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मत्तगयन्द सवैया...

मत्तगयन्द सवैया. (सात भगण और दो गुरु )

1.

वक्त बली अति सौम्य तुला रख नीति- सुप्रीति सदा पगता है.

काल अकाल  विधी - विधना  सबके  सब  मूक  बयां करता है.

मीन - नदी  अति व्यग्र  रहें, बगुला नित शांत मजा चखता है.

वक्त  समग्र  विकास  करे  पर,  मानव  सत्य  नहीं  गहता है.

2.

स्नेह  मुहब्बत  संग  दया  समता,  करुणाकर  ही  रखते  हैं.

क्रूर  कठोर  अघोर  सभी  जन  में, सदबुद्धि  वही  फलते  हैं.

रावण  कौरव  कंस  बली  हिरणाक्ष,…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 3, 2015 at 8:30pm — 4 Comments

लेपटॉप ( लघुकथा )

" अम्मा , दद्दा , छुटके ! ई देखो , नए फिसनवा की पेटी । ऊ सहर की सड़क पे मिळत रही । "

" तनिक खोल तो मुनिया , कउनो गहना- जेबर भए तो दरोग़ा के बुलवाई के पड़ी ।"

" खोलत हैं अम्मा , ई का ? भीतर तो दर्पन चिपकत रही , वो भी ठुस्स भेसईंन रंगत ।"

" का कहत है ? फैंक अबहीं । जुरूर ई सुसरा सहर वाले कौनों जादू-टोना करके पटकत गईल ।"

" पर दद्दा , ई के भीतरे जो ढेर डिबियाँ जमत रहि , ऊ का , का ? "

" जिज्जी , तनक उहे बी तो .....का पता , कौनो गोली- बिस्किट ही धरें हों । "

" सैतान !…

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Added by shashi bansal goyal on July 3, 2015 at 8:00pm — 9 Comments

अजनबी लाशें..

अजनबी लाशें..

पाठशाला में  पढाती  

आँंखें खोल कर,

सृ-िष्ट की सबसे सुन्दर कृति

नारी का हृदयंगम पाठ

अक्षर-अक्षर निर्वस्त्र, लिजलिजा भाव

भाषा नि:शब्द!

पर, संवेदना के पहाड़े याद नहीं होते।…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 3, 2015 at 7:30pm — 4 Comments

चेप्टर -1 - दोहे

चेप्टर -1 - दोहे

निंदा को आतुर रहें, करें नहीं गुणगान
मैल हिया में देख के ,रूठ गए भगवान

मालिक कैसा हो गया ,  तेरा ये इंसान
बन्दे तेरे लूटता , बन  कर वो भगवान


तेरा  अजब  संसार  है,हर  कोई  बेहाल
हर मानव को यूँ लगे, जग जैसे जंजाल


संस्कार  सब  खो गए ,  बढ़ने  लगी  दरार
जनम जनम के प्यार का, टूट गया आधार

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on July 3, 2015 at 4:01pm — 22 Comments

अपने अपने दर्द ( लघुकथा )

" आजकल इंडस्ट्री लगाना और उसे चलाना आसान नहीं रहा " कहते हुए उनके चेहरे का दर्द टपक गया |

" क्यों , क्या हो गया ऐसा ", आश्चर्य से पूछा उसने |

" अरे ये मनरेगा जो आ गया , अब जिसको अपने गाँव , घर में ही काम मिल जा रहा है , वो क्यों आएगा दूर काम करने "|

" और रही सही कसर ये शॉपिंग माल वाले पूरी कर दे रहे हैं | बढ़िया ए सी में काम मिल जा रहा है उनको "|

उसे अपना गाँव याद आ गया जहाँ ग्राम प्रधान और अधिकारी मिल कर मनरेगा का आधा से ज्यादा पैसा फ़र्ज़ी नाम से हड़प जाते हैं |

मज़दूर को…

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Added by विनय कुमार on July 2, 2015 at 10:42pm — 12 Comments

परपोते की चाह (लघुकथा)

बुढ़िया दादी बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपनी अंतिम साँसें गिन रही है. डॉ. साहब आते हैं, देखते हैं दवा देते हैं, कभी कोई इंजेक्शन भी चढ़ा देते हैं. डॉक्टर से धीरे धीरे बुदबुदाती है. – “बेटा, बंटी  से कहो न, जल्द से जल्द ‘परपोते’ का मुंह दिखा दे तो चैन से मर सकूंगी. मेरी सांस परपोते की चाह में अंटकी है."

बच्चे की जल्दी नहीं, (विचार वाला) बंटी अपनी कामकाजी पत्नी की तरफ देख मुस्कुरा पड़ा. …

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on July 2, 2015 at 8:48pm — 5 Comments

चुप्पी

कभी किसी की चुप्पी

कितना उदास कर जाती है।

साँसे  भी भारी होती जाती है।

मन हो जाता है उस झील- सा

जो कब से बारिश के इंतजार मे  थम सी गई हो 

और उसकी लहरें भी उंघ रही हो किसी किनारे बैठ के

शाम भी तो धीरे से गुजरी है अभी कुछ फुसफूसाती हुई

उसे भी किसी की चुप्पी का खयाल था शायद।

 

मौलिक व अप्रकाशित

Added by MAHIMA SHREE on July 2, 2015 at 8:00pm — 9 Comments

नवगीत : नाच रहा पंखा

देखो कैसे

एक धुरी पर

नाच रहा पंखा

 

दिनोरात

चलता रहता है

नींद चैन त्यागे

फिर भी अब तक

नहीं बढ़ सका

एक इंच आगे

 

फेंक रहा है

फर फर फर फर

छत की गर्म हवा

 

इस भीषण

गर्मी में करता

है केवल बातें

दिन तो छोड़ो

मुश्किल से अब

कटती हैं रातें

 

घर से बाहर

लू चलती है

जाएँ भला कहाँ

 

लगा घूमने का

बचपन से ही

इसको…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 2, 2015 at 6:26pm — 6 Comments

गुमनाम होता बचपन (लघुकथा)

प्रकाशक को उपन्यास की पाण्डुलिपि थमाकर लौटी, तो आज उसका मन फूल सा हल्का हो गया। पूरे छः माह की मेहनत साकार हुई थी।पुस्तक विमोचन, सम्मान,रॉयल्टी प्रसिद्धि ये सब बारी -2 से उसकी आँखों में कौंध गए। घर पहुंची तो देखा पाँच वर्षीय बेटा बड़ी बहन की गोद में सो रहा था।उसकी आँखों में सूखे अश्रु चिन्ह,तप्त शरीर,तोड़े मरोड़े गए खिलौने,अधूरा होमवर्क,डायरी में टीचर की शिकायत ।



उफ़...ये क्या कर बैठी मैं ? अपनी महत्वाकांक्षा में अपने बच्चे के बचपन को ही गुमनामी के अंधेरों में धकेल दिया।…



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Added by jyotsna Kapil on July 2, 2015 at 6:00pm — 10 Comments

गुमनाम लखौड़ी पत्थर

अवध के नवाब ने बड़े चाव से अंग्रेजों के लिये रेजिडेसी बनाने के लिये पहला लखौड़ी का पत्थर रखा तो उसको शायद यह भान ही ना होगा कि यह इमारत आने वाली सदी में अपने खानदान के आखिरी वारिस के लिये कांटो का ताज बनवा रहा है ।

पूरा अवध प्रांत अंग्रेजों ने वापस हासिल कर लिया । बदले में उनको रेजीडेन्सी में क्रांतिकारियों द्वारा खेले खूनी खेल की गवाह वह खण्डर इमारत भी मिली।

असफल क्रान्ति ने नवाब को अंग्रेजों ने कलकत्ता फिर इंग्लैंड निर्वासित…

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Added by Pankaj Joshi on July 2, 2015 at 6:00pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अभी जीने की हसरत मुझमें बाकी है

1222/ 1222/ 1222
मेरे दिल में अजब सी बेकरारी है
अभी जीने की हसरत मुझमें बाकी है

मैं मेरी हसरतों के साथ तन्हा हूँ
किसे परवाह मेरी चाहतों की है

वो बरसेगा कि मुझ पर टूट जायेगा
अभी बादल मेरे सर पर उठा ही है

अचानक शह्र क्यों जलने लगा कहिये
शरारों को किसी ने तो हवा दी है

हक़ीकत ही कही थी मैंने तो ऐ दोस्त
ये देखो जान पर मेरी बन आई है

मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on July 2, 2015 at 4:26pm — 14 Comments

ब्राँडेड मवाली ( लघुकथा ) कान्ता राॅय

ब्राँडेड मवाली ( लघुकथा )





" कितनी अचरज की बात थी कि वो बाई होकर ख्वाब देख रही है । "



" तुम्हें क्या लगता है कि बाई को स्वप्न नहीं देखना चाहिए ...!!"



" स्वप्न देखने का आधार भी तो होना चाहिए । आपने देखा नहीं कि वो दो बार दसवीं में फेल होकर बडी मुश्किल से बारहवीं में सप्लीमेंटरी से पास हुआ है और वो है कि बेटे को इंजीनियर बनाने की बात कर रही थी ।इधर बेटा सड़कों पर मवालीगिरी करता फिरता है और उधर माँ के स्वप्न.. हुँह !!! "



" यही मवाली तो पढ लिख कर… Continue

Added by kanta roy on July 2, 2015 at 2:30pm — 10 Comments

अनकहा सच

“माँ तू खुद ही तो कहती है वो दरोगा अच्छा आदमी नहीं हैं और हम दोनो बहनों को उस से दूर ही रखती है.. फिर तू खुद वहाँ क्यों जाती है.., बचपन से देखती चली आ रहीं हूँ बापू के गुजरने के बाद से  तू नियम से उसका खाना लेकर जाती है और देर रात वापस लौटती है. लोग कैसी कैसी बातें बनाते हैं.” बरसों से मन में घुमड़ते प्रश्न आज आखिर मदुरा ने माँ के सामने रख ही दिए..

“वो हमारा अन्नदाता है तो बदले में कुछ तो उसको भी देना ही होता है.” माँ ने बड़े शांत-भाव से उत्तर दिया और खाने का डिब्बा उठा कर गंतव्य की ओर…

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Added by Seema Singh on July 2, 2015 at 10:00am — 11 Comments

तू वहाँ मशरूफ़ मैं यहाँ तन्हा

2 1 2 2 2 1 2 1 2 2 2

तू वहाँ मशरूफ़ मैं यहाँ तन्हा

ये ज़मी तनहा वो' आसमाँ तन्हा



अब तेरी यादें यहाँ मचलती हैं

रह गया टूटा हुआ मकाँ तन्हा



हमने हर मौसम के' रंग देखें हैं

हम कभी तन्हा कभी समाँ तन्हा



चल दिए अरमां जला के' तिनकें सा

देर तक उठता रहा धुआँ तन्हा



हैं पड़ी ज़ंज़ीर दिल के पैरों में

हम अगर जाएँ तो अब कहाँ तन्हा



सोच कर ये रूह काँप जाती है

दिल में बस्ती बसे मकाँ तन्हा



जब न बंधन हो न ही रस्म… Continue

Added by Pari M Shlok on July 2, 2015 at 9:05am — 20 Comments

हिम्मत - लघुकथा

पलक झपकते ही वो सब हो गया जो उसकी कल्पना में भी नही था। तेज गति से चलते टैम्पो में पलटते ही आग लग गयी और रोड़ पर भगदड़ मच गयी। जलती आग की ओट में घिरे उस नन्हे बच्चे को देख एकबारगी उसकी सांसे भी थम गयी।वो निशक्त सा हो गया। लेकिन बच्चे को जीवन मृत्यु के बीच झूलते देख उसने अपने अंदर की सारी शक्ति को समेटा और आग में कूद पड़ा।......

शहर भर में उसकी हिम्मत की चर्चा होने लगी। हर कोई जानना चाहता था उसकी हिम्मत, उसके जज्बे का राज।

"क्या बताऊं मैं?" रो पड़ा फूट फूट कर वो। "मेरा दस बरस का बेटा… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on July 2, 2015 at 8:43am — 20 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - फिल बदीह -- घटी है दरमिय़ाँ दूरी , किसी के दूर जाने से ( गिरिराज भंडारी )

1222       1222       1222        1222

मुहब्बत कब छिपी है चिलमनों की ओट जाने से

नज़र की शर्म कह देगी तुम्हारा सच जमाने से 

 

अरूजी इल्म में उलझे नहीं, बस शादमाँ वो हैं

हमे फुरसत नहीं मिलती कभी मिसरे मिलाने से

 

उदासी किस क़दर दिल में बसी है क्या कहें यारों

बस अश्कों का बहा दर्या है दिल के आशियाने से 

 

अकड़ने से बढ़ा हो क़द , मिसाल ऐसी नहीं, लेकिन 

झुके हैं  बारहा  लेकिन किसी के  सर झुकाने से

 

कभी ये भी …

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Added by गिरिराज भंडारी on July 2, 2015 at 8:30am — 23 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122   2122     212

मुस्कुराकर मौत जितनी पास आयी दोस्तो

ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो

बेवफाई जाने कैसे उन दिलों को भा गई

हमने मर मर के वफा जिनको सिखाई दोस्तो

धूप फिर से डर के पीछे हट गई है, पर यहाँ

जुगनुओं की अब भी जारी है लड़ाई दोस्तो

कल की तूफानी हवा में जो दुबक के थे छिपे

आज देते दिख रहे हैं वे सफाई दोस्तो

आईना सीरत हूँ मैं, जब उनपे ज़ाहिर हो गया

यक-ब-यक दिखने लगी मुझमें बुराई…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 2, 2015 at 8:30am — 28 Comments

गुमनाम कर्म (लघु कथा)

"साहब ये देखिये लहलहाता खेत, दो साल पहले यहाँ बंजर जमीन थी, हम लोग जब इसे उपजाऊ बना सकते हैं तो आसपास की सारी ज़मीन क्यों नहीं?"

"बिलकुल ठीक है, इस गाँव के लिये जितने भी रुपयों का आपने प्रस्ताव भेजा है, वो मंजूर किया जाता है|"

खेत के एक कोने में हरी चुपचाप खड़ा था, उस अकेले की दो साल की मेहनत के बाद कम से कम चौधरी जी तो गुमनामी के अँधेरे से बाहर आये, जिनका पूरा परिवार अब…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 1, 2015 at 11:22pm — 13 Comments

अब जो जायेंगे......."जान" गोरखपुरी

 २१२२     २२१२      २१२२      २२

 

अब जो जायेंगे उस गली तो सबा छेड़ेगी

वारे उल्फ़त! मुझको मेरी ही वफ़ा छेड़ेगी

 ..

जिसको आँखों में भरके फिरते थे हम इतराते

हाय जालिम तेरी कसम वो अदा छेड़ेगी  

..

  जो गुजरते हर एक दर पे थी हमने मांगी  

राह में मिलके मुझसे वो हर दुआ छेड़ेगी

..

 वो जो बातें ख्यालों की ही रह गई बस होकर

बेसबब बेवख्त आ मुद्दा बारहा छेड़ेगी

..

 सुनते ही जिसको तुम चले आते थे दौड़े

हाँ…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 1, 2015 at 6:00pm — 25 Comments

एक कली मुस्काई ...

सोनाली हर बार यानि पिछले आठ वर्षों से अपना जन्म -दिन , घर के पास के पार्क में खेलने वालों बच्चों के साथ ही मनाती है। उनके लिए बहुत सारी  चोकलेट खरीद कर उनमे बाँट देती है।आज भी वह पार्क की और ही जा रही है।उसे देखते ही बच्चे दौड़ कर  पास आ गए।और वह ...! जितने बच्चे उसकी बाँहों में आ सकते थे , भर लिया। फिर खड़ी हो कर  चोकलेट का डिब्बा खोला और सब के आगे कर दिया।बच्चे जन्म-दिन की बधाई देते हुए चोकलेट लेकर खाने लगे।

 " एक बच्चा इधर भी है ,  उसे भी चोकलेट मिलेगी क्या ...?" सोनाली के पीछे से…

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Added by upasna siag on July 1, 2015 at 5:30pm — 9 Comments

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