनशील मन आपके अंतर्पाठक को रचनाओं की गहनता से जोड़ देता है. पस्तुति को मान देने के लिए आपका सादर आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 16, 2014 at 9:10pm

आदरणीय सुशील सरना जी, आपके विस्तृत विवेचन से मन भर आया है. आपने बन्द प्रति बन्द जिस तरह से मेरी भावनाओं को अनुमोदित किया है वह मेरे लिए पुरस्कार सदृश है.
सादर आभार आदरणीय

Comment by कल्पना रामानी on June 16, 2014 at 8:28pm

गजब की भावनाएँ पिरोई हैं आपने इन क्षणिकाओं में आदरणीय सौरभ जी! जिस कोमलता से शब्दों को सहेजा है, किताबों को गर्व हो रहा होगा अपने ऊपर, वाह! बहुत कम रचनाएँ इतना प्रभावित करती हैं,  चारों क्षणिकाएँ  बेमिसाल हैं संग्रहणीय आपको ढेरों बधाइयाँ

चाहती है किताब / पृष्ठ प्रति पृष्ठ
शब्द-शब्द जीमती दृष्टि
पलटती उंगलियों की छुअन
बूझते चले जाने की आत्मीय स्वीकृति.
हर किताब चाहती है
पढ़ा जाना
अंतर्निहित तरंगों का महसूसा जाना..
रोम-रोम.. शब्द-शब्द.. बूझा जाना....................  कितना कोमल एहसास !!!

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 13, 2014 at 9:54pm

किताबों के अक्षर-शब्द.. 
किताबों में पड़ी पँखुड़ियाँ.. 
परस्पर निर्लिप्त ! 
नियमित संज्ञा / और 
विशिष्ट परम्पराओं के बावज़ूद 

किताबें चुपचुप कितना कुछ जीती हैं !

आदरणीय सौरभ जी कई बार पढ़ने के बाद आप की गूढ़ रचनाएं मन में घर करती हैं विचारणीय बातें यादों के दरवाजे खोल देती
हैं सच में किताबें चुपचुप कितना कुछ जीती हैं !
किताबों में पड़ी पँखुड़ियाँ..
भ्रमर ५

 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 10, 2014 at 7:34pm

शेल्फ़ में किताबों को रख छोड़ना 
किताबों की सत्ता का अपमान है.----कितनी सहजता से महत्वपूर्ण सन्देश देती पंक्तिया रची है | वाह ! आदरणीय 

चाहती है किताब / पृष्ठ प्रति पृष्ठ 
शब्द-शब्द जीमती दृष्टि 
पलटती उंगलियों की छुअन 
बूझते चले जाने की आत्मीय स्वीकृति.
हर किताब चाहती है 
पढ़ा जाना 
अंतर्निहित तरंगों का महसूसा जाना.. 
रोम-रोम.. शब्द-शब्द.. बूझा जाना.------ अद्भुत अंदाज और शैली के लिए नमन ! वाह ! वाह !

Comment by Sushil Sarna on June 10, 2014 at 2:37pm

1.
शेल्फ़ किताबों के लिए हो सकती है
किताबें शेल्फ़ के लिए नहीं होतीं
शेल्फ़ में किताबों को रख छोड़ना
किताबों की सत्ता का अपमान है.

एक गहन भाव लिए कुछ सोचने को मजबूर करती सुंदर क्षणिका … हार्दिक बधाई

2.
कुछ पृष्ठों के कोने वो मोड़ देता है
न भी पलटे जायें बार-बार
उन पृष्ठों को खास होने का अहसास बना रहता है..
"शुक्रिया दोस्त !.."

उफ्फ .... एक गहरा अहसास .... अतीत के पन्नों पर मुड़ी एक अमित याद .... वाआआह बहुत खूब

3.
चाहती है किताब / पृष्ठ प्रति पृष्ठ
शब्द-शब्द जीमती दृष्टि
पलटती उंगलियों की छुअन
बूझते चले जाने की आत्मीय स्वीकृति.
हर किताब चाहती है
पढ़ा जाना
अंतर्निहित तरंगों का महसूसा जाना..
रोम-रोम.. शब्द-शब्द.. बूझा जाना.

अंतर्मन के अहसासों को चित्रित करती बेहद खूबसूरत क्षणिका .... वाआआआअह

4.
किताबों के अक्षर-शब्द..
किताबों में पड़ी पँखुड़ियाँ..
परस्पर निर्लिप्त !
नियमित संज्ञा / और
विशिष्ट परम्पराओं के बावज़ूद
किताबें चुपचुप कितना कुछ जीती हैं !

बिलकुल सत्य .... मन्त्र मुग्ध करती पंक्तियाँ कहीं दूर ले जाती हैं .... सलाम सलाम सलाम आपको और आपकी लेखनी को आदरणीय सौरभ जी

Comment by Arun Sri on June 10, 2014 at 12:28pm

खलील जिब्रान को मैंने तब पढ़ना शुरू किया था जब मैं इंटर में पढता था ! तब से आज तक वो मेरे सबसे पसंदीदा हैं ! पहली किताब थी //बिंधा पंख - ख़लील ज़िब्रान- सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन;// जितनी बार मैंने इस किताब को पढ़ा है उतना किसी भी किताब को नहीं पढ़ा !  उनके साहित्य के हिंदी अनुवाद जितने भी उपलब्ध हो सके , मैंने पढ़ा !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 10, 2014 at 12:12pm

//मैं पन्ने मोड़कर कुछ पंक्तियों को रेखांकित भी कर देता था ! //

हा हा हा हा...  :-))))

//कविता पढकर लगा कि किताबें भी यही चाहती हैं कि ये समाज सभ्य हो जाए ! //

हाँ, यह पारस्परिक सम्बन्ध ही हुआ करता है, भाई !  .. परस्पर साधक और साधन का सम्बन्ध, ताकि साध्य सुलभ और ’विदेह’  हो. ...

:-)))

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