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रेत की दीवार वो कुछ ही पलों में ढह गया |

२१२२ / २१२२/ २१२२/ २१२
राह चलते दिल मिला फिर याद बनकर रह गया | 
ख़्वाब  जो देखा कभी वो अश्क बनकर बह गया |
रात     बीती   चांदनी  में खाब  आँखों  में  लिये ,  
रेत  की   दीवार  वो  कुछ  ही  पलों में ढह गया |
दूर  होकर  भी मिलन का  फूल खिलता ही रहा ,
आँखें   रोती  रह  गयीं  सपना अधूरा रह गया |
होश  खो  बैठे न जानें  किस  कदर बहकाव में ,
जिंदगी से खेल कर ही कोई क्या क्या कह गया |  
रोज  मिलते राह में अब  अजनबी  ही की तरह ,
चेहरा तो है वहीँ पर  तीर दिल अब   सह गया |
बेवफा के   नाम  पर  वर्मा  जमाना  चुप रहा ,
ले कसम लूटे कहीं कोई  रिश्ता  क्या रह गया |
श्याम नारायण वर्मा 
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on April 2, 2015 at 9:54am

आदरणीय मिथिलेश जी और आदरणीय जीतेन्द्र जी रचना की सराहना के लिए मैं आप का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ |
सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 2, 2015 at 9:48am

बहुत सुंदर गजल प्रस्तुति ,आदरणीय श्याम जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 1, 2015 at 11:43pm

आदरणीय श्याम जी सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

Comment by Shyam Narain Verma on April 1, 2015 at 4:32pm

आदरणीय  डा. विजय शंकर  जी  और डा. गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी   रचना भाव पसंद करने के लिए आप लोगों का बहुत बहुत  आभार |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 1, 2015 at 1:19pm

आ० वर्मा जी

बेहतरीन गजल .  सादर .

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 1, 2015 at 10:47am
राह चलते दिल मिला फिर याद बनकर रह गया |
ख़्वाब जो देखा कभी वो अश्क बनकर बह गया |
बहुत खूब , बधाई , आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी , सादर।

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