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उम्दा तैराक कभी था तो यकीनन पर सुन

2122   1122   1122   22/112

हुस्न है रब ने तराशा न जुबाँ से कहिये 

आप हैं  बुझते दिए आप जरा चुप रहिये 

आईना देख के बालों की सफेदी देखें 

गाल भी लगते हैं अब आपके पंचर पहिये

 

आप तैराक थे उम्दा ये हकीकत है पर

बाजू कमजोर हवा तेज न उल्टे  बहिये 

इश्क का भूत नहीं सर से है उतरा माना 

पर सही क्या है ये, इस उम्र में खुद ही कहिये ?

लोग जिस मोड़ पे अल्लाह के हो जाते हैं 

आप उस मोड़ पे मत दर्दे…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on May 6, 2015 at 11:00am — 10 Comments

नैतिक बुनियाद (लघुकथा)

"अरे! कमलजी आप यहां 'जाॅब' कर रहे है, सरकारी 'रिटायरमेन्ट' के बाद फिर से।" अरूणजी एक निजी कम्पनी में कमलजी से मिलने पर कुछ हैरत से बोले।

"हाँ भाई। अभी कुछ जिम्मेदारियाँ शेष रह गयी है, पूरी तो करनी ही पड़ेगी ना। कमल जी धीरे से हॅसकर बोले।

"अब कमल बाबु इसमें मे भी दोष आपका ही है, यदि आप हमारे कहे से चले होते है तो आर्थिक बुनियाद का खोखलापन आपको छूता भी नही।" अरूण जी अर्थपूर्ण मुस्कराहट से बोले।

"मेरा ये खोखलापन तो देर सवेर भर ही जायेगा अरूण भाई.....।"

"लेकिन आप जैसे लोगो के… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 6, 2015 at 10:09am — 10 Comments


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ग़ज़ल -- चराग़ किसका जला हुआ है - ( ग़िरिराज भंडारी )

121  22     121  22        121  22   121  22

 

ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है 

सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है

 

कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है

कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है

 

ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर  

दरे ख़ुदा में झुका जो  तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है 

 

हरेक…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 6:30am — 25 Comments

क्यों ?

क्यूँ आज फिर घेर रहे,सन्नाटे मुझे?

क्यूँ उठ रहे बवंडर,यादों के?

क्यूँ ले रहे गिरफ़्त में अपनी?

जिनसे दूर बहुत,निकल आई हूँ मैं,

जिन्हें दबा चुकी ,बहुत गहरा

अरमानों के कब्रिस्तान में,

क्यूँ जकड़ रहे फिर आज?

मानो कि यकीन हूँ ज़िंदा।

हूँ महज़ इक बुत,चलता-फिरता।

बेजान बेज़ार सी ज़िन्दगी हलचल से दूर,

ढो रही हूँ बोझ,जिस्म का,

चुका रही हूँ कर्ज,साँसों का।

क्यूँ दिखाता है खुदा ख्वाब?

कभी जो पूरे हो नही सकते ,

क्यूँ देता है…

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Added by jyotsna Kapil on May 5, 2015 at 10:30pm — 12 Comments


प्रधान संपादक
बुनियाद (लघुकथा)

"कितने शर्म की बात है, हमारे आका लोग दुनिया भर से अरबों खरबों भेज चुके हैं, मगर तुम लोग फिर भी आज तक हिन्दुस्तान के टुकड़े नही कर पाए।"

"हमने हरचन्द कोशिश की, मगर ....."

"मगर क्या ?"

"ये लोग टूटते ही नहीI"

"क्यों नही टूटेंगे ? तुम इनको धर्म के नाम पर क्यों नही तोड़ते?"

"हम कश्मीर और पंजाब समेत कई जगहों पर ये कोशिश पहले ही कर चुके हैं सर।"

"कोशिश कर चुके हो तो कामयाब क्यों नही हुए अब तक?"

"क्योंकि इस देश की बुनियाद नफ़रत पर नही प्रेम पर रखी गई है…

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Added by योगराज प्रभाकर on May 5, 2015 at 10:30pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- बह्र-ए-शिकस्ता में एक प्रयास (मिथिलेश वामनकर)

फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन (बह्र-ए-शिकस्ता)

1121 - 2122 - 1121 - 2122

 

मेरे नाम से न चाहे तू अगर तो मत सदा दे  

मुझे देख के मगर तू, कभी हाथ तो हिला दे…

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Added by मिथिलेश वामनकर on May 5, 2015 at 10:00pm — 25 Comments

मान

सात साल हो गये अत्याचार सहते सहते सोचा था कभी तो मनीष समझेगा उसे कभी तो उसके दिल मे उसके लिए प्यार जागेगा और कभी तो वो राधा को अपनी इस्तमाल की चीज़ के बजाय अपनी जीवन संगनी मानेगा!

पर नहीं अब भी वो वैसा ही था !!!! रोज़ दफ्तर से आकर वहाँ का गुस्सा राधा पर उतारना !आए दिन हर बात पे अपमानित करना गंदी गालियाँ देना !

पर आज तो हद ही हो गयी जब मनीष ने उसके चरित्र पर लांछन लगाया !

तडाक ****** एक ज़ोर का चाटा जडते हुए राधा ने उसका घर छोड़ने का एलान कर दिया।

राधा के जाने पर मनीष को…

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Added by Priya mishra on May 5, 2015 at 9:30pm — 8 Comments

गौमाता का दर्द

गौमाता का दर्द

कल जब देखा मैंने गौमाता की ओर मेरी ऑंखें भर आई

आंसू थे उनकी पलकों के नीचे , जैसे ही वह मेरे पास आई

गुम-सुम सी होकर देख रही थी मेरी ओर

रम्भा कर ही सही "मगर कह रही थी कुछ और"

हे मानव तुम चाहते क्या हो मुझ से ?

क्या संतुष्ट नहीं तुम इतने सुख से ?

धुप-छांव में दिन रात गुजारूं

बिना किसी ईंधन के वाहन की तरह रोज़ मैं चलती हूँ

खाने को जो भी मिले

ख़ुशी ख़ुशी चर लेती हूँ

कचरे की पेटी में पड़ा तुम्हारा झुटा भोजन खा लेती हूँ

घास में न…

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Added by Rohit Dubey "योद्धा " on May 5, 2015 at 9:02pm — 5 Comments

एक प्रयास

भरा विश्व सारा मेरे नयन में ,

गगन का विश्राम है मेरे नयन में .

तिरस्कार सामने है मैत्री की सगाई

करुणा सागर है मेरे नयन में

धनुष मेघ जीवन का है ऐसा रचा

सफल रंग लहराता मेरे नयन में

कर्तव्य वृक्ष है उपवन में उगे

खिले स्नेह पुष्प है मेरे नयन में

बदले थे पथ विभन्न जन्म में

नया एक पथ है मेरे नयन में

न करना न सहेना , रोना न खेलना

मुक्तीकी छाया है मेरे नयन में...................…

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Added by narendrasinh chauhan on May 5, 2015 at 3:00pm — 7 Comments

भटकन – कविता

कभी गलियारे मेँ यादोँ के

कभी बँजारे बन राहोँ पर

न जाने क्या ढूँढते हैँ हम

 

भूलाना था जिसे हमको

वही सब  याद करते हैँ

रेत के भँवर मेँ डूबते हैँ हम

 

कभी मौसम जो भाते थे

और मँजर जो लुभाते थे

उन्हीँ से आज ऊबते हैँ हम

 

न आने वाला है अब कोई

न मनाने वाला है अब कोई

खुद से जाने क्योँ रूठते हैँ हम

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Mohinder Kumar on May 5, 2015 at 3:00pm — 7 Comments

बढ़ते कदम....(लघुकथा)

“सुनो! कितनी अच्छी हो तुम, कितना प्रेम है तुम्हारे पास मेरे लिए. मेरा शादी-सुदा होना भी तुमने अपनी गहराइयों से स्वीकार लिया है. कुछ कहो न!, ऐसा क्या है मुझमे..?”

“ मुझे, तुमसे सब कुछ मिल रहा है जो किसी से शादी के बाद जो मिलता. और मैं तुमसे अपनी मर्जी तक सम्बन्ध बनाये रख सकती हूँ, क्यूंकि तुम शादी-शुदा होने के कारण, समाज अपने परिवार और क़ानून के डर से मुझसे जबरदस्ती नहीं कर सकते. नहीं तो आजकल के बेचलर...तौबा-तौबा “

   जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व्…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on May 5, 2015 at 12:01pm — 19 Comments

दामन

"शाह जी आज़ तीन-चार पूड़े (पुड़िया) वादु (अधिक) देना।" महिन्द्रा दबी आवाज में बोला।

"क्यों ज्यादा किस लिये?" सर्फुल्ला कुछ आशंकित हो गया।

"ओ शाहजी, पिंड दे कोलेज विच वी थोड़े मुन्डे होर सैट किते ने, नशे लई।"(गाँव के काॅलेज में भी कुछ लड़के और तैयार किये है नशे के लिये) महिन्द्रा इधर उधर देखकर बोला।

सर्फुल्ला हॅस कर बोला। "ओ लैजा।लैजा। बस धंधा चालु रख, किसी को छोड़ना नहीं।"

"हाँ शाहजी हाँ। पेला कंडा (पहला कांटा )ही स्टूडेंट युनियन दे प्रधान ते सुट्टया ऐ (फेका है)।" कहता हुआ… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 5, 2015 at 10:32am — 4 Comments

खुद से खफा हूँ......'जान' गोरखपुरी

2212    2212  2212  222

 

खुद से खफा हूँ जिन्दगी मक्तल हुयी जाती है

कोई खता गो आजकल पल पल हुयी जाती है

 

जबसे मुझे उसने छुआ है क्या कहूँ हाले दिल

शहनाई दुनिया धड़कने पायल हुयी जाती है

 

अब जबकि मै मानिन्द सहरा सा होता जाता हूँ

है क्या कयामत ये??जुल्फ वो बादल हुयी जाती है

 

शम्मा जलाकर मेरे दिल का दाग जिसने पारा

स्याही वही अब चश्म का काजल हुयी जाती है

 

सदके ख़ुदा को जाऊ मै क्या खूब रौशन है…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 5, 2015 at 10:30am — 10 Comments

तोहफा

तोहफा

सुबह से घर की सफाई और किचन में जुटी नीना चौंक गई “बाप रे अतुल के आने सिर्फ दो घंटे बचे हैं और मैं भूत जैसी घूम रही हूँ. माँ आप ज़रा गैस बंद कर देना प्लीज मै नहाने जा रही हूँ.”अतुल की पसंद की पीली साड़ी में तैयार होकर आई तो माँ अर्थ पूर्ण ढंग से मुस्कुरा रही थी “वाह जी खाने से लेकर सजावट तक सब अतुल का मनपसंद, अब तो साड़ी भी.” माँ ने कहा तो नीना शरमा गई “क्या बात हुई थी वैसे तेरी? माँ ने उत्सुकता से पूछा. “आवाज़ कट रही थी माँ अतुल की. वो अमेरिका से पिछले ही सप्ताह लौटा है मुझसे मिलने तो… Continue

Added by Seema Singh on May 5, 2015 at 9:41am — 6 Comments

देशराज सिंह के बेटे ( लघु- कथा ) --- डॉo विजय शंकर

देशराज सिंह के चार बेटे हुए , उनमें से तीन के नाम हैं , ज्ञान सिंह, वचन सिंह ,करम सिंह ।

ये तीनों जब से अपने हाथ पाँव के हुए एक दूसरे दूर हो गए।

लोग समझते हैं कि वे एक दूसरे से बिलकुल अंजान हो गए जबकि असलियत यह है कि वे तीनों आपस में एक दूसरे की शक्ल ही नहीं देखना चाहते हैं , कभी-कभार का मिलना जुलना तो बहुत दूर की बात. तीनों एक दूसरे से बिलकुल उल्टी दिशा में चलते हैं।

और चौथा ?

चौथा , विवेक सिंह , वो तो हर समय सोया ही रहता है, कभी जागा हो, किसी ने देखा ही नहीं।…



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Added by Dr. Vijai Shanker on May 5, 2015 at 9:30am — 16 Comments

ग़ज़ल-नूर : आसमां क्या ख़बर नहीं रखता

२१२२/१२१२/२२ (११२)



वह’म है वो नज़र नहीं रखता

आसमां क्या ख़बर नहीं रखता.  

.

वो मकीं सब के दिल में रहता है

आप कहते हैं घर नहीं रखता.

.

है मुअय्यन हर एक काम उसका

कुछ इधर का उधर नहीं रखता.



अपने दर पे बुलाना चाहे अगर

तब खुला कोई दर नहीं रखता.

.

ख़ामुशी अर्श तक पहुँचती है 

लफ्ज़ ऐसा असर नहीं रखता. 

.

तेरी हर साँस साँस मुखबिर है

तू ही ख़ुद पे नज़र नहीं रखता.

.

दिल ही दिल में हमेशा घुटता है…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2015 at 8:30am — 20 Comments

नसरी नज़्म :- तन्क़ीद निगार

तनक़ीद निगार

अच्छा भी,बुरा भी

अच्छा इसलिये कि वो

हमें हमारी ख़ामियाँ बताता है

हमें सही सम्त (दिशा) देता है

लेकिन जब यही तनक़ीद निगार

प्रोफ़ेश्नल,कारोबारी,हो जाता है

तब ये तख़लीक़ के

महासिन नहीं देखता

उस तख़लीक़ में

धड़कता दिल नहीं देखता

उसकी नज़र सिर्फ़ और सिर्फ़

ऐब तलाश करती है

उस तख़लीक़ में

जो शाईर की,कवि की,

लेखक की,मुसन्निफ़ की

अपनी जागीर है

वो इसमें ऐब निकालकर,कीड़े निकालकर

ख़त्म कर देता है

उस महल को जो ख़यालों… Continue

Added by Samar kabeer on May 4, 2015 at 11:12pm — 15 Comments


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अतुकांत -- लौटेंगे कर्म फल आप तक ज़रूर - ( गिरिराज भंडारी )

लौटेंगे कर्म फल आप तक ज़रूर

******************************

बातें हमेशा मुँह से ही बोली जायें तभी समझीं जायें ज़रूरी नहीं

कभी कभी परिस्थितियाँ जियादा मुखर होतीं हैं शब्दों से ,

और ईमानदार भी होतीं हैं

देखा है मैनें

जिसे परिवार में समदर्शी होना चाहिये

उनको छाँटते निमारते ,

अपनों में से भी और अपना  

 

वैसे गलत भी नहीं है ये

अधिकार है आपका , सबका  

देखा जाये तो मेरा भी है

 

तो, छाँटिये बेधड़क , बस ये…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 7:04pm — 16 Comments

आँखों में बेबस मोती है …

आँखों में बेबस मोती है …

रात बहुत लम्बी है

ज़िंदगी बहुत छोटी है

पत्थरों के बिछोने पे

लोरियों की रोटी है

अब वास्ता ही नहीं

हाथों की लकीरों से

भूख बिलखती है पेट में

मुफलिसी साथ सोती है

आते ही मौसम चुनाव का

होठों पे हँसी होती है

राजनीति की जीत हमेशा

हम जैसों से ही होती है

हर चुनाव के भाषण में

नाम हमारा ही होता है

कुर्सी मिलते ही फिर से

फुटपाथ पे तकदीर होती है

संग होते हैं श्वान वही

वही भूखी रात…

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Added by Sushil Sarna on May 4, 2015 at 4:00pm — 14 Comments

खारे पानी में भी मिठास होती है .....

दर्द के दरिया में सब कुछ खारा है

तुम ना जानो ...

क्यूंकि ये दर्द तो हमारा है

वो जो परिंदा इसमें डूबा है

इसे तुमने ही वहां उतारा है !

मगर समंदर के खारे पानी में

मछलियाँ ख़ुशी से तैर रही हैं

एक दूजे से खेल रही हैं

दुखी नज़र नहीं आतीं वो

यहाँ से निकलने का कोई

उतावलापन भी नहीं दिखता उन्हें

और अगले पल की फिक्र भी नहीं !

मैं भी तो मछली बन सकता हूँ

मुठ्ठी ढीली छोड़

ग़मों को आज़ाद कर सकता हूँ

और पकड़ सकता हूँ

कुछ…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 4, 2015 at 9:51am — 12 Comments

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