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ग़ज़ल : ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये

ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

 

जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो

खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये

 

भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान

खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये

 

पूँजी के टायरों के तले आ के आपके

कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये

 

फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप

गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 8, 2015 at 11:00pm — 23 Comments

ग़ज़ल-नजर मिल रही थी तो दिल डर गया।

१२२ १२२ १२२ १२



नजर मिल रही थी तो दिल डर गया।

नजर से बचे तो जिगर मर गया।।



अभी पाँव रक्खा ही था इश्क में।

बडी तेज सर पर से पत्थर गया।।



कदम कोई अपना मेरी कब्र पर।

जहाँ पर जिगर था वहाँ धर गया।।



नजर थी,बला थी, वो क्या थी मगर।

उसे सोचते सोचते मर गया ।।



जमाने ने सर पर बिठाया उसे।

जरा सी उछल कूद जो कर गया।।



फना हो गयी है शराफत या रब।

या है ही नहीं तू या फिर मर गया।।



हँसाने की कोशिश करों उसको… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on July 8, 2015 at 10:44pm — 11 Comments

अपना अपना धर्म (लघुकथा)

"अपने मज़हब पर मरने का हौसला है कि नहीं?"

"है, लेकिन मेरे अपने धर्म पर, तुम्हारे नहीं|"

"हमारा धर्म तो एक ही है..."

"तुम्हारे पास वहशत फ़ैलाने का हौसला है, मेरे पास न डरने का हौसला, तो फिर हमारे धर्म अलग हुए न?"

यह सुन तीसरा बोला:

"मेरे पास हर धर्म की लाशें सम्भालने का हौसला है|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 8, 2015 at 10:30pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बड़ी खूबसूरत हवालात होगी (फिल बदीह ग़ज़ल(राज)

122 122 122 122

 

 तुम्हारी समझ से वो सौगात होगी

,मगर मेरी नजरों में खैरात होगी

 

मुझे चाहिए मेहनतों के  निवाले,

जिये रहमतों पर तेरी जात होगी.

 

न जाने कहाँ अब मुलाकात होगी

,जहाँ आमने सामने बात होगी

 

घटाएँ हिमालय के रुखसार…

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Added by rajesh kumari on July 8, 2015 at 9:14pm — 15 Comments

निशान !

निशान !

लगभग ५३ वर्ष हुए जब  "धर्मयुग" साप्ताहिक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए किसी अदृश्य शक्ति नें अचानक मुझको रोक लिया, और मुझे लगा कि मेरी अंगुलियों में किसी एक पन्ने को पलटने की क्षमता न थी।

आँखें उस एक पन्ने पर देर तक टिकी रहीं, और मात्र ८ पंक्तियों की एक छोटी-सी कविता को छोड़ न सकीं। वह कविता थी  "निशान"  जो ५३ वर्ष से आज तक मेरे स्मृति-पटल पर छाई रही है, और जिसे मैं अभी भी अपने परम मित्रों से आए-गए साझा करता हूँ .....

                 …

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Added by vijay nikore on July 8, 2015 at 9:02pm — 24 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जो पढ़ेंगे आप वो साभार है

2122 / 2122 / 212

 

आजकल जो मित्रवत व्यवहार है

एक धोखा है नया व्यापार है

 

सर्जना भी अब कहाँ मौलिक रही

जो…

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Added by मिथिलेश वामनकर on July 8, 2015 at 5:51pm — 23 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल - फिल बदीह - कभी पत्थर नहीं देता ( गिरिराज भंडारी )

122     122    122    122

जहाँ वाले यूँ तो बताते रहे हैं

हमी अपनी ख़ामी छुपाते रहे हैं

वो अमराई , झूले वो पेड़ों के साये

बहुत देर तक याद आते रहे हैं…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 6:12am — 16 Comments

वफ़ाओं का मेरी

वफ़ाओं का मेरी सिला दीजिये
हूँ बेहोश मुझको जिला दीजिये


हुआ हूँ मैं गुम इस ज़माने में लेकिन
मुझी को मुझी से मिला दीजिये


कुचलते रहे हैं सदा हर कली को
किसी फूल को अब खिला दीजिये


मिला इस ज़माने में हर कोई खारा
ज़रा अब अमिय भी पिला दीजिये


सज़ा तो बहुत मिल गयी है मुझे अब
वो ख़्वाबों की मंज़िल दिला दीजिये

वफ़ाओं का मेरी सिला दीजिये 
हूँ बेहोश मुझको जिला दीजिये !!

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on July 8, 2015 at 3:02am — 10 Comments

गीत (समीक्षार्थ)

 

मनवा गाये, मनवा गाये,

मोरा मनवा गये रे



इक गौरैया घर में आई

चुन-चुन तिनका नीड़ बनायी

किया है उसने प्रियतम संग फिर

प्रेम सगाई रे

मनवा गाये मनवा गाये ................



इत्-उत् मटक-मटक दिखलाती

पिया को अपने खूब रिझाती

नित अठखेलियाँ करते दोनों

ज्यूँ भँवर बौराई रे

मनवा गाये ..................................



इक दूजे रंग रंगने लगे थे

प्रणय निवेदन करने लगे थे

आने को थी संतति उनकी

हुए सुखारे रे…

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Added by Meena Pathak on July 7, 2015 at 10:05pm — 7 Comments

हवन और दानव ( लघुकथा )

अनुष्ठान में पंडितों का जमावड़ा , हवन और मंत्रों के जाप से सम्पूर्ण वातावरण पवित्र और सुवासित हो उठा था । प्राँगण में महिलाओं का समूह बैठकर बडे उत्साह से ढोल मंजीरे लिये भजन गा रहा था । 

एक पंडित ने अनुष्ठान के आमदनी पर सवाल उठाये कि मंदिर कार्यकर्ताओं में खलबली मच गई ।
पल भर में ही देव सारे विलुप्त हो गये अनुष्ठान में सिर्फ दानवों का अधिपत्य हो गया ।



कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

Added by kanta roy on July 7, 2015 at 9:30pm — 10 Comments

हमें भी न आया

हमें भी न आया 

 

तू ऐसा बीज थी

जिसे न मिली धूप

न हवा, न पानी

और न कोई खाद 

फिर भी तू पनपी 

पनपी ही नही  

बन गयी एक पेड़

बरगद सी छाया

 

फिर तूने बसाया

अपना संसार 

और कहलाई माँ

फिर बांटी तेजस धूप

पवन में भरी गंध

दूध से सींचे पौधे

हृदय को मथकर

लाई खाद

हुए तेरे

लख-लख पूत आबाद…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 7, 2015 at 8:38pm — 15 Comments

सिर्फ देखा है जी भर के …

सिर्फ देखा है जी भर के …

सिर्फ देखा है जी भर के  हमने तुम्हें

इस ख़ता पे  न  इतनी सज़ा दीजिये

ज़िंदगी भर हम ग़ुलामी करेंगे मगर

रुख़ से चिलमन ज़रा ये हटा दीजिये

सिर्फ देखा है जी भर  के हमने तुम्हें

इस ख़ता पे न  इतनी  सज़ा दीजिये

हम फ़कीरों  का  दर कोई होता नहीं

हर दर  पे  फ़कीर  कभी  सोता नहीं

अब  खुदा  आपको  हम बना बैठे हैं

अब पनाह दीजिये या मिटा दीजिये

सिर्फ देखा है जी भर के हमने तुम्हें

इस ख़ता पे न…

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Added by Sushil Sarna on July 7, 2015 at 4:15pm — 18 Comments

सलीक़ा सड़क का (लघुकथा)

पुलिस के सिपाही अकसर चौराहे से नदारद रहते, । सरकारी ड्यूटी बीच में छोड़ किसी अपने निजी काम से निकल जाते।  किन्तु उनके जाते ही एक वृद्ध हाथ में तख्ती लिये वहां खड़ा हो जाता, जिस पर लिखा होता:

"जिंंदगी ज़्यादा ज़रूरी है, जल्दबाज़ी न करें'

कुछ लोग रूक कर पूछ लेते

'बरसों से देख रहे है बाबा, क्यों इतनी परेशानी उठाते हो ? इस काम के लिए पुलिस है न यहाँ।"

"हाँ बेटा, पर पुलिस क्या जाने दर्द क्या होता है।"

"उनको तो सरकार तनख्वाह देती है, तुम सारा दिन क्यों खपते रहते हो…

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Added by Nita Kasar on July 7, 2015 at 1:30pm — 9 Comments

स्वतन्त्र नदी ........इंतज़ार

बरसाती नदी सी क्यूँ हो तुम ?

किसी और की मनोदशा

निर्धारित करती है तुम्हारा बहाव

किसी की मेहेरबानी से चल पड़ती हो

तो कभी सूख जाती हो

कभी सोचा है

मेरा हाल उस मछली की तरहाँ होता है

जो बचे-खुचे कीचड़ में

तड़पती है सिर्फ़ भीगने के लिये

जिंदा रहने के लिये

और जब सैलाब आता है

तो बहुत दूर बह जाती है बेकाबू

तुम कब एक प्रवाह में स्वतन्त्र बहोगी

नदी हो... पहाड़ों से टक्कर ले जीत चुकी हो

अब कोई कैसे स्वार्थ के बांध बना

रोक सकता है तुम्हारा…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 7, 2015 at 7:59am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल - फिल बदीह - कभी पत्थर नहीं देता ( गिरिराज भंडारी )

1222   1222   1222   1222

पियाला वो किसी को भी, कभी भर कर नहीं देता

जिसे वो नींद देता है , उसे बिस्तर नहीं देता

कभी शीशा छुपाता है , कभी पत्थर नहीं देता

बहे गुस्सा मेरा कैसे , ख़ुदा अवसर नहीं देता

तुम्हारी हर ज़रूरत पर नज़र वो खूब रखता है

तुम्हारी ख़्वाहिशों पर ध्यान वो अक्सर नहीं देता

खुशी तुम भीतरी मांगो तो वो तस्लीम करता  है

अगर बाहर के सुख मांगे तो वो भीतर नहीं देता

किया तुमने नहीं वादा  शिकायत फिर…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 7, 2015 at 5:30am — 18 Comments

अंकुरण ( लघुकथा )

" अरे ,रे , ये क्या कर दिया तूने | काट दिया उस पौधे को भी घाँस के साथ "| शर्माजी एकदम से चिल्ला पड़े उस छोटी लड़की पर जिसने उनसे उनकी लॉन में से घाँस काटने के लिए पूछा था |

पेपर को किनारे रखते हुए वो उठे और लगभग धक्का देते हुए उसे लॉन से बाहर निकाल दिया | " पता नहीं फिर ये अंकुरित होगा या नहीं , कितने प्यार से लगाया था "|

छोटी लड़की उदास बाहर निकल गयी | पेपर उड़ कर घाँस पर आ गिरा , उसमे हेडलाइंस चमक रही थीं " इस साल फिर एक लड़की ने टॉप किया सिविल सर्विसेज में "| 

मौलिक एवम…

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Added by विनय कुमार on July 7, 2015 at 2:28am — 12 Comments

बेटियाँ ( कविता )

बेटियाँ कभी उदास नहीं होतीं !!



वो तो होती हैं-

सृष्टि की अद्भुत कल्पना 

आनंददायक भावना।

वो रहती हैं-

आँगन की हवाओं में

पिता की दुआओं में ।

तभी तो खिल जाती है 

एक स्नेहिल मुस्कान 

हर लेती जो कितनी थकान।

बांटती है हमेशा-

खुशियों की सत्त्व-दीप्ति

मधुर जीवन संस्कृति।

वैसी कोई दूजी सुवास नहीं होती ।

क्योकिं बेटियाँ कभी उदास नहीं होतीं !!



वो तो दूर करती हैं-

उदासी, दोनों ही घरों…

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Added by विनय कुमार on July 6, 2015 at 8:00pm — 16 Comments

ढाढ़स (लघुकथा)

लैपटाप बेटी के हाथों में देख माता -पिता प्रसन्न थे हो भी क्यों न आखिर चीफ़ मिनिस्टर साहब से जो मिला था | उनकी बेटी पुरे गाँव में अकेली प्रतिभाशाली छात्रों  में चुनी गयी थी |

पूरा कुनबा लैपटाप के डिब्बों में कैद तस्वीरें देखने बैठ गया |

"बिट्टी इ सब का हैं ? लाल-पीला |" माँ पहली बार रंगबिरंगे भोजन को देख पूछ बैठी |

"अम्मा, ये लजीज पकवान हैं | बड़े बड़े होटलों में ऐसे ही पकवान परोसे जाते हैं और घरो में भी ऐसे ही तरह तरह का भोजन करते हैं लोग |"

"और दाल रोटी ?"

"अम्मा, दाल…

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Added by savitamishra on July 6, 2015 at 7:30pm — 19 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
दो गज़लें

1.

फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फाइलुन

२२ २२ २२ २२ २१२ 

बहरे मुतदारिक कि मुजाहिफ सूरत 

************************************************************************************************************************

जब से वो मेरी दीवानी हो गई 

पूरी अपनी राम कहानी हो गई 

काटों ने फूलों से कर लीं यारियां 

गुलचीं को थोड़ी आसानी हो गई 

थोड़ा थोड़ा देकर इस दिल को सुकूं

याद पुरानी आँख का पानी हो गई 

सारे बादल…

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Added by Rana Pratap Singh on July 6, 2015 at 7:00pm — 28 Comments

बह्र : हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २

 

हुस्न का दरिया जब आया पेशानी पर

सीख लिया हमने भी चलना पानी पर

 

राह यही जाती रूहानी मंजिल तक

दुनिया क्यूँ रुक जाती है जिस्मानी पर

 

नहीं रुकेगा निर्मोही, मालूम उसे

फिर भी दीपक रखती बहते पानी पर

 

दुनिया तो शैतान इन्हें भी कहती है

सोच रहा हूँ बच्चों की शैतानी पर

 

जब देखो तब अपनी उम्र लगा देती

गुस्सा आता है माँ की मनमानी पर

----------

(मौलिक एवं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2015 at 6:30pm — 24 Comments

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