छन्न पकैया, छन्न पकैया, बाबा देवर लागें
फागुन रुप धरे मतवाला,भाव सुहाने जागे ॥
छन्न पकैया, छन्न पकैया, राधा है शरमीली
अस्सी गज का लहँगा पहने,चोली रंग रँगीली ॥
छन्न पकैया, छन्न पकैया, आम्र सुनहरे बौरे
केसर के नव पल्लव उगते, घूमें लोलुप भौरे ॥
छन्न पकैया, छन्न पकैया,पिक बयनी हरषाए
कुहू-कुहू करती रहती वो, सबके मन को भाए ॥
छन्न पकैया, छन्न पकैया, गेंदा चम्पा महके
शीतल मंद सुगंध हवा में, प्रेमी जोड़ा बहके…
Added by kalpna mishra bajpai on February 28, 2015 at 10:30am — 14 Comments
बेपरवाही नहीं, प्रिया मेरी! विश्वास ह्रदय का मेरा है |
तुमको सब कुछ सौंप दिया , जो मेरा है सो तेरा है ||
मुक्त हुआ , कुछ फिक्र नहीं |
तू सच है, केवल जिक्र नहीं |
मैं चाहे जहाँ रहूँ लेकिन, तेरे नयन ह्रदय का डेरा है |
बेपरवाही नहीं, प्रिया मेरी! विश्वास ह्रदय का मेरा है ||
मैं सोता, तू जगती है |
धीरज रोज , परखती है |
है बन्द आँख में ख्वाब तेरा, भले नींद ने घेरा है |
बेपरवाही नहीं, प्रिया मेरी! विश्वास ह्रदय का मेरा है…
Added by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on February 28, 2015 at 9:00am — 8 Comments
221-1222-221-1222
पत्थर से तेरे दिल को मैं मोम बना दूँ तो
चिंगारी दबी है जो फिर उसको हवा दूँ तो.
इस शहर में चर्चे हैं तेरे रूप के जादू के
मैं अपनी मुहब्बत का इक तीर चला दूँ तो.
क्या नाज़ से बैठी हो फागुन के महीने में
मैं रंग मुहब्बत का थोड़ा सा लगा दूँ तो.
तुम कहते हो होली में इस बार न बहकूँगा
गुझिया व पुओं में मैं कुछ भंग मिला दूँ तो.…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 27, 2015 at 11:00pm — 28 Comments
छाई रंगों की मधुर फुहार
रंगीली आई होली
सखी री आई होली
अंग सजन के रंग लगाऊँ
मन ही मन में खूब लजाऊँ
फगुनिया चलती बयार
सखी री आई होली
नेह में डूबी पवन बावरी
मन मंदिर में पी छवि सांवरी
नथुनिया की होठों से रार
सखी री आई होली
शाम सिंदूरी अति हर्षाये
अखियों से मदिरा छलकाए
चंदनियाँ करे मनुहार
सखी री आई होली
चम्पा चमेली गजरे में महके
दर्पण देख के मनवा…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on February 27, 2015 at 8:00am — 18 Comments
मैं एक कवि हूँ
मुझे प्रेम है
पहाडों से
नदी से
सागर में उठती हुयी लहरों से
गिरते हुये झरनों से
सुन्दर सुन्दर फूलों
की महक से
मीठी मीठी
पंछियों की चहक से
मैं एक कवि हूँ
मुझे प्रेम है
बंजड हुये उस पेड से
जिसने कभी छाया दी थी
फल दिये
मुझे प्रेम है
उन तेज नुकीले काँटे से
जिसने खुद को सुखाकर
फूल को खिलाया
मुझे जितना सुख से प्रेम है
उतना ही प्रेम दुख से है
तुम कहती हो
मैं…
Added by umesh katara on February 27, 2015 at 7:30am — 18 Comments
नारी बरसों से देवी तुल्य कहलाती है
मगर यह बात मुझे अचंभित कर जाती है
केवल कागजों में छपी हैं यह कागज़ी बातें
सच्चाई मगर.. कुछ और बयां कर जाती है
चीखें दबी -दबी सी ,साँसे घुटी. घुटी सी
पथराई आँखें बदहवास सी नज़र आती है
रुदन को गुप्त रख स्मित बरसाती है
निशब्द सी धडकनें डरकर रह जाती है
जज्बात उसके सदा सहमें से लगते हैं
घरोंदे में छुपकर वह जीवन बिताती है
सिंदूर में रंग कर…
ContinueAdded by डिम्पल गौड़ on February 27, 2015 at 1:00am — 18 Comments
कितना कम चाहिए
नून, तेल, गुड के अलावा
फिर भी मिल नही पाता
मुंह बाये आ खड़ी होती है
लाचारी सी हारी-बीमारी
डागदर-दवाई में चुक जाती है
जतन से जोड़ी रकम
जबकि हमारी इच्छाएं है कितनी कम...
कितना कम चाहिए
रोटी और कपड़े के अलावा
फिर भी मिल नही पाता
आ धमकता वन-करमचारी
थाने का सिपाही
या अदालत का सम्मन
और हम बेमन
फंसते जाते इतना
कि छूटते इनसे बीत जाती उमर
दीखती न मुक्ति की कोई डगर.....
(मौलिक…
ContinueAdded by anwar suhail on February 26, 2015 at 10:08pm — 8 Comments
बनके अश्रु जब टपकेगी दिल की बेचैनी
मोहब्बत है तुझे हमसे फिर मान लूँगा मैं |
बयां कर न कर पढ़ के चेहरे की हालत
जरुरत है तुझे मेरी फिर जान लूँगा मैं |
जाके मिल गयी तुम गर सितारों में
देख चमकने की अदा फिर पहचान लूँगा मैं |
पकड़ हाथों में हाथ बनाके दिल की रानी
जहाँ कोई न हो दुश्मन फिर जहान लूँगा मैं |
सुनहरे केश और आँखों पे पलकों का ज़ेबा
बनाके तुझे भेजा उसका फिर एहसान लूँगा मैं |
बुलावा आ गया तेरा गर मुझ से पहले…
Added by maharshi tripathi on February 26, 2015 at 10:00pm — 14 Comments
२१२२ २१२२
नीम सी कोई दवा हूँ
आदमी मैं काम का हूँ
भाग से मैं हूँ बुरा पर
शख्स लेकिन मैं भला हूँ
दो घडी रूकता ना कोई
मैं सड़क का हादसा हूँ
स्वार्थ भर को ही जरूरत
क्या मैं कोई देवता हूँ
ढूँढता हूँ अपनी मंजिल
ख़त कोई पर बेपता हूँ
गुमनाम पिथौरागढ़ी
मौलिक व अप्रकाशित
Added by gumnaam pithoragarhi on February 26, 2015 at 6:16pm — 13 Comments
221 1222 221 1222
चुपचाप अगर तुमसे अरमान जता दूँ तो !
कितना हूँ ज़रूरी मैं, अहसास करा दूँ तो !
संकेत न समझोगी.. अल्हड़ है उमर, फिर भी..
फागुन का सही मतलब चुपके से बता दूँ तो
ये होंठ बदन बाहें…
Added by Saurabh Pandey on February 26, 2015 at 6:00pm — 16 Comments
सीप में बंद मोती .....
दूर उस क्षितिज पर
रोज इक सुबह होती है
रोज सागर की सूरज से
जीवन के आदि और अंत की बात होती है
जब थक जाता है सूरज
तो सागर के सीने पर
अपना सर रख देता है
और रख देता है
अपने दिन भर के
सफ़र की थकान को
अपने हर सांसारिक
अरमान को
बिखेर देता है
अपनी सुनहरी किरणों की
अद्वितीय छटा को
सागर की शांत लहरों पर
फिर अपने अस्तित्व को
धीरे-धीरे निशा में बदलती
सुरमई सांझ के आलिंगन में…
Added by Sushil Sarna on February 26, 2015 at 1:07pm — 18 Comments
२२१२ २२११ २२१ १२२
अब हाले दिल ये उनको सुनाना ही पड़ेगा
लगता है अपने ओंठ हिलाना ही पड़ेगा
छत पे खड़े हैं आज वो ऊंचे मकान की
इस जिस्म में अब पंख लगाना ही पड़ेगा
लौटे हैं कितने रिंद उन्हें मान के पत्थर
जल्वा- ग़ज़ल का उनको दिखाना ही पड़ेगा
छुप छुप के देखें आह भरें होगा न हमसे
नजरों के तीखे तीर चलाना ही पड़ेगा
ग़ज़लों पे रखिये आप यकी आज भी अपनी
जलता हुआ दिल ले उन्हें आना ही…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2015 at 10:30am — 15 Comments
एक स्त्री हो तुम
पत्नि नाम है तुम्हारा
लेकिन कभी कभी
खुद से अधिक
मेरी चिन्ता में डूब जाती हो
तुम्हारा इतना चिन्तित होना
मेरे अन्तर्मन में भ्रम पैदा करता है
कि तुम मेरी अर्धांगिनी होकर
माँ जैसा व्यवहार करती हो
कैसा बिचित्र संयोजन हो तुम
ईश्वर का
जीवन के उस समय में
जब कोई नहीं था सहारे के लिये
दूर दूर तक
तब एक भाई की तरह
मेरे साथ खडे होकर
भाई बन गयी थीं तुम
उस दिन मुझे आश्चर्य हुआ था
कि स्त्री होकर भी…
Added by umesh katara on February 26, 2015 at 10:16am — 17 Comments
आहत युग का दर्द चुराने आया हूं
बेकल जग को गीत सुनाने आया हूं
कोमल करुणा भूल गये पाषाण हुये
दिल में सोये देव जगाने आया हूं
आँगन आँगन वृक्ष उजाले का पनपे
दहली दहली दीप जलाने आया हूं
ग़ालिब तुलसी मीर कबीरा का वंशज
मैं भी अपना दौर सजाने आया हूं
दिल्ली बतला गाँव अभावों में क्यूं है
नीयत पर फिर प्रश्न उठाने आया हूं
सिस्टम इतना भ्रष्ट हुआ, जिंदा होकर
इसके दस्तावेज़ जुटाने आया…
ContinueAdded by khursheed khairadi on February 26, 2015 at 10:09am — 11 Comments
1.
पावन पवित्र प्रेम को, करते क्यों बदनाम ।
स्वार्थ मोह में क्यों भला, देकर प्रेमी जान ।।
2.
एक प्रश्न मैं पूछती, देना मुझे जवाब ।
छोरा छोरी क्यो भला, करते प्रेम जनाब ।।
3.
तेरा सच्चा प्यार है, मेरा है बेकार ।
माॅ की ममता क्यों भला, होती है लाचार ।।
4.
सोलह हजार आठ में, मिले न राधा नाम ।
सारा जग फिर क्यो भला, जपते राधे श्याम ।।
5.
मातु पिता के बात पर, जिसने किया विवाह ।
होते उनके भी प्रबल, इक दूजे…
Added by रमेश कुमार चौहान on February 25, 2015 at 9:30pm — 8 Comments
लुट रही है फसल-ए-बहार दंगो में..
आराम फरमा रहे हैं वो जंगों में...
दिया किसने ये हक़ इन्हें ए-ख़ुदा
ख़ुदी है सो रही खिश्त-ओ-संगों में..
किसने बनाये हैं ये सनमकदे...
ख़ुदा भी बंट गया बन्दों में...
मेरी इन्ही आँखों ने,नजर में तेरी ए-सनम
देखा है खुद को कई रंगों में..
है किसे तौफ़ीक जो गैरों के चाक सिले?
मै भी नंगा हो गया नंगों में....
‘’मौलिक व अप्रकाशित’’
२०१४ में उ.प्र. में फैले दंगों के…
Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 25, 2015 at 9:00pm — 2 Comments
उम्मीद तो
मुझे अपने आप से भी थी
उम्मीद तो
मुझे अपनों से भी थी ...
सोचता तो
अपने के लिए भी था
सोचता तो
दूसरों के लिए भी था
सुधार की गुंजाईश
अपने आप से भी थी
सुधार की गुंजाईश
दूसरों से भी थी
इन्हीं ...
उहापाहो में
सफर काटता रहा ...
जब उम्मीद
अपनी पूरी नहीं हुयी
सोच अपनी न रही
सुधार खुद को न पाया
तो शिकायत
अब किससे
और…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on February 25, 2015 at 8:58pm — 11 Comments
तू मेहरबां है के खफा है मुझे पता तो लगे..
गुलशन में बातें सुलग रहीं है..जरा हवा तो लगे..
मोहब्बतों में ऐसा जलना भी क्या?बुझना भी क्या?
जले तो आंच न आये,बुझे तो न धुँआ लगे..
अजब हो गया है अब तो चलन मुहब्बतों का..
मै वफ़ा करूँ तो है उसको बुरा लगे...
वो चाहता है के मै उसके जैसा बन जाऊ...
है जो हमारे दरमियाँ न किसी को पता लगे..
इस साल भी बेटी न ब्याही जाएगी...
गन्ने/गल्ले का दाम देख किसान थका-थका सा…
ContinueAdded by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 25, 2015 at 8:00pm — 14 Comments
फिर हुआ सागर-मंथन
नए कल्प में
इस बार रत्न निकले – तेरह
देवता व्यग्र ! विष्णु हैरान !
कहाँ गया अमृत-घट ?
समुद्र ने कहा –
अब वह जल कहाँ
जिसमे होता था अमृत
जिसे मेरी गोद में
डालती थी गंगा
जिससे भरता था घट
अब तो शिव ने भी
दो टूक कह दिया है
नहीं…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 5:00pm — 6 Comments
न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे
खता कुछ हो गई मुझसे तभी तुझको गवा बैठे
सजा कर माँग तेरी मैं तुझे अपना बनाया था
तुम्हारे साथ मिल कर मैं घरौंदा इक बसाया था
खिले जब फूल आँगन में हुआ पूरा सभी सपना
तुम्हारे बिन नहीं कोई जमाने में लगे अपना
मगर ये भूल थी मेरी जो तुम से दिल लगा बैठे
ख़ता कुछ हो गई मुझसे तभी तुझको गवा बैठे
न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे
बना कर सेज़ फूलों की उसे सबने सजाया था
उठा कर मैं जमीं से फिर…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on February 25, 2015 at 2:05pm — 6 Comments
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