लकीरें गहरी हो गयी है ,
बुधुआ मांझी के माथे की .
स्याह तल पर उभर आये कई खारे झील .
सिमट गया है आकाश का सारा विस्तार
उसके आस पास.
दुनियां हो गयी है दो हाथ की.
मिट्टी का घर, छोटे बच्चे, बैल, बकरियां और
खेत का छोटा सा टुकड़ा
इससे आगे है एक मोटी दीवार
बिना खेत और घर के कैसे जियेगा?
इससे जुदा क्या दुनियां हो सकती है ?
उनकी जमीन के नीचे ही क्यों निकलता है कोयला ?
पर वह किस पर करे…
ContinueAdded by Neeraj Neer on June 4, 2014 at 7:57pm — 16 Comments
गा कोयल गा...
गीत प्रेम के
गा कोयल.....
मन के सुप्त तारों को जगा.
प्रकृति के वक्ष के आर-पार
अनु विस्फ़ोटक के सप्त स्वर में
अपनी गायन शक्ति भर
तीव्र सुर में गा कोयल......
ग्रीष्म की तपती धूप है
कर बादलों का आह्वान
बादल कुछ ऐसा बरसे
तरल हो धरती का कण-कण
निकले सीप से मोती
सुख-समृद्धि की बरसात हो
गा कोयल.....
बनी रहे आम्रतरु की जड़ें
वसंत में मंजरी खिली रहे
मिटे घर घर से मौत की…
Added by coontee mukerji on June 4, 2014 at 6:08pm — 10 Comments
वो नदी जो गिरि
कन्दराओं से निकल
पत्थरों के बीच से
बनाती राह
कितनो की मैल धोते
कितने शव आँचल मे लपेटे
अन्दर कोलाहल समेटे
अपने पथ पर,
कोई पत्थर मार
सीना चीर देता
कोई भारी चप्पुओं से
छाती पर करता प्रहार
लगातार,
सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक खो न…
ContinueAdded by Meena Pathak on June 4, 2014 at 12:58pm — 22 Comments
समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !
संसद चाहती है -
कि अजन्मी उम्मीदों पर लगा दी जाय बंटवारे की कानूनी मुहर !
स्त्री-पुरुष अनुपात, मनुस्मृति और संविधान का विश्लेषण करते -
जीभ और जूते सा हो गया है समर्थन और विरोध के बीच का अंतर !
बढती जनसँख्या जहाँ वोट है , पेट नहीं !
पेट ,वोट ,लिंग, जाति का अंतिम हल आरक्षण ही निकलेगा अंततः !
हासिए पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है
अस्वीकार करता है -
कि मदारी की जादुई…
ContinueAdded by Arun Sri on June 4, 2014 at 10:30am — 10 Comments
2122 2122 2
दिन टपक के सूख जाता है
हाथ में कुछ भी न आता है
मै पराया , वो पराया है
कौन किसमें अब समाता है ?
ग़म हक़ीक़ी भी मजाज़ी भी
देख किसको कौन भाता है
दर्द मै अपना दबा भी लूँ
ग़म तुम्हारा पर रुलाता है
खार चुभते जो रिसा था ख़ूँ
रास्ता वो अब दिखाता है
सूर्य तो ख़ुद जल रहा यारों
वो किसी को कब जलाता है
ख़्वाबों में आ आ के शिद्दत…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 4, 2014 at 9:39am — 22 Comments
Added by Zaif on June 3, 2014 at 9:01pm — 8 Comments
दरिया रहा कश्ती रही लेकिन सफर तन्हा रहा
हम भी वहीं तुम भी वहीं झगड़ा मगर चलता रहा
साहिल मिला मंजिल मिली खुशियां मनीं लेकिन अलग
खामोश हम खामोश तुम फिर भी बड़ा जलसा रहा
सोचा तो था हमने, न आयेंगे फरेबे इश्क में
बेइश्क दिल जब तक रहा इस अक्ल पर परदा रहा
शिकवे हुए दिल भी दुखा दूरी हुई दोनों में पर
हर बात में हो जिक्र उसका ये बड़ा चस्का रहा
छाया नशा जब इश्क का 'चर्चित' हुए कु्छ इस कदर
गर ख्वाब में…
Added by VISHAAL CHARCHCHIT on June 3, 2014 at 2:30pm — 13 Comments
२१२२, २१२२,२१२२, २१२२
क्या सुनाऊं दोस्त तुझको ज़िन्दगानी की कहानी,
चार सू तूफ़ान हैं और अपनी कश्ती बादबानी.
***
जब मिले पहले पहल तुम, ख्व़ाब थे रंगीन सारे,
सुर्ख आँखें हैं मेरी उस दौर की ज़िन्दा निशानी.
***
याद की इन आँधियों में दिल बिखर जाता है ऐसे,
जिल्द फटने पर बिखरती डायरी जैसे पुरानी.
***
देर तक रोता रहा क़ातिल मेरा, मैंने कहा जब,
जान तू ले ले मेरी तो होगी तेरी मेहरबानी.
***
खो गए है हर्फ़ सारे, बुझ गए…
Added by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2014 at 11:00am — 31 Comments
[1]
पूजनीय हैं माँ-पिता, सदा करो सम्मान ।
जीवन दाता है यही, खुदा यही भगवान ॥
खुदा यही भगवान, धर्म निज खूब निभाते ।
संतानों को पाल - पोस कर नेह लुटाते ॥
मन से दो तुम मान सदा ये बंदनीय है ।
करें अहेतुक प्यार हमारे पूजनीय हैं ॥
[2]
माया छलना मोहती , धारे रूप अनेक ।
केवल माला फेरता, कैसे हो तू नेक ॥
कैसे हो तू नेक, फंसाए तुझको माया ।
जाल बिछा हर ओर उलझती जाती काया ॥
मानो …
ContinueAdded by annapurna bajpai on June 2, 2014 at 11:30pm — 14 Comments
मैं मूक बन जाती हूँ …।
नहीं, अब मैं इस गहन तम में नभ को न निहारूंगी
अपनी अभिलाषाओं को तम के गहन गर्भ में दबा दूंगी
दर्द की नमी को पलकों में ही दफना दूंगी
अपने गिले -शिकवों का बवंडर अपने दिल के किसी कोने में छुपा लूंगी
कितना विशवास था
तुम तो मेरे हृदय की टीस को पहचानोगे
यौवन की दहलीज़ पर पाँव रखते ही
हर निशा मैं तुम्हें निहारती थी
शशांक मेरे पागलपन पर मुस्कुराता था
पवन मुझे…
Added by Sushil Sarna on June 2, 2014 at 12:39pm — 18 Comments
ना रंग, ना रूप
ना छाया, ना धूप
ना ख्वाहिश, ना सपने
ना पराये, ना अपने
खाली धरती, सूना आसमाँ
ना चाहत कोई, ना अरमाँ
ना ख़ुशी, ना, कोई गम
ना सब, ना तुम, ना हम
चाबी भरा, एक जिन्दा खिलौना
हँसता मुस्कुराता ख्वाब सलोना
बोझ सी साँसें, बोझिल आँखें
कुछ सुनी, कुछ अनसुनी बातें
हिलत, डुलती, नाचती चमड़ी
जाला बुनती, वक़्त की मकड़ी
चलता सफ़र थकती साँसें
अश्क़ भरी, मुस्कुराती आँखें
फ़र्ज़ के बंधन, रूह…
ContinueAdded by RACHNA JAIN on June 2, 2014 at 11:07am — 3 Comments
कुछ नई सी बात है
आज सुरमई प्रभात है
उम्मीद नहीं विश्वास है
एक अच्छी शुरुवात है
एक पग आगे बढ़ा
कोटि पग भी बढ़ चले
हाथों से हाथ मिले
दिलों के तार जुड़ते चले
ये भी जज्बात है
एक अच्छी शुरुवात है……….
जैसे छिप गया हो तम
अँधेरे की बौछार से
नवल कोंपलें खिल उठीं
बसंत की पुकार से
प्रकॄति की सौगात है
एक अच्छी शुरुवात है………….
हौसलों की उड़ान भर
उद्धमी मन थकता नहीं
असंभव को संभव…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on June 1, 2014 at 7:49pm — 12 Comments
Added by Dr Ashutosh Mishra on June 1, 2014 at 2:11pm — 19 Comments
आखिर कैसा देश है ये ?
- कि राजधानी का कवि संसद की ओर पीठ किए बैठा है ,
सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम !
गैरकानूनी घोषित होने से ठीक पहले असामाजिक हुआ कवि -
कविताओं को खंखार सा मुँह में छुपाए उतर जाता है राजमार्ग की सीढियाँ ,
कि सरकारी सड़कों पर थूकना मना है ,कच्चे रास्तों पर तख्तियां नहीं होतीं !
पर साहित्यिक थूक से कच्ची, अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता !
एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरुरी होना…
ContinueAdded by Arun Sri on June 1, 2014 at 1:00pm — 23 Comments
2122 2122 2122
मत कहो आकाश में कुहरा धना है
जाल धुमते बादलो ने बस बुना है
धूप की चादर अभी फैली फिजा में
चाँदनी को चाँद से मिलना मना है
भूल से भी हम न तड़़पाये तुझे थे
दे गवाही आज वो तेरा अना है
फूल भी रोने लगे तब से चमन में
रौद देगा माली ही जब से सुना है
नींद भी तब से नहीं आती किसी को
आदमी शैतान ही जब से बना है
आज ये सुन शर्म खुद रोने लगा क्यों
औरतो ने राह पर बच्चा जना है
मौलिक एवं…
Added by Akhand Gahmari on June 1, 2014 at 1:00am — 13 Comments
1222 1222 1222 1222
कहाँ से अजनबी दिल के हमारे पास आते है/
हमारे दिल में बस कर वो हमारा दिल चुराते है
हमारी जिन्दगी भी तो अमानत होे गई जिनकी
वही अब जिन्दगी में आग जाने क्यों लगाते है
जहर खाना नहीं जीवन बड़ा अनमोल सुन लो तुम
न खाये हम जहर तो क्या करें वो दिल जलाते है
हमारे सपनो को अपना कभी वो समझते लेकिन
न जाने क्यों…
Added by Akhand Gahmari on May 31, 2014 at 10:00pm — 7 Comments
तुम और मैं कितनी सदियों से
हाँ, कितने जन्मों से,
कितने चेहरे और रूप लिये
कभी भूले से, कभी अंजाने से.
एक युग में कभी तृण बन के
अमृत जल से बरसे कहीं,
नभ में तारे बन के चमके कभी
कितनी कहानियाँ सुनी अनसुनी रहीं.
किसका सफ़र था जो हवा बन के
गुज़र रहा था पात पात
एक गुलाब खिला था वन में
कुछ महक थी बसी मकरंद में.
एक एहसास था मन के कोने में
वह ढूँढ़ रहा था एक ठाँव,
कितने बसेरे मिले थे…
Added by coontee mukerji on May 31, 2014 at 1:00pm — 9 Comments
जिसका वो अंश है ……
कौन है ज़िंदा ?
वो मैं,जो सांसें लेता है
जिसका प्रतिबिम्ब दर्पण में नज़र आता है
जो झूठे दम्भ के आवरण में जीवन जीता है
या
वो मैं जो अदृश्य हो कर भी सबमें समाया है
न जिसकी कोई काया है
न जिसका कोई साया है
कितना विचित्र विधि का विधान है
एक मैं, नश्वरता से नेह करता है
एक मैं, अमरत्व के लिए मरता है
मैं के परिधान में जो मैं ज़िंदा है
वही प्रभु का सच्चा परिंदा है …
Added by Sushil Sarna on May 31, 2014 at 12:30pm — 14 Comments
महाराणा प्रताप की जयंती पर समर्पित -कुंडलिया छंद
रचते है इतिहास ही,राणा जैसे वीर,
माँ वसुधा के लाल ये,ये ही असली पीर
ये ही असली पीर, युद्ध से जिनका नाता
दुश्मन को दे…
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 31, 2014 at 11:00am — 14 Comments
खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं ……
खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ
पल-पल ..तेरी राह निहारूं
एकांत पलों में तुझे पुकारूं
जीने की कोई आस बता दे
किस मूरत से .नेह लगाऊं
खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ
भोर व्यर्थ मेरी .साँझ व्यर्थ है
तुझ बिन मेरी प्यास व्यर्थ है
अंबर के घन .कुछ तो कह तू
कैसे नयन का ...नीर…
Added by Sushil Sarna on May 30, 2014 at 3:07pm — 12 Comments
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