Added by विनोद खनगवाल on May 9, 2015 at 8:29pm — 16 Comments
लड़का रोज शाम को कानो में लीड लगाकर सड़क के बीचो बीच बने पार्क में वाकिंग करने पहुंच जाता.! और वो बुजुर्ग दम्पति भी रोज शाम को पार्क के बीचो बीच बने बेन्च पे बैठकर घंटो खेलते हुए बच्चो को एक टक निहारते.! कभी -कभी प्यार से बच्चो को पुचकार भी देते तो कभी थपकियाँ देने के बहाने सहला भर लेते.! ऐसा करके उन्हें एक अलग सा सुकून मिलता था ! लड़का भी पार्क के एक कोने में बैठकर हर पल उन बूढी आँखों में एक ख़ुशी की चमक देख खुश भर हो जाता..! हर रोज वो लड़का सोचता आज मै इनसे बात करुगा, पर किस बारे में उनसे मेरा…
ContinueAdded by Jitendra Upadhyay on May 9, 2015 at 4:00pm — 7 Comments
अपेक्षा का दीप
मैंने अपनी अपेक्षा का दीप जलाया घर में
बुझे दीप न तेज हवा से सुरक्षा बाढ़ लगाया।
लक्ष्य को छूने का दृढ़ संकल्प लिया मन में
त्याग और बलिदान से प्रेरित मंत्र अपनाया ।
छल,कपट,ईर्ष्या कभी टिके नहीं अंतस्थल में
नैतिक मूल्यों के संस्कार का आवृत्त बनाया ।
मैंने अपनी अपेक्षा का दीप जलाया घर में
दया धर्म सद्भाव बढ़े आज सभी के जीवन में
अपेक्षा की आस लिए मैंने एक दीप जलाया।
स्नेह का तेल भरा ज्योति ज्ञान की जीवन में
मन में धीरज…
Added by Ram Ashery on May 9, 2015 at 9:56am — 4 Comments
2122 2122 2122
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मर्ज बढ़ता जा रहा अब क्या रखा है
बेअसर होती दवा अब क्या रखा है
ढ़ूँढ ले अब हम सफर कोई नया तू
मुस्करादे कब कज़ा अब क्या रखा है
रच रहे हम साजिशें इक दूसरे को
साथ चलने में बता अब क्या रखा है
साथ आना जाना भी क्यों महफिलों में
बन्द कर ये सिलसिला अब क्या रखा है
शहर पूरा है, मगर आया नहीं तू
बिन मिले ही मैं चला अब क्या रखा है
उमेश कटारा
मौलिक व…
Added by umesh katara on May 9, 2015 at 9:52am — 13 Comments
जब बातों में आ जाता हूँ।
तब मैं धोखा खा जाता हूँ,
तू नैनों में बसती हरदम,
तेरी पलकें छा जाता हूँ।
मेरी जां तू कह देती है,
तुझपे जां लु'टा जाता हूँ।
बज़मे-बेदिल से मैं भी तो,
देखो अब रुठा जाता हूँ।
तुझको सहरा फरमाते लेे
फिर मैं अब बु'झा जाता हूँ।
दीया जलने दे जानेमन,
शब तेरी अब उ'ड़ा जाता हूँ।
जल-जल कर जलता दीया हूँ,
तम पी हर दिश छा जाता हूँ।…
Added by Manan Kumar singh on May 8, 2015 at 11:00pm — 10 Comments
दृढ़ता में
भूखे श्रमिकों के श्रम रखते
विकास की नींव
सफलता के केतु आकाश को ढक देते
धरा से गगन को चूमती अट्टालिकाएं उकेरतीं,
झुग्गियों का दर्द
आलसी, धुंध चढ़ जाता ऊपरी मंजिल तक
धूल में लिपटे श्रमिक झाड़ देते
लोभ, इच्छा और आवश्यकताएं भी
श्रम, अटल सत्य-
तनिक भी अपेक्षा नहीं रखती।
टेढ़ी-मेढ़ी सकरी पगड-िण्डयां
स्वयं राजपथ होने का दंभ भरतीं
हुंकारती, अहं के आकार-प्रकार
बहुआयामी अपेक्षाएं- लक्ष्य से कोसों आगे,
दूर की सोच सदैव…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 8, 2015 at 9:25pm — 11 Comments
‘जी अब तो पेन्शन की अर्जी पास हो जाएगी ना ?’
अपने कपड़ों को ठीक करते हुए कमरे से बाहर निकलती हुई शहीद फौजी की विधवा ने मंत्री जी के पी.ए. से पूछा
‘अब तो काम हुआ ही समझो ! बस यह अर्जी कल एक बार डाॅयरेक्टर साहिब के पास भी ले जानी होगी'।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on May 8, 2015 at 11:00am — 19 Comments
Added by Ravi Prakash on May 8, 2015 at 7:01am — 14 Comments
Added by Priya mishra on May 7, 2015 at 10:06pm — 7 Comments
उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी लोग उसे बाँझ कहते थे ! उसने (बाँझ) दरवाजे में कुण्डी लगाया ही था, की तभी किसी बच्चे की रोने की आवाज सुन वो वही ठिठक भर गयी ! दरवाजे की कुण्डी खोल हाथ में लालटेन लिए वो आवाज के दिशा में चल पड़ी ! थोड़ी दूर पहुंची ही थी की अचानक सामने का दृश्य देख चौक पड़ी, छोटे से कपडे में लिपटा वो बच्चा भूख से बुरी तरह बिलबिला रहा था ! उसने बच्चे को उठा कर सीने से लगा लिया,बच्चा ममतामयी स्पर्श पा शांत होकर सो गया ! सुबह लोगो ने उसके झोपडी से बच्चे की आवाज सुनी सुनकर सब चौक गए ! सच से…
ContinueAdded by Jitendra Upadhyay on May 7, 2015 at 4:58pm — 9 Comments
गर्व से सर उठाये
पर्वत की शिखरोँ को
सूर्य की किरण, सर्वप्रथम
व अंतिम किरण, अंत तक
निज दिन चूमती है
परंतु चकित हूँ
यह फिर भी हरित नहीँ होती
हरित होती हैँ घाटियाँ
जीवन वहीँ विचरता है
किँचित यह ओट देने का श्राप है
अथवा दमन का प्रतिशोध
कि जल की एक बूँद नहीँ ठहरती यहाँ
जल स्त्रोत इसी गोद मेँ जन्म ले
पलायन कर जाते हैँ
हवा की सनसनाहट
बादलोँ की गडगडाहट
के अतिरिक्त कोई स्वर नहीँ…
ContinueAdded by Mohinder Kumar on May 7, 2015 at 3:45pm — 3 Comments
Added by मनोज अहसास on May 7, 2015 at 3:36pm — 5 Comments
1212 1122 1212 22 /112
चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या
या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या
वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं
किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या
असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक
वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या
हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा
ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या
मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है
मुझे न पूछ थे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 7, 2015 at 9:16am — 31 Comments
पग पग तेरा मान करूँ
अपमान मेरा मत कर तू भी
एक दिन तो सबको मरना है
अभिमान जरा मत कर तू भी
जीवन की आँख मिचौली में
ठहरूँ पल भर मैं पलक तले
क्या है भरोसा कल सुबह तक
कौन बचे और कौन जले
कौन मिलेगा बीच सफर में
साथ मेरे ही चलता जा
आयू भी आधी निकल गयी
हाथ मले तो मलता जा
इक दूजे को देते रहें है
जाने क्यों हम गम दोनों
रेल की पटरी जैसे चलती
साथ चले हैं हम दोनों
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by umesh katara on May 7, 2015 at 7:20am — 8 Comments
Added by shashi bansal goyal on May 6, 2015 at 8:00pm — 18 Comments
मध्य अपने जम गयी क्यों बर्फ़.. गलनी चाहिये
कुछ सुनूँ मैं, कुछ सुनो तुम, बात चलनी चाहिये
खींचता है ये ज़माना यदि लकीरें हर तरफ
फूल वाली क्यारियों में वो बदलनी चाहिये
ध्यान की अवधारणा है, ’वृत्तियों में संतुलन’
उस प्रखरतम मौन पल की सोच फलनी…
Added by Saurabh Pandey on May 6, 2015 at 6:30pm — 40 Comments
2122 2122 2122
शम्स तो है वो मगर डूबा हुआ है
रौशनी से बेख़बर डूबा हुआ है
अपने होने का उसे अहसास तो हो
क्यों ग़मों में इस कदर डूबा हुआ है
क्या अँधेरा मेरी नज़रों में है मौजूद
या अँधेरे में ये घर डूबा हुआ है
रौशनी के सिर्फ इक ज़र्रे के दम पर
ठण्ड से वो बेअसर डूबा हुआ है
इस जुनूने इश्क़ का होगा समर* क्या *नतीजा
सोच में कोई इधर डूबा हुआ है
फिर गुजश्ता…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 6, 2015 at 5:00pm — 18 Comments
(१)
तुम्हारा शरीर
रेशमी ऊन से बुना हुआ
सबसे मुलायम स्वेटर है
मेरा प्यार उस सिरे की तलाश है
जिसे पकड़कर खींचने पर
तुम्हारा शरीर धीरे धीरे अस्तित्वहीन हो जाएगा
और मिल सकेंगे हमारे प्राण
(२)
तुम्हारे होंठ
ओलों की तरह गिरते हैं मेरे बदन पर
जहाँ जहाँ छूते हैं
ठंडक और दर्द का अहसास एक साथ होता है
फिर तुम्हारे प्यार की…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 6, 2015 at 4:00pm — 10 Comments
२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२
.दिल में गर तूफां उठे तो मुस्कुराना है कठिन
याद करना है सरल पर भूल जाना है कठिन.
.
यादों के झौंके पे झूले झूलना कुछ और है,
यादों के अंधड़ को लेकिन रोक पाना है कठिन.
.
हिचकियाँ आई यूँ ही होंगी तुझे नादान दिल!
भूलने वालों को तेरी याद आना है कठिन.
.
आड़ दो हाथों की पाकर सर उठा लेती है लौ,
हाँ खुली छत पर दीये का जगमगाना है कठिन.
.
कैसे कैसे लोग अब बसने लगे हैं शह्र में
अब लगे है यां भी अपना…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2015 at 4:00pm — 22 Comments
Added by मनोज अहसास on May 6, 2015 at 3:21pm — 10 Comments
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