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ग़ज़ल: वो चिड़ियों जैसे पर लाया

बस्ते में रोटी भर लाया

बच्चा भी ये क्या घर लाया 


होठों पे खुशियाँ धर लाया
वो बोले किसकी हर लाया

सोने चांदी सब नें मांगे
वो चिड़ियों जैसे पर लाया

इक तूफानी झोंका आया
जाने किसका छप्पर लाया

दुत्कारा लोगों नें उसको
जो धरती पे अम्बर लाया

काम के इंसा मैंने मांगे
वो बस्ती से शायर लाया

भुवन निस्तेज
(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by भुवन निस्तेज on March 26, 2014 at 2:30pm — 9 Comments

गीत कोकिला गाती रहना/नवगीत/कल्पना रामानी

बने रहें ये दिन बसंत के,

गीत कोकिला गाती

रहना।

 

मंथर होती गति जीवन की,

नई उमंगों से भर जाती।

कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित,

वसुधा मंद-मंद मुसकाती।

 

देखो जोग न ले अमराई,

उससे प्रीत जताती

रहना।

 

बोल तुम्हारे सखी घोलते,

जग में अमृत-रस की धारा।

प्रेम-नगर बन जाती जगती,

समय ठहर जाता बंजारा।

 

झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे,

तुम प्रकाश बन…

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Added by कल्पना रामानी on March 26, 2014 at 1:30pm — 14 Comments

कुछ दोहे आज के हालात पर

छप्पन व्यंजन खाय के,भरा पेट कर्राय

तब टीवी की खबर पर, 'देश प्रेम' चर्राय

नेता उल्लू साधते, आपन गाल बजाय

जनता देखय फायदा, बातन में आ जाय

जोड़-तोड़ बनि जाय जो, दोबारा सरकार

लूट-पाट होने लगे, बढ़ता भ्रष्टाचार

महंगाई जस जस बढ़ै, व्यापारी मुस्कायँ,

जैसे आवय आपदा, फौरन दाम बढ़ायँ

पत्रकारिता बिक गयी, कलम करे व्यापार

समाचार के दाम भी, माँग रहे अखबार

कामकाज को टारि के, बाबू गाल बजायँ

देश तरक्की…

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Added by VISHAAL CHARCHCHIT on March 26, 2014 at 1:00pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
'अल्प विराम-पूर्ण विराम' अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

अल्प विराम – पूर्ण विराम  

********************

वो मै होऊँ या आप

छोटा मोटा विद्यार्थी

सबके अंदर जीता है ,

आवश्यक रूप से

और वो जानता भी है ,

जीते रहने की…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 7:00am — 12 Comments

कनक कनक रम बौराया जग

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कनक  कनक रम बौराया जग

----------------------------------

किसको किसको मै समझाऊँ

ये जग प्यारे रैन   बसेरा

सुबह जगे बस भटके जाना

ठाँव नहीं, क्या तेरा-मेरा ??

आंधी तूफाँ  धूल बहुत है

सब है नजर का फेरा

खोल सके कुछ चक्षु वो देखे

पञ्च-तत्व बस, दो दिन…

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on March 26, 2014 at 2:30am — 11 Comments

ग़ज़ल: घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी

रह गयी कुछ है यही ग़र रह गयी

घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी

 

ज़िन्दगी तक उसकी होकर रह गयी  

अपने हिस्से की ये चादर रह गयी

 

वो मुझे बस याद आया चल दिया

शाम मेरी याद से तर रह गयी

 

तृप्ति ने बोला बकाया काम है

और तृष्णा घर बनाकर रह गयी

नाव जब डूबी तो बोला नाख़ुदा

थी कमी सूई बराबर रह गयी*

बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया

कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी

भुवन निस्तेज

(मौलिक व…

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Added by भुवन निस्तेज on March 25, 2014 at 11:00pm — 16 Comments

दोहा........राम हुए भव पार

दोहा........

कददू -पूड़ी ही सदा, शुभ मुहुर्त में भोग।

वर्जित अरहर दाल जब, शुभ विवाह का योग।।1

अन्तर्मन की आंख से, देखो जग व्यवहार ।

धोखा पर धोखा सदा, देता यह संसार ।।2

तन मन में सागर भरा, जीव प्राण आाधार।

सम्यक कश्ती साध कर, राम हुए भव पार ।।3

धर्म कर्म अति मर्म से, विषम समय को साध।

मन की माया जीत लें, मिले प्रेम आगाध ।।4

जैसी जिसकी नियति है, तैसा भाग्य लिलार।

लेकिन आत्मा राम नित, सदा करें…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2014 at 8:30pm — 6 Comments

रेत उड़ती रही धरा बेबस

रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस

गजल -  2122, 1212, 22

पथ के पत्थर कहे परी हो क्या?

ठोकरों से कभी बची हो क्या ?



रात  ठहरी  हुयी   सितारों  में,

दोस्तों, चॉंद की खुशी हो क्या ?



लूटते  रोशनी  अमावस  जो,

दास्तां आज भी सही हो क्या ?



आदमी धर्म - जाति का खंजर,

आग ही आग आदमी हो क्या ?



रोशनी आज भी नहीं आयी,

राह की भीड़ में फसी हो क्या ?



रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस,

अब हवा धूप आदमी हो क्या…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2014 at 7:20pm — 6 Comments

जुड़े रहे सम्बन्ध (दोहे)

जुड़े रहे सम्बन्ध (दोहे)- लक्ष्मण लडीवाला 

==============

संस्कारी बच्चे बने,बुजुर्ग बने सहाय,

चले राह सन्मार्ग की, वैभव बढ़ता जाय |

 

मान बढे सहयोग से, सबका हल मिल जाय,    

सद्गुण अरु सम्पन्नता, प्रतिदिन बढती जाय |         

 

साथ रहे तो लाभ है, युवा समझते आज,

आजादी भी चाहते,  ये तनाव का साज |

 

बंधिश इतनी ही रहे, टूटे नहि तटबंध   

वीणा जैसे तार ये, जुड़े रहे सम्बन्ध |

 

मन में भरे विकार…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 25, 2014 at 2:00pm — 14 Comments

औरो से हूँ जुदा तुझे भी होगा कल यकी

२२१२ १२१२ १२१२ १२

कातिल हँसी तू इक दफा जो हमको  देख ले

किस की हो फिर मजाल भी जो तुझको देख ले

 

औरो से हूँ जुदा तुझे भी होगा कल यकी

मलिका-ए- हुस्न पहले जो तू सबको देख ले

 

दिलकश हसींन कातिलों में कुछ तो बात है

धड़कन थमें जो इक दफा भी उसको देख ले

 

दिल चाहता जिसे उसे मैं कहता हूँ खुदा

जब सामने खुदा तो कोई किसको देख ले

 

सागर की आरजू कभी भी थी नहीं मेरी

आँखों में जाम भर के ही तू हमको देख…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2014 at 1:30pm — 16 Comments

खेला नया हर पल ही रचाती है जिन्दगी |

2212     2211     221     212 

पल में रुलाती पल में हँसाती है जिन्दगी

खेला नया हर पल ही रचाती है जिन्दगी |



ऐ नौजवानों देश के इतिहास अब रचो

हर रोज ही इक पाठ सिखाती है जिन्दगी | 



टूटे हैं जो विश्वास कहीं आइने से अब

फिर रोज क्यों विश्वास दिलाती है जिन्दगी ?



गुलशन कभी पतझड़ कभी मेरी है बगिया में

कैसे कहाँ क्या रंग दिखाती है जिन्दगी |



जब भी विचारों में घुली हैं रंजिशें यहाँ

ऐसे विचारों से जहर पिलाती है…

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Added by Sarita Bhatia on March 25, 2014 at 10:30am — 14 Comments

बेटियों आगे बढ़ो/ग़ज़ल/कल्पना रामानी

212221222122212  

 

सीख लो अधिकार पाना, बेटियों आगे बढ़ो।

स्वप्न पूरे कर दिखाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

चाहे मावस रात हो, जुगनू सितारे हों न हों,

ज्योत बनकर जगमगाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

सिर तुम्हारा ना झुके, अन्याय के आगे कभी,

न्याय का डंका बजाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

ज्ञान के विस्तृत फ़लक पर, करके अपने दस्तखत,

विश्व में सम्मान पाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

तुम सबल हो,  बाँध लो यह बात अपनी गाँठ…

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Added by कल्पना रामानी on March 25, 2014 at 10:00am — 14 Comments

मृत्यु भी है जीवन

जब आत्मग्लानि 

पार कर जाती है 

पीड़ा की पराकाष्ठा 

तब मैं हीनभावनाग्रस्त 

विचारता हूँ...

शाश्वत रुपी मौत...

मन को कई तर्कों से 

कर देता हूँ आश्वाषित 

कि जीवन की सार्थकता 

मात्र जीवंतता से ही नहीं परिभाषित 

कि हर विडंबना का अंत 

मात्र मृत्यु से ही है सम्बंधित 

कि अनंत के पार मिलूंगा तुम्हें 

कि मृत्यु उपरान्त भी 

रहूँगा तुम्हारा प्रतीक्षित...

कि अंत के उपरांत भी

रहूँगा सदा तुम्हारा ......

पर जब करना चाहता हूँ…

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Added by अभिवृत अक्षांश on March 25, 2014 at 5:30am — 1 Comment

कविता : कालजयी कचरा

ध्यान से देखो

वो पॉलीथीन जैसी रचना है

हल्की, पतली, पारदर्शी

 

पॉलीथीन में उपस्थित परमाणुओं की तरह

उस रचना के शब्द भी वही हैं

जो अत्यन्त विस्फोटक और ज्वलनशील वाक्यों में होते हैं

 

वो रचना

किसी बाजारू विचार को

घर घर तक पहुँचाने के लिए इस्तेमाल की जायेगी

 

उस पर बेअसर साबित होंगे आलोचना के अम्ल और क्षार

समय जैसा पारखी भी धोखा खा जाएगा

प्रकृति की सारी विनाशकारी शक्तियाँ मिलकर भी

उसे नष्ट…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 24, 2014 at 11:51pm — 11 Comments

कुत्ते का बच्चा

कुत्ते का बच्चा 

गया मर,
एड़ियाँ रगड़,
किसे फिकर,
काली चमकती सड़क,,
चलती गाड़ियाँ बेधड़क,
बैठा हाकिम अकड़,
कलफ़ कड़क,
सड़क पर किसका हक़?
क्यों रहा भड़क?
किसके लिए बनी
काली चमकती सड़क?
कुत्ता कितना कुत्ता है
चला आता है,
धुल भरी पगडंडियां
गाँव की
छोड़कर.

.. नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Neeraj Neer on March 24, 2014 at 4:58pm — 16 Comments

ग़ज़ल - सबके सत्कर्म ही फलते तो अच्छा था - पूनम शुक्ला

2122 1222 2222



आप बस रोज यूँ मिलते तो अच्छा था

दर्द दिल के सभी टलते तो अच्छा था



काट डालीं कतारें तुमने पेड़ों की

पेड़ ठंढ़ी हवा झलते तो अच्छा था



झाँकते क्यों हैं पत्तों से अब अंगारे

शाख पर फूल ही खिलते तो अच्छा था



आग में क्यों यूँ जल जाते हैं परवाने

उनके मद लोभ ही जलते तो अच्छा था



अब तो तौकीर भी दौलत से मिलती है

सबके सत्कर्म ही फलते तो अच्छा था



हाँ सज़ावार को मिलती है अय्याशी

वो तो बस हाथ ही मलते तो… Continue

Added by Poonam Shukla on March 24, 2014 at 4:52pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जो मेरे कभी थे वो दूर हैं ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

11212         11212       11212       11212 

 

हुये  रोशनी के प्रतीक जो , वो अँधेरों से  हैं  घिरे  हुये

ये कहो नही, जो कहे अगर, तो ये जान लें कि गिले हुये

 

न ही दर्द  की कोई जात है, न ही  शादमानी की कौम है

ये सियासतों की है साजिशें , जो  हैं  बांटने को पिले…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 24, 2014 at 11:00am — 19 Comments

मौसमी दोहे

मौसम हुआ सुहावना ,उपवन उपवन नूर

ग्लोबल वार्मिंग का असर अब गर्मी है दूर |



समझो प्यारे ध्यान से मौसमी यह बिसात

सुबह होती धूप अगर शाम हुई बरसात |



पारा बढ़ता जा रहा लेकिन बढ़ी न प्यास

फागुन के अब मास में श्रावण का अहसास |



फागुन बीता ओढ़ के रजाई और शाल

वोटर का पारा बढ़ा देख सियासी चाल |



मौसम का बदलाव ये कर ना दे बेहाल

सेहत के खजाने को रखना सब संभाल…

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Added by Sarita Bhatia on March 24, 2014 at 10:23am — 10 Comments

चादरें छोटी मिली हैं किश्मतों की-ग़ज़ल

2122    2122    2122  

***

आदमी  को  आदमी  से  बैर  इतना

भर रहा अब खुद में ही वो मैर इतना

*

दुश्मनो  की  बात  करनी व्यर्थ है यूँ

अब  सहोदर  ही  लगे  है गैर इतना

*

चादरें  छोटी  मिली हैं  किश्मतों की

इसलिए भी मत  पसारो  पैर इतना

*

दे रहे  आवाज  हम  हैं  बेखबर  तुम

कर  रहे  हो किस  जहाँ  में सैर  इतना

*

किस तरह आऊं बता तुझ तक अभी मैं

गाव! उलझन  दे  गया  है  नैर  इतना

*

झूठ  होते  हैं  सियासत  के …

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 24, 2014 at 8:30am — 20 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
पाँच चुनावी दोहे (संंख्या - 2) // --सौरभ

हर चूहा चालाक है, ढूँढे  सही  जहाज

डगमग दिखा जहाज ग़र, कूद भगे बिन लाज



सजी हाट में घूमती, बटमारों की जात

माल-लूट के पूर्व ही, करती लत्तमलात



नाटक के इस…

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Added by Saurabh Pandey on March 24, 2014 at 12:30am — 19 Comments

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