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गजल
2212 2212
हर बार मजहब मत उठा,
नाचीज अब भौं मत चढा।
जो हो न कुछ, तो मत बजा,
आका, कभी कुछ मत बना।
रोटी पकी, अब चुप रहो,
जनता जली,जन मत जला।
झंडे उठा तू था गया,
दे कर उसे, तूने छला।
मजहब भला करता कि वह
हरदम रहा मरता चला?
ढोते रहे बस भार-से,
ईमान तो उनकी बला।
बोले कि मानेंगे सभी
मजहब,कभी बातें भला?
उसने कहा आगे न जा,
तेरी धता,फिर भी चला।
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by Harash Mahajan on August 1, 2015 at 11:53pm
Comment by Samar kabeer on August 1, 2015 at 11:28pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी,आदाब,ग़ज़ल अच्छी कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं,आख़री शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का दोष आ गया है,देख लीजियेगा ।

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