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 मुश्किल सवाल ज़ीस्त के आसान हो गए, 
 ता-हश्र हम जो कब्र के मेहमान हो गए.
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 जब से कमाई बंद हुई सब बदल गया 
 अपनों पे बोझ हो गए सामान हो गए. 
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 मेरे ये हर्फ़ बन न सके गीत और ग़ज़ल 
 उनके तो वेद हो गए कुर’आन हो गए. 
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 उसने बना के भेजा हमें आदमी प् हम  
 हिन्दू इसाई और मुसलमान हो गए.
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 जब हश्र पर दिखाया गया आईना हमें  
 ख़ुद के चलन पे ख़ुद ही पशेमान हो गए. 
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 कुछ लोग इस जहान में इंसान भी नहीं,  
 कुछ लोग ऐसे देखे जो भगवान हो गए.
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 ऐसा नहीं की आपने इस दिल को छू लिया  
 मासूमियत पे आपकी कुर्बान हो गए.  
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 जब से बदल लिया है हवाओं ने अपना रुख 
 वाक़िफ थे लोग जितने भी अन्जान हो गए.  
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 मिसरे कहे थे चंद यूँ ही खेल खेल में 
 शायर के बाद उसकी वो पहचान हो गए. 
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 बरसों ख़फ़ा रहे वो कभी बात तक न की 
 फिर एक दिन वो हम पे मेहरबान हो गए.  
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 वो रह न पाए साथ मगर धडकनों में हैं 
 मेरी हर एक नज़्म का उन्वान हो गए.
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 जब से हुआ है ‘नूर’ निगहबाँ चिराग़ का  
 जितने भी थे रक़ीब वो तूफ़ान हो गए.
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नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित 
Comment
शुक्रिया आ. महिमा श्री जी
बेहतरीन ग़ज़ल .... आ. नीलेश जी बहुत-2 बधाई आपको..
शुक्रिया आ. धर्मेन्द्र जी
शुक्रिया आ. श्याम जी
शुक्रिया आ. कृष्ण मिश्रा जी
आ० नीलेश जी,
बहुत सुंदर रचना . हार्दिक बधाई.
शुक्रिया आ. डॉ साहब. आप सभी साथियों की प्रतिक्रिया पाकर ग़ज़ल मुकम्मल हो गयी है 
सादर  
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
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