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आँखों में बेबस मोती है …

आँखों में बेबस मोती है …

रात बहुत लम्बी है

ज़िंदगी बहुत छोटी है

पत्थरों के बिछोने पे

लोरियों की रोटी है

अब वास्ता ही नहीं

हाथों की लकीरों से

भूख बिलखती है पेट में

मुफलिसी साथ सोती है

आते ही मौसम चुनाव का

होठों पे हँसी होती है

राजनीति की जीत हमेशा

हम जैसों से ही होती है

हर चुनाव के भाषण में

नाम हमारा ही होता है

कुर्सी मिलते ही फिर से

फुटपाथ पे तकदीर होती है

संग होते हैं श्वान वही

वही भूखी रात…

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Added by Sushil Sarna on May 4, 2015 at 4:00pm — 14 Comments

खारे पानी में भी मिठास होती है .....

दर्द के दरिया में सब कुछ खारा है

तुम ना जानो ...

क्यूंकि ये दर्द तो हमारा है

वो जो परिंदा इसमें डूबा है

इसे तुमने ही वहां उतारा है !

मगर समंदर के खारे पानी में

मछलियाँ ख़ुशी से तैर रही हैं

एक दूजे से खेल रही हैं

दुखी नज़र नहीं आतीं वो

यहाँ से निकलने का कोई

उतावलापन भी नहीं दिखता उन्हें

और अगले पल की फिक्र भी नहीं !

मैं भी तो मछली बन सकता हूँ

मुठ्ठी ढीली छोड़

ग़मों को आज़ाद कर सकता हूँ

और पकड़ सकता हूँ

कुछ…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 4, 2015 at 9:51am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जानवर होने का नाटक , भूँक भूँक के -- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

जानवर होने का नाटक भूँक भूँक के

**********************************

जंगल में

जानवरों में फँसा हुआ मैं

जानवर ही लगता हूँ , व्यवहार से

पहनी नज़र में

ऐसा व्यवहार सीख लिया है मैनें

जिससे इंसानियत शर्मशार भी न हो

और जानवर भी लग जाऊँ थोड़ा बहुत

लगना ही पड़ता है , अल्पमत में हूँ न ,

 

और काम बाक़ी है , एक बड़ा काम

मुझे तलाश है इंसानों की

जो छुप गये लगते हैं , भय से ,

जानवरों में एकता जो है , बँटे हुये इंसान…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 9:00am — 17 Comments

सत्य.....

सत्य.....

पंच महाभूतों की आस्था

विज्ञान भी मानता- शोध में,

वेद-पुराणों, महाकाव्यों के आधार बिन्दु

जीवन के सेतु-बंध,

उपकृत करते-

क्षित, जल, पावक, गगन व समीर

एक दूसरे के पूरक

महाकाश से घटाकाश तक सर्वत्र व्यापी

तल-वितल, अतल भी

धारण करते पिण्ड स्वरूप.....अखण्ड ब्रह्म,

कण-कण रोमांच से भरपूर

क्षर कर भी सृजन के चंद्र-सूर्य

चक्राकार आवृत्ति के द्विगुण- सघन तम व तेज

विस्तारित करते रहस्य

आकार लेते, आभाष - अनुभव…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 4, 2015 at 8:30am — 14 Comments

सामान

बार बार नुमाईश हुई

पर खरीदारों को सामान पसंद नहीं आया

सामान को काट छाँट कर दिखाया

सजा कर सँवारकर दिखाया

पर.......

फिर भी किसी खरीदार को सामान पसंद नहीं आया

बात कुछ और थी

बाजार सामान के साथ उपहार वाला बन गया है

उपहार भी दिये गए

पर खरीदारों की ज़रूरत पूरी नहीं हुई

सामान नोंचा कुचला गया

निचोड़ा गया और जलाया मिटा दिया गया

और फिर

एक खुदगर्ज ने कवि बनने की चाह में

एक मासूम लड़की को सामान कह… Continue

Added by मनोज अहसास on May 3, 2015 at 10:22pm — 10 Comments

क्या होगा तब

जब करूंगा अंतिम प्रयाण

ढहते हुए भवन को छोडकर

निकलूँगा जब बाहर

किस माध्यम से होकर गुज़रूँगा ?

वहाँ हवा होगी या निर्वात होगा?

होगी गहराई या ऊंचाई में उड़ूँगा

मुझे ऊंचाई से डर लगता है

तैरना भी नहीं आता

क्या यह डर तब भी होगा

मेरा हाथ थामे कोई ले चलेगा

या मैं अकेले ही जाऊंगा

चारो ओर होगा प्रकाश

या अंधेरे ने मुझे घेरा होगा

मुझे अकेलेपन और अंधकार से भी डर लगता है

क्या यह डर तब भी होगा?

भय तो विचारों से होते हैं उत्पन्न

क्या…

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Added by Neeraj Neer on May 3, 2015 at 6:47pm — 12 Comments

शब्दों को नापना नहीं आता

शब्दों को नापना नहीं आता

अक्षर गिनते कतराती हूँ

छोड़ मुझे दौडने लगते

पकडने में गिर जाती हूँ

शब्दों को नापना नहीं आता

अक्षर गिनते कतराती हूँ

तले मन गहन समंदर

तल समंदर में खो जाती हूँ

लहरे मेरी सखी सहचरी

लहरों संग खेल जाती हूँ

शब्दों को नापना नहीं आता

अक्षर गिनते कतराती हूँ

कर जाती हूँ कुछ भी कैसा

चढ जाती हूँ मै मीनार भी

घात बात सह नही पाती

दोहरे लोगों से घबराती हूँ

रोके कितना मुझे जमाना

मन पहाड़ चढ जाती…

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Added by kanta roy on May 3, 2015 at 3:30pm — 20 Comments

वो पेड़ : लघु कथा : हरि प्रकाश दुबे

“बहन रो क्यों रही हो !”

“मेरा बेटा.... कहकर, वह अभागी माँ  और जोर –जोर से रोने लगी !”

“सखी, पहले ये आँसू पोंछ लो,..अब बताओ, हुआ क्या था ?”

“लाख समझाया , पर नहीं माना, गलत लोगों का साथ , पैसे की भूख, वो और उसके दोस्त रोज आरी लेकर निकल जाते और अपने दादा - परदादा से भी पुराने जमाने के पेड़ काटकर बेच आते, अरे कितनी बार कहा था यह प्रकृति हमारी माँ है, ये पेड़ हमारे जीवनदाता  ! “

“ फिर !”

“फिर क्या ..  एक दिन  उन्होंने वो बड़ा सा पेड़ काटा और वो पेड़, मेरे  बेटे पर ही…

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Added by Hari Prakash Dubey on May 3, 2015 at 12:22pm — 7 Comments

सौंदर्य प्रतिभा ज्ञान---डॉo विजय शंकर

सौंदर्य को सजावट ,

आभूषण ,शृंगार चाहिए ,

सादगी को…...क्या चाहिए ,

सादगी,.. वो तो, सबको चाहिए।

वो रोज सज के निकलती

लोग परेशान हो जाते थे ,

इक बार सादगी से निकली

कितने लोग बेहोश हो गए।



पहुँच से पहचान है ,

जिसकी पहचान है

वही प्रतिभावान है , अन्यथा

प्रतिभा को पहचान चाहिए ,

पहचान का एहसान चाहिए ।



ज्ञान को सम्मान चाहिए ,

जहां सब ज्ञानी हो ……… ,

जाने दीजिये, ज्ञान तो स्वयं दाता है |

तो इतना सज संवर के क्यों आता… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on May 3, 2015 at 10:28am — 16 Comments

शब्दों की फरियाद(कविता)

शब्द कुछ मेरे घर फरियाद लेकर आ गये,
भाव लगता गौण,शब्द कोश वाले छा गये।
भावों की लहरें उमड़ा किया करतीं कभी,
अर्थ उनके बाँचते हम कई दफा नहा गये।
बादल नहीं बनाये,जब भर आये तेरे नयन,
हमने तो इतना कहा-घन गगन में छा गये।
या उनके जो खुले केश चाँद पर छाने लगे,
हमने रे इतना कहा-फिर से घन लहरागये
आज हमें ढूँढ-ढूँढ गढ़ रहे सब भाव-रूप,
भावना अचेत पड़ी और हम शरमा गये।
मौलिक व स्वरचित@मनन

Added by Manan Kumar singh on May 3, 2015 at 9:47am — 4 Comments

ग़ज़ल --उमेश-------------पत्थरों के शहर में हुआ हादसा

बन्द कर दो सितम अब खुदा के लिये

जुल्म कितना करोगे अना के लिये



कत्ल करदे मगर यूँ न बदनाम कर

हाथ उठने लगे हैं दुआ के लिये



इस कदर मुफलिसी दे न मेरे खुदा

पास पैसे न हों जब दवा के लिये



चींखती रह गयी बेगुनाही मेरी

है गुनाह भी जरूरी सजा के लिये



बाद जाने के तेरे बचा कुछ नहीं

जी रहा हूँ फ़कत मैं क़जा के लिये



पत्थरों के शहर में हुआ हादसा

मर गया इश्क देखो व़फा के लिये



उमेश कटारा

मौलिक व अप्रकाशित…

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Added by umesh katara on May 3, 2015 at 9:00am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आज शादी की वर्ष गाँठ पर एक लघु कथा आप सबके लिए ....“वेडिंग एनिवर्सरी”

“क्या कहा शाम को छुट्टी दे दूँ ? रूपा क्या कह रही हो तुम्हे अच्छे से पता है  आज हमारी वेडिंग एनिवर्सरी की पार्टी है ऐसे में तुम्हे छुट्टी ? चुपचाप शाम को तुम दोनों ढंग के कपड़े पहन के आना बहुत  लोग आयेंगे, दीपू बाहर सर्व करने में हाथ बटाएगा” सोनिया थोड़ा गुस्से से बोली|

“वो क्या है न मेमसाब जी,आज हमे पिक्चर जाना था आज हम दोनों की भी” ...रूपा ने बीच में ही दीपू के मुख पर हाथ धर दिया और बात काट कर बोली “जी मेमसाब हम आ जायेंगे”|

उसकी आँखों में झिलमिलाये आँसू मेमसाहब और दीपू से छुपे…

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Added by rajesh kumari on May 3, 2015 at 8:21am — 32 Comments

तुमको पत्थर में नहीं मूरत दिखाई दे रही

२१२२       २१२२         २१२२       २१२२

तुमको पत्थर में नहीं मूरत दिखाई दे रही है 

नदियों की कल कल न बांधों में सुनायी दे रही है 

कोई भी इल्जाम मैंने तो लगाया था नहीं फिर 

वो हंसी गुल जाने क्यूँ इतनी सफाई दे रही है 

चीख बस बच्चों कि ही तुमको सुनायी देती है क्यूँ 

ये न देखा लाडले को माँ दवाई दे रही है 

एक रोटी के लिए तरसा दिया उस माँ को तुमने

जो गृहस्ती ज़िंदगी भर की बनायी दे रही है 

काम दुनिया में…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on May 2, 2015 at 10:30pm — 14 Comments

इस्लाह हेतु ..बड़ी बहर पे एक ग़ज़ल

२१२/ २१२/ २१२/ २१२// २१२/ २१२/ २१२/ २१२  

हर तरफ भागती दौडती ज़िन्दगी बेसबब घूमती इक घड़ी की तरह

हमसफ़र है वही और राहें वही, मंज़िले हैं मगर अजनबी की तरह. 

.

आज के बीज से उगते कल के लिए मुझ को जाना पड़ेगा तुम्हे छोड़कर

तुम भी गुमसुम सी हो मैं भी ख़ामोश हूँ लम्हा लम्हा लगे है सदी की तरह

.

श्याम की संगिनी बाँसुरी ही रही, प्रीत की रीत भी आज तक है यही

कर्म की राह ने प्रेम को तज दिया, राधिका रह गयी बावरी की तरह.

.     

ये अलग बात है उनसे बिछड़े हुए…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 10:00pm — 36 Comments

ग़ज़ल : अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है

गरीबी ही सदा हमको कलेजे से लगाती है

 

भरा हो पेट जिसका ठूँस कर उसको खिलाती पर

जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है

 

अमीरी का दिवाला भर निकलता है सदा लेकिन

गरीबी कर्ज़ से लड़ने में जान अपनी गँवाती है

 

अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा

गरीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है

 

ये दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं इसलिए…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 2, 2015 at 4:13pm — 18 Comments

प्यास ( लघुकथा )

उस तंग कमरे में ,सालों से बीमार चल रहा हरिया रोज मृत्यु की कामना किया करता था I पड़ा पड़ा कभी बहू कभी बेटा ,नाती पोतों को मिलने की गुहार लगाता रहता I उसके जर्जर ,क्षीण होती काया सबके लिए दुखदायी होती जा रही थी ,स्वयं उसके लिए भी I आखिर कार मृत्यु को उस पर दया आ ही गयी ,आ गयी उसको एक दिन लिवा जाने !! लेकिन यह क्या ? दिन रात मृत्यु की कामना करने वाला हरिया ,साक्षात उसे सामने देख गिड़गिड़ाया -" तनिक छोटका बिटवा को देख लेने दियो ,फिर चलत हैं " I 

मृत्यु भी मुस्कुरा पड़ी पल भर को -' सच !! जीवन…

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Added by meena pandey on May 2, 2015 at 3:00pm — 11 Comments

फैसला

अब फैसला आखिर मे सारी बात का मिला

दिन की थकन के बाद सफ़र रात का मिला



घर से यूँ लौट आता हु मैं दो दिनों के बाद

कैदी को जैसे वक़्त मुलाकात का मिला



मालिक तू है कहाँ मेरी आँखे तरस गयी

लेकिन पता न मुझको मेरी जात का मिला



आयी सुबह ज़रूर मगर बादलो के साथ

अंजाम ये बरसो से लंबी रात का मिला



इस बात का नहीं मुझे कुछ भी पता चला

क्यों जीत में ये रँग हमे मात का मिला



फिर आज मैंने खुद को सताया है देर तक

एक शख़्श मुझको मेरी औकात का… Continue

Added by मनोज अहसास on May 2, 2015 at 2:00pm — 10 Comments

गज़ल..........'जान' गोरखपुरी

२ १ २ २

 

इश्क क्या है?

इक दुआ है

 

दिल इबादत

कर रहा है

 

अपना अपना

कायदा है

 

पत्थरों में

भी खुदा है

 

कौन किसका

हो सका है

 

नाम की ही

सब वफा है

 

बस मुहब्बत

आसरा है

 

बिन पिये दिल

झूमता है

 

आँख उसकी

मैकदा है

 

फूल कोई

खिल रहा है

 

कातिलाना

हर अदा…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 2, 2015 at 11:30am — 39 Comments

ग़ज़ल :- ज़िन्दगी जोड़ने घटाने में

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान



ज़िन्दगी जोड़ने घटाने में

आगए मौत के दहाने में



सब ही सुनते हैं शौक़ से उसको

ज़िक्र तेरा हो जिस फ़साने में



गालियाँ खाके भी निगलते रहे

हीरे मोती थे उसके खाने में



उसकी आँखो का वो फ़ुसूं,तौबा

आगए हम भी वरग़लाने में



ये उसी नस्ल के तो हैं,जिनका

नाम है हड्डियाँ चबाने में



जैसे हो वैसे क्यूँ नहीं दिखते

मसलहत क्या है मुस्कुराने में



आप ईमान लाए हो भाई

फिर भी तकरार… Continue

Added by Samar kabeer on May 2, 2015 at 10:31am — 24 Comments

टी वी पर बहस -- डॉo विजय शंकर

जैसा कि अक्सर हो जाता है , एक अज्ञानी महानुभाव ने घोर अज्ञानी वक्तव्य देकर माहौल में सनसनी फैला दी , टी वी पर तमाम विद्वान उस पर जोरदार बसह में उलझे हुए थे। दो मित्र टी वी देख कर खीझ रहे थे।
एक बोला , " चैनल बदलो।इस बहस ने तो बोर कर दिया। यार ये इतने बड़े बड़े विद्वान एक मूर्ख की बातों पर इतनी बहस क्यों करते हैं ? "
दूसरा बोला , " क्योंकि मूर्ख कुछ कह तो देते हैं , विद्वान तो कुछ कह ही नहीं पाते , इसलिए बस बहस ही कर लेते हैं ,"

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on May 2, 2015 at 10:09am — 20 Comments

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