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डगर

वैसे तो मैं
हर डगर से पहुँच जाता हूँ
तेरे पास .
मगर यह
प्रेम डगर बहुत कठिन है.
तुम्ही आ जाओ न
ढलान से होकर.

डॉ. विजय प्रकाश शर्मा
(मौलिक व् अप्रकाशित )

Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 12, 2014 at 8:00pm — 17 Comments

वह वृद्ध !! // अतुकांत कविता // अन्नपूर्णा बाजपेई

वह वृद्ध !!

कड़कती चिलचिलाती धूप मे

पानी की बूंद को तरसता

प्यास से विकल होंठो पर

बार बार जीभ फेरता

कदम दर कदम

बोझ सा जीवन, घसीटता

सर पर बंधे गमछे से

शरीर के स्वेद को

सुखाने की कोशिश भर करता 

अड़ियल स्वेद

बार बार मुंह चिढ़ाता

थक कर चूर हुआ

वह वृद्ध !!

कुछ छांव ढूँढता

आ बैठा किसी घर के दरवाजे पर

गृह स्वामी का कर्कश स्वर –

हट ! ए बुड्ढे !!

दरवाजे पर क्यों…

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Added by annapurna bajpai on June 12, 2014 at 7:22pm — 18 Comments

तुम आओगे न

वही रेत

वही घरोंदे

थपथपाते हाथ

सब कुछ वैसा

पर अब लगता

जीवन-सफर

सीलन भरा

शायद इसलिए ...

दिशाओं के पावडों पर

पग रख

समय रथ ने ,

द्रुत गति पकड़ी

और तुम दूर हो गए

पर ये कैसे कहूँ

जबकि हर पल हो पास

मेरी दुआओं में तुम

परछाईयों की तरह



बहुत खुश मैं ,कि

अचानक ...

मेरी पहचान बदलने लगी

कभी मुझसे तुम थे

आज तुम मेरी पहचान बने

यही…

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Added by Deepika Dwivedi on June 12, 2014 at 6:00pm — 11 Comments

न जाने कब चाँद निकलेगा

जब सूरज चला जाता है

अस्ताचल की ओट में

और चाँद नहीं निकलता है.

दिखती है उफक पर

पश्चिम दिशा की ओर

लाल लकीरें.

पूरब में काली आँखों वाला राक्षस

खोलता है मुंह

लेता है जोर की साँसे

चलती है तेज हवाएं.

लाल लकीरें डूब जाती हैं,

फिर सब हो जाता है प्रशांत.

मैं पाता हूँ स्वयं को

एक अंध विवर में

हो जाता हूँ विलीन

तम से एकाकार .

खो जाता है मेरा वजूद.

न जाने कब चाँद निकलेगा.

..नीरज कुमार नीर .

मौलिक एवं…

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Added by Neeraj Neer on June 12, 2014 at 5:10pm — 14 Comments

प्रश्न

प्रश्न यह अश्लील है, पैदा हुई क्यों लड़कियां ?

घर की दीवारें लाँघ कर बाहर गयी क्यों लड़कियां?

वो सांस्कृतिक कार्यक्रमों , में उम्र सीमा बांधते|

खोल कर उनके मुखौटे घर से क्यों भागी लड़कियां?

है किसी की बहन , किसी की बेटी लड़कियां

फिर क्यों चौराहों पर, घूरी जाती हैं लड़कियां ?

वक्त बदला है, वो जल्दी ही उतार फेकेंगी |

चूड़ियों की हथकड़ी और पायलों की बेड़ियाँ |

न जाने कितने रूपों में हैं प्यार लुटाती लड़कियां|

जिंदगी की धूप में , छाँव…

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Added by DIWAS MISHRA on June 12, 2014 at 2:30pm — 19 Comments

3 मुक्तक

3 -मुक्तक

1.

हर रंज़ पे .मुस्कुराता हूँ

तन्हा तुझे गुनगुनाता हूँ

किस रंग पे मैं यकीं करूँ

हर रंग से फ़रेब खाता हूँ

..................................

2.

हर तरफ बाज़ार नज़र आता है

हर रिश्ता लाचार नज़र आता है

अब गुल नहीं महकते बहारों में

हर शाख़ पर ख़ार नज़र आता है

.......................................................

3.

रास्ते बदल जाते हैं ...तूफाँ जब आते हैं

यादों के अब्र में ...अरमाँ पिघल जाते हैं

रुकते नहीं अश्क.…

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Added by Sushil Sarna on June 12, 2014 at 1:00pm — 18 Comments

मोह माया मत समझ संसार को - ग़ज़ल

2122    2122   212

*********************

तन  से  जादा  मन  जरूरी  प्यार को

मन  बिना  आये हो क्या व्यापार को

***

मुक्ति  का  पहला  कदम  है  यार ये

मोह  माया  मत  समझ  संसार को

***

इसमें   शामिल  और  जिम्मेदारियाँ

मत समझ मनमर्जियाँ अधिकार को

***

डूब कर  तम में  गहनतम भोर तक

तेज   करता   रौशनी  की   धार  को

***

तब कहीं  जाकर  उजाला  साँझ तक

बाँटता   है   सूर्य   इस   संसार …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 9:42am — 21 Comments

जिंदगी ढूंढते रह गए तुझको ---डा० विजय शंकर

जिंदगी , कितनी सरल , खूबसूरत है तू

तुझको देखें जी भर , कि जी लें तुझको ,

कैसे रखा , कैसे पाला है , हमने तुझको,

तुझको पढ़ें मन भर , कि लिखें तुझको |



बोझ ,शौक ,मौज नाम दिए हमने तुझको

ये रीति, ये रिवाज ,ये बंदिशें , ये विधान

ये दायरे ,ये पहरे ,ये कानून , ये फरमान

ये भी तेरे हैं , तेरे बन्दों ने दिए हैं तुझको |



बाँध के रख दिया हजार बंधनों में तुम्हें

दावा यह कि सब तेरी हिफाजत के लिए है

इतनी बंदिशें तूने न देखी , न जानी होगीं ,

जितनी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on June 12, 2014 at 5:11am — 21 Comments

ग़ज़ल

2122   1122   1122   22

दिल में उम्मीद तो होटों पे दुआ रखता हूँ

तुम चले आना मैं दरवाज़ा खुला रखता हूँ

 

ये तेरा हुस्न अगर जलता शरारा है तो क्या  

मैं भी जज़्बात की जोशीली हवा रखता हूँ

 

राहे-उल्फ़त में तू अपने को अकेला न समझ

दिल में चाहत का दिया मैं भी सदा रखता हूँ

 

ख़ुशनुमा मंज़रो - तस्वीर न गुल बूटे से 

अपने कमरे को दुआओं से सजा रखता हूँ

 

अपनी औक़ात कहीं भूल न जाऊँ ‘साहिल’

इसलिए महल में…

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Added by Sushil Thakur on June 11, 2014 at 10:13pm — 8 Comments

ग़ज़ल

 2122   2122   2122   2122

ज़ुल्फ़ जब उसने बिखेरी बज़्मे-ख़ासो-आम में  

फ़र्क़ बेहद कम रहा उस वक़्त सुब्हो-शाम में

 

झाँककर परदे से उसने इक नज़र क्या देख ली 

जी नहीं लगता हमारा अब किसी भी काम में

 

सिर्फ़ ख़ाकी, खादी पर उठती रही हैं उंगलियाँ

मुझको तो नंगे नज़र आये हैं सब हम्माम में   

 

मान-मर्यादा, ज़रो-ज़न, इज्ज़तो, ग़ैरत तमाम

क्या नहीं गिरवी पड़ी है ख्व़ाहिशे-ईनाम में

 

एक दिन में मुफलिसों का दर्द क्या…

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Added by Sushil Thakur on June 11, 2014 at 10:07pm — 9 Comments

कर्मजली (लघुकथा) रवि प्रभाकर

“अबे ओए,  क्या तू ही दीनू है?” अपने दलबल के साथ अचानक आ धमके थानेदार ने अपनी रौबीली आवाज में पूछा

”जी सरकार मैं ही दीनू हूँ ......”

“क्या यही वो लड़की है जिसके साथ आज जबरदस्ती हुई है?” कोने में सिसकती लड़की की तरफ देखकर थानेदार की आंखों में गुलाबी से डोरे तैरने लगे।

“जी सरकार..........”

“जी सरकार के बच्चे... शिकायत क्यों नहीं की थाने में आकर....”

“जी, वो मुखिया जी ने समझौता..... ”

”देखिए…

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Added by Ravi Prabhakar on June 11, 2014 at 3:00pm — 16 Comments

गजल -

फिर किया है कत्ल उसने इश्तिहार है

शुक्र है वो हर गुनाह का जानकार है

कत्ल वो हथियार से करता नहीं कभी

कत्ल करने की अदा कजरे की धार है

अब वफादारी निभाता कौन है यहाँ

अब मुहब्बत हो गयी नौकाबिहार है

आजकल लगने लगा हैं वो कुछ नया नया

फिर हुआ शायद कोई उसका शिकार है

झूठ भारी हो गया सच के मुकाबले

आजकल सच हारता क्यों बार बार है

मार डालें ना मुझे बेचैनियाँ मेरी

दिल मेरा ये सोचकर अब सौगंवार…

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Added by umesh katara on June 11, 2014 at 2:00pm — 19 Comments

खिलखिलाती रही

कतरा कतरा बन

जि़न्दगी गिरती रही

हर लम्हों को मैं

यादों में सहेजती रही

अनमना मन मुझसे

क्या मांगे,पता नहीं

पर हर घड़ी धूप सी

मैं ढलती रही

रात, उदासी की चादर

 ओढा़ने को तत्पर बहुत

पर मैं

चाँद में अपनी

खुशियाँ तलाशती रही

और चाँदनी सी

 खिलखिलाती रही

****************

महेश्वरी कनेरी

अप्रकाशित /मौलिक

Added by Maheshwari Kaneri on June 11, 2014 at 1:00pm — 10 Comments

.जिंदगी तुझे ही पढ़ लेते हैं ---डा० विजय शंकर

चलो किताबों को बंद कर देते हैं

जिंदगी तुझे ही सीधे-सीधे पढ़ लेते हैं .

किताबों में सबकुझ तेरे बारे में ही तो है

लो , तुझसे ही सीधे-सीधे बात कर लेते हैं.

किताबें तो बहुत सी हैं , मिल भी जायेंगीं

उन को पढ़ लूँ तो क्या तू मिल जायेगी .

मौत को कितने और कौन-कौन पढ़ते हैं

पर उसका वादा है , सबको मिलती है .

भरोसा नहीं , तू किसको मिले , कितनी मिले

तेरे लिये , तेरे चाहने वाले दिन रात लगे रहते हैं .

अरे सब कुछ तो तेरे लिए ही है जिंदगी में

तू है तो सब… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on June 11, 2014 at 10:25am — 17 Comments

मेरे लाल भूल न जाना ये बात !!

मेरे बच्चे !!

खुश रहो तुम हरदम

न आये जीवन में तुम्हारे कोई गम

हो माँ शारदे की अनुकम्पा

भरपूर हो स्वास्थ, संपदा,

पर मेरे बच्चे, याद रखना हमेशा

जीवन में एक अच्छा इंसान बनना

साथ तुम्हारे चले जो जीवन पथ पर

करना उसका भी आदर

बहे न कभी तुम्हारे कारण

उसकी आँख का काजल,

करना न तुम कभी प्रकृति का दोहन

लेना उससे उतना ही जितनी हो जरुरत

अंत में है मेरा आशीर्वाद !

घर-परिवार, समाज, राष्ट्र

हर जगह हो तुम्हारा ऊँचा नाम

मेरे लाल…

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Added by Meena Pathak on June 11, 2014 at 1:59am — 19 Comments

ग़ज़ल – द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी (अभिनव अरुण)

ग़ज़ल –

फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन

२१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२



द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी |

आज या कल के उस दौर में मैं कहाँ कब संभाली गयी |



सब्र तक मुझको मोहलत मिली कब कली अपनी मर्ज़ी खिली ,

एक सिक्का निकाला गया मेरी इज्ज़त उछाली गयी |



लड़का लूला या लंगड़ा हुआ गूंगा बहरा या काला हुआ ,

मुझसे पूछा बताया नहीं सबको मैं ही दिखा ली गयी |



दौर कैसा अजब आ गया एक सबको नशा छा गया ,

सब हैं पैसे के पीछे गए सबकी… Continue

Added by Abhinav Arun on June 10, 2014 at 5:53pm — 23 Comments

मेरे हाथों में तारे देख कर वो क्यूँ जला है

१२२२   १२२२    १२२२   १२२

मेरे हाथों में तारे देख कर वो क्यूँ जला है

मेरे मालिक तेरा इंसान जाने क्या बला है

 

लड़ा ताउम्र दरिया हौसलों के साथ अपने

लगाया था गले जिनको उन्हें ही क्यूँ खला है

 

घुसे थे झाड़ियों में तो बहुत ज्यादा संभलकर

थे हम भी बेखबर उस नाग से जो घर पला है   

 

बड़ा मुश्किल है फहराना ये परचम शोहरत का

यकीनन  कारवा पहले या आखिर में चला है

 

नहीं शिकवा गिला हमको कभी भी आपसे था

कभी खिलता…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on June 10, 2014 at 5:50pm — 15 Comments

स्नेह

तुम रुको,
मैं स्नेह से
दीपक जला लूँ.

तुम झुको,
मनुहार से मैं
चित्र भावों का बना लूँ .

कौन जाने कब
मिले फिर
आज तो यह गीत गालूँ.

तुम रुको,
मैं स्नेह से
दीपक जला लूँ.

विजयप्रकाश
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 10, 2014 at 1:03pm — 8 Comments

जीत

तुम हर पल जीतना चाहते हो
हारना तुम्हारी फितरत में नहीं है
कोई तुम्हारी युद्ध से
लौटी तलवार को
छूना नहीं चाहता
तुम्हारे रक्त-रंजित  हाथ
अब तुम्हारी माँ भी
नहीं पहचानती.
तुम्हारे बाल सखा कबके
विलीन हो गए रणभूमि में
तुम्हारी जीत के लिए.
कोई तुम्हारे कमजोर
पलों में
साथ नहीं देना चाहता
इतनी जीत का क्या करोगे?

डॉ. विजय प्रकाश शर्मा

(मौलिक व अप्रकाशित )
 

Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 10, 2014 at 11:30am — 14 Comments

बात जब भी शहर में -- ..डा० विजय शंकर

बात जब भी शहर में

अंधेरा मिटाने की होती है ,

तेरे घर की रौशनी कुछ

और बढ़ा दी जाती है |

बात जब भी मजबूर

सताये लोगो को

न्याय दिलाने की होती है

तुझे एक नयी जमानत

और दिला दी जाती है |्

तेरे हर जुल्म हर गुनाह के साथ ,

तेरी शोहरत बढ़ाई जाती है ,

तेरे सताये गुमनाम अंधेरों में ,

सिमट जाते हैं , और

चकाचौंध रौशनी कर तेरे

चेहरे की रौनक बढ़ाई जाती है |

तेरी मौज , तेरी तफरीह में जो

मिट गये , उन्हें कफन भी नहीं मिला ,

तेरे… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on June 10, 2014 at 10:57am — 11 Comments

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