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तरही ग़ज़ल

तरही ग़ज़ल   

2122  1122  1122 22   

ये तबाही भरे मंजर नहीं देखे जाते

आँखों में गम के समंदर नहीं देखे जाते

फलसफा इश्क का मैं आज तुम्हे समझा दूं

इश्क में रहजन-ओ –रहवर नहीं देखे जाते

एक मुफलिस की ग़ज़ल सुनके बज्म झूम उठी

रुतवे महफ़िल में सुखनवर नहीं देखे जाते

इक सदी होने को आयी हमें आज़ाद हुए

मुझसे  हैं लोग जो बेघर नहीं देखे जाते

रिंद गर सच्चा तू होता तो खुद समझ लेता

खाली क्यूँ मुझसे ये सागर नहीं देखे जाते

खेलती थी…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on July 1, 2015 at 4:44pm — 18 Comments

गजल- दिलबर का दीदार जिन्दगी

२२ २२ २२ २२



कहीं पे' ठण्डी' बयार जिन्दगी ।

कहीं लगे अंगार जिन्दगी ।।



पतझड और बहार जिन्दगी ।

सुख दुख का व्यापार जिन्दगी ।।



जाने कितने रंग से' खेलें।

होली का त्यौहार जिन्दगी ।।



नानी माँ की गोद में' है तो।

इमली,आम,अचार जिन्दगी ।।



इश्क के' मारों से जो पूछा।

दिलबर का दीदार जिन्दगी ।।



उनके होंटों के साहिल पर।

फूलों सी रसदार जिन्दगी ।।



कौन समझ पाया है इसको।

उलझन का संसार जिन्दगी ।।…

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Added by Rahul Dangi Panchal on July 1, 2015 at 2:00pm — 18 Comments

मेरी ज़िन्दगी के हसीन पल____Manoj kumar ahsaas

सुबह आयी

तेरे इंतज़ार की खुशबू लेकर

फिर तमाम दिन मुझे तेरा इंतज़ार रहा

शाम आयी

तेरे ना आने की मायूसी लेकर

फिर तमाम रात अंधेरो मे ढूढ़ा है तुझे

और बांधी है उम्मीद अगली सुबह से

मेरी ज़िन्दगी के हसीन पल

तू कहाँ था?

आज आया है

तो मेरी आँखों में चमक ही नहीं

बुझ गया है तेरा इंतज़ार

जला कर खुद को

तुझको पाने को लगाया था खुद को दाँव पर

ऐसा लगता है

तुझ को पाया है खोकर खुद को

मेरी ज़िन्दगी के हसीन पल

तू कहाँ था?

साथ लेकर… Continue

Added by मनोज अहसास on July 1, 2015 at 1:45pm — 13 Comments

विश्वास की ख़ामोशी (लघु कथा)

समुद्र में मिलती नदी ने समुद्र से कहा, "बहुत खुश हूँ आज, सीमित असीम में समा रही है, कोई सीमा का बंधन नहीं..."

समुद्र चुप रहा|

उस चुप्पी को देख तट और तलहटी दोनों मुस्कुरा उठे|

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 1, 2015 at 12:30pm — 12 Comments

वफ़ा ढूंढा करोगे लोगों में ( © परी ऍम. 'श्लोक' )

१ २ २ २ १ २ १ २ २ २
पुकारा तुम करोगे लोगों में
मुझे ना पा सकोगे लोगों में

चले जायेंगे जां तेरी लेकर
बने बुत से जियोगे लोगों में

कटेगा भी नहीं सफ़र तन्हा
बेहिस चलते रहोगे लोगों में

मेरे जाने के बाद मुद्दत तक
मेरा रास्ता तकोगे लोगों में

मिलेगी फिर नहीं कभी जानाँ
वफ़ा ढूंढा करोगे लोगों में

© परी ऍम. 'श्लोक'

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Pari M Shlok on July 1, 2015 at 12:16pm — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आरती उतारूँ क्या?(छोटी बह्र की ग़ज़ल 'राज')

२१२ १२२ २

गली गली बुहारूँ क्या?

नालियाँ निथारूँ क्या ?

काम छोड़ कर अब मैं 

रास्ता निहारूँ क्या?

 

आसमां से उतरे हो  

आरती उतारूँ क्या?

 

धूल लग गई शायद

पाँव  भी पखारूँ क्या?

 

देखना है  चेह्रा  अब     

आईना सँवारूँ क्या?

 

लाए कुछ नए जुमले   

शब्द मैं सुधारूँ क्या? 

 

धूप लग रही क्या जी

अब्र को पुकारूँ क्या?

 

वोट मांगने आये 

पांच…

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Added by rajesh kumari on July 1, 2015 at 12:00pm — 27 Comments

बन्धन (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

“दोनो पैरों के अँगूठों में बन्धी रस्सी भी खोल दो, चिता पर कोई भी गाँठ या बन्धन नहीं होता..”
“चिता पर सारे बन्धन खत्म हो जाते हैं” - किसी और ने कहा.

सुनते ही राकेश पत्नी प्रिया और उसके बीच के सबसे बडे़ बन्धन एक साल के बेटे को अपने सीने से लगाये प्रिया के निर्जीव शरीर को चुपचाप देखता हुआ फिर से फ़फ़क पड़ा.
*************************
(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on July 1, 2015 at 12:00am — 22 Comments

ग़ज़ल : रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

 

जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है

रूह भी इन पर्वतों की दूध जैसी है

 

पर्वतों से मिल यकीं होने लगा मुझको

हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है

 

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें

पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है

 

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में

यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है

 

तेज़ चलने की बिमारी हो तो मत आना

वक्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 29, 2015 at 6:24pm — 26 Comments

ग़ज़ल : हमारा प्यार आँखों से अयाँ हो जायगा एक दिन

हमारा  प्यार आँखों से अयाँ हो जाएगा इक  दिन 

छुपाना लाख चाहोगे बयाँ हो जाएगा इक दिन 

ये सब वहशत-ज़दा रातें इसी उम्मीद में गुज़रीं 

कि तुम आओगे , रौशन ये  समां हो जाएगा इक दिन 

न टूटे दिल  , न तन्हा रात , न भीगी  हुई पलकें 

मगर सब छीन कर बचपन,जवां हो जाएगा इक दिन 

तुम्हारे सुर्ख होठों की महक में ऐसा जादू है 

कि भवरों को भी फूलों का गुमाँ हो जाएगा इक दिन 

लिखो बस  गीत उल्फ़त के और नग्मे प्यार के…

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Added by saalim sheikh on June 29, 2015 at 11:30am — 19 Comments

राय बहादुर : लघु कथा

“मेरे ग्रैंड फादर राय बहादुर थे” ..... उस व्यक्ति ने बुद्धिजीवियों की सभा में अकड़ के साथ यह बात कही ।   सभा के आयोजक ने भी गर्व से अपना सर ऊंचा कर लिया । वहाँ  उपस्थित लोग जो उस व्यक्ति को मिल रहे विशेष सम्मान, तवज्जो , उसके समृद्ध पहनावे एवं उसकी मंहगी गाड़ी से पहले ही नतमस्तक हो रहे थे, यह सुनकर थोड़े  और विनीत भाव दिखलाने लगे। उसे मंच पर सबसे ऊंची कुर्सी दी गयी । सब उसके साथ एक फोटो खिचवा लेना चाहते थे । महेश सभा में सबसे पीछे की कुर्सी पर उपेक्षित सा बैठा अपने मलिन कपड़ों को देख रहा था।  वह…

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Added by Neeraj Neer on June 28, 2015 at 6:25pm — 22 Comments

लघुकथा- आग

लघुकथा- आग

बरसते पानी में काम को तलाशती हरिया की पत्नी गोरी को बंगले में कुत्ते को बिस्कुट खाते हुए देख कर कुछ आश जगी, ‘ यहाँ काम मिल सकता है या खाने को कुछ. इस से दो दिन से भूखे पति-पत्नी की पेट की आग बुझ  सकती थी.’

“ क्या चाहिए ?”

“ मालिक , कोई काम हो बताइए ?”

“ अच्छा ! कुछ भी करेगी ?” संगमरमरी गठीले बदन पर फिसलती हुई चंचल निगाहें उस के शरीर के रोमरोम को चीर रही थी.

“ जी !! ” वह धम्म से बैठ गई. उसे आज महसूस हुआ कि बिना तन की आग बुझाए पेट की आग नहीं बुझ…

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Added by Omprakash Kshatriya on June 28, 2015 at 1:30pm — 18 Comments

प्राणि शिरोमणि

 

पढाया गया था-

‘मैन इज ए सोशल एनिमल’

हमने भी रट लिया

औरों की तरह

पर मन नहीं माना

कहाँ पशु और कहाँ हम

पर एक दिन जाना

पक्षी और पशु

दोनों ही बेहतर है

हम जैसे मानव से

क्योंकि 

भूख सबको लगती है 

पर पक्षी

न घुटने टेकता है

और न हाथ फैलाता है

रोता भी नहीं

गिडगिडाता भी नहीं  

हाथ तो मित्र

पशु भी नहीं फैलाते  

बल्कि वे…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2015 at 1:13pm — 9 Comments

अंधी आस्था का फायदा (लघुकथा)

"सर, हमारे अमरूदों के बाग़ में कुछ लोग रोज़ शाम को शराब पीते हैं साथ में जुआ भी..."
"एफ.आई.आर. करवा दो|"
"कोई फायदा नहीं सर, उसमें कुछ पुलिस वाले भी हैं..."
"तो फिर ये मूर्ती ले जाओ, शराब की बदबू अगरबत्ती और फूलों की खुश्बू में बदल जायेगी|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 28, 2015 at 12:37pm — 9 Comments

ग़ज़ल-नूर- फिर वो मीरा, राबिया दे जाएगा.

२१२२/२१२२/२१२/

मंज़िलों का जो पता दे जाएगा

ज़िंदगी का फ़लसफ़ा दे जाएगा.

.

और थोड़ा फ़ासला दे जाएगा

ज़िंदगी की गर दुआ दे जाएगा.

.

दिल को सतरंगी छटा दे जाएगा

फिर धड़कने की अदा दे जाएगा.

.

ग़म हमें अब और क्या दे जाएगा

बस नया इक तज्रिबा दे जाएगा.

.

आएगा कोई पयम्बर फ़िर नया

फ़िर नया हम को ख़ुदा दे जाएगा.

.

जब वो सोचेगा हमारे वास्ते

फिर वो मीरा, राबिया दे जाएगा.

.    

“नूर” बरसेगा ख़ुदा का एक दिन

मुश्किलों…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on June 28, 2015 at 10:54am — 31 Comments

"थकी हुयी सी जिन्दगी"

थकी हुयी सी जिन्दगी,

थका हुआ मुकाम है।

कौन सी जगह है ये,

हर कोई परेशान है।।

सुबह की धूप शाम है,

शाम रात सी घनी।

हवा मे क्या ये घुल रहा,

फिज़ा जहर सी बनी।

कहाँ आ गये है हम,

हर कोई हैरान है।।

अजनबी है हर कोई,

अजनबी है ये जहाँ।

मोबाईल वैब से जुडे,

दिलो के फासले यहाँ।

हर किसी का नाम है,

पर हर कोई बेनाम है।।

थकी हुयी सी जिन्दगी,

थका हुआ मुकाम है।

कौन सी जगह है ये,

हर कोई परेशान है।।



'विरेन्दर… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on June 28, 2015 at 9:22am — 13 Comments

माचिस की तीली की आत्मकथा ( लघुकथा )

सिरा है मेरा काला ,

तन है मेरा सफ़ेद |

मोल नहीं कुछ मेरा ,

करूँ अगर रंगों में मेरे भेद |

कोई ना जाने मोल मेरा,

गर रहूँ मैं डिब्बे में बंद |

बाहर निकल कर रगड़ जो खाऊं ,

तब बनु मैं ज्योत अखंड |

रहती हूँ अपनी सहेलियों के सांथ,

काम आती रहेंगी जो आपके ,

मेरे जाने के भी बाद |

लौ के रूप में उत्साह के सांथ हम बाँट लेती हैं एक दूजे का दर्द /``\ /``\

त्योहारों में दिया जलाकर खुशियां भी लाती हूँ |

बीड़ी-सिगरेट को जला कर धूम्रपान भी फैलाती…

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Added by Rohit Dubey "योद्धा " on June 27, 2015 at 7:59pm — 7 Comments

प्‍यार धरती की

बिछा मेरा जमीं पे दिल कदम अपने बढ़ाती है

मुझे ही प्‍यार करती है कसम भी रोज खाती है



न कोई प्‍यार अब लिखना, किताबो से मिटा देना

वफा कैसे करें पढ कर जला वो दिल दिखाती है



जुदाई चीज है ऐसी कही खुशियाँ कही दे गम

जुदा नभ से हो बूँदे प्यास धरती की मिटाती है



खिलो मत एे कमल अब तुम, तुझे देखे न अब दुनिया।

तुम्‍हारा नाम ले जिसको, पुकारू वो सताती है।।



छुपा लो चाँद को बादल, न है अब रौशनी प्यारी

उजाला देख कर मुझको, किसी की याद आती है



किसे…

Continue

Added by Akhand Gahmari on June 27, 2015 at 5:05pm — 5 Comments

गजल-मेरा मन मेरे सामने आइना है

मेरा मन मेरे सामने आइना है
मेरा आज खुद से हुआ सामना है
तुम्हारे मिलन में मुझे फैलना है
मगर किसलिये आज मन अनमना है
तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी है
खुशी से खुशी को हमें बाँटना है
महब्बत पनपती नहीं जकडनों में
ये रस्मों का जंगल हमें तोड़ना है
तुम्हारी महब्बत भी मंजिल थी लेकिन
अभी जिंदगी है अभी दौड़ना है

मौलिक व अप्रकाशित

Added by सूबे सिंह सुजान on June 27, 2015 at 2:12pm — 6 Comments

एक प्रयास आस्तित्व के लिए ( लघुकथा ) कान्ता राॅय

एक प्रयास आस्तित्व के लिए (लघुकथा )





भूमि उर्वरक थी । महत्वाकांक्षी थी, स्वंय के सर्वोच्च उत्पादन हेतु । वो ...... जिसके मालिकाना हक में बंधी हुई थी .... उदासीन निकला था ....भूमि के प्रति । जिसके परिणाम स्वरूप बंजर के उपनाम से उद्घोषित होने लगी थी ।



वह सृजन के लिए बेताब हो खरपतवार का ही पोषण करती गई । क्यों ना करें ..? सार्थक बीजों से मोहताज जो थी !

वह सृजन की अभिलाषी , अपना अभिलाषा चाहे कैसे भी पूरा करे ..!



राह चलते अब लोगों की नजर उस बड़ी बड़ी… Continue

Added by kanta roy on June 27, 2015 at 10:56am — 4 Comments

उड़ान : लघु कथा- हरि प्रकाश दुबे

“सुनंदा .सुनंदा, सुन तो सही, इतनी उदास क्यों है?”

“कुछ नहीं माँ बस सर में थोडा दर्द है !”

“अच्छा ठीक है तू नहा कर आ मैं तेरे सर की मालिश कर देती हूँ !”

“तुम भी न माँ हर बात के पीछे ही पड़ जाती हो .... सुनंदा ने चिल्लाते हुए कहा !”

“तेरी रगों में मेरा ही खून दौड़ रहा है सुनंदा, मैं सब समझ रहीं हूँ, तूने अपने पिता की म्रत्यु के बाद उनके दवाई बनाने के कारखाने को इतने अच्छे से संभाला, कभी भी तूने मुझे उनकी कमी महसूस नहीं होने दी, आज अगर वो जिन्दा होते तो भी क्या तू ऐसे…

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Added by Hari Prakash Dubey on June 27, 2015 at 9:07am — 6 Comments

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