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लघुकथा - मज़हब –

लघुकथा - मज़हब –

"मेरी राय में ,हमें  उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने  से पहले पुनः विचार करना चाहिए"!

"यार तू बार बार ऐसी शंका ले कर क्यों बैठ जाता है"!

"देख भाई , वो लोग पांच बडे शहरों में पांच ज़गह बम्ब रखवाना चाहते हैं, और वो ज़गह हैं , स्कूल,अस्पताल,रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और सिनेमा घर"!

"और बदले में हमें दैंगे दस करोड, हम पांचों को दो दो करोड मिलेंगे,समझा"!

"पर यार इन सब ज़गहों पर अपने मज़हब के लोग भी तो होते हैं"!

"अरे यार ये क्या मज़हब की रट लगा रखी है, क्या दिया है मज़हब ने ,दो वक्त की रोटी तो मिल नहीं पाती,अब हमारा मज़हब है सिर्फ़ पैसा"!

 सारी शंका लालच की भट्टी में जा चुकी थी.

 मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on August 2, 2015 at 9:57pm

आदरणीय मिथिलेश जी ,हार्दिक आभार, आपके बहुमूल्य सुझॉव के लिए!

Comment by TEJ VEER SINGH on August 1, 2015 at 5:56pm

आदरणीय विनय जी, हार्दिक आभार,आपने मेरी लघुकथा के लिये समय निकाला ,उसे पसंद किया,सराहना की !पुनः आभार!

Comment by विनय कुमार on August 1, 2015 at 4:54pm

इस अर्थवादी युग में सबसे बड़ा मज़हब तो पैसा ही है और इस तथ्य को बखूबी परिभाषित करती लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय तेज वीर सिंह जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 1, 2015 at 4:16pm

आप उपस्थित है तो निवेदन कर रहा हूँ - एक पंचलाइन की बनती है, यथा -

उसके चेहरे से आशंका के बादल छटने लगे थे/ छट चुके थे.

या 

आखिर इस बार भी आशंका दूर करने में सफल रहा.

या 

सारी शंका लालच की भट्टी में जा चुकी थी.

या 

अब शंका, तसल्ली में बदल चुकी थी.

Comment by TEJ VEER SINGH on August 1, 2015 at 4:05pm

आदरणीय मिथिलेश जी, आप जैसे गुणी जनों से लघुकथा की प्रशंसा सुन कर मन को राहत मिलती है, सारी मेहनत सफ़ल हो जाती है!हार्दिक आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 1, 2015 at 3:57pm

आदरणीय तेजवीर जी आतंकवाद की वास्तविकता को उद्घाटित कर,तीखा प्रहार करती बढ़िया लघुकथा हुई है. हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर.

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