For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (19,140)

जनाज़ा(लघुकथा)राहिला

"सर!ये भागवती हत्याकांड के कई पहलू सामने आ रहे है।"

"जैसे कि?"फिर कुछ सोचकर 

"ये वही सरकारी स्वास्थ्य कर्मचारी वाली घटना की बात कर रहे हो?जिसकी उसी के कार्यालय में गांव के किसी दबंग ने कुल्हाड़ी मारकर हत्या कर दी है।"

हाँ ,हाँ..!वही।दरअसल जितने मुंह उतनी बातें है सर! छोटा सा गांव है जहाँ मृतका पदस्थ थी।कुछ का कहना ये है, कि उच्च जाति का होने के कारण हत्यारे को  दलित महिला का अपनी बराबरी से बैठना नहीं सुहाता था ।"

"तो क्या वो भी कर्मचारी था? "

"जी,और मृतका के…

Continue

Added by Rahila on October 17, 2016 at 4:00pm — 7 Comments

एक ग़ज़ल की कोशिश : मेरी तालीम का मुझ पर असर है !

मेरी तालीम का मुझ पर असर है,

जो तेरे सामने झुकती नज़र है ।



बिना गलती के माँगूं मैं मुआफ़ी,

यही रिश्ते निभाने का हुनर है ।

के जब इंसान पत्थर भी जो मारे,

उसे बदले में फल देता शज़र है ।

हर इक चेहरे पे नक़ली मुस्कुराहट,

बड़े फनकार लोगों का शहर है ।

अमीरी में भी कितने ग़म है तुमको,

किसी की बददुआओं का कहर हैं ।…

Continue

Added by Ambesh Tiwari on October 17, 2016 at 4:00pm — 11 Comments

ग़ज़ल - हर मयकशी के बीच कई सिलसिले मिले

221 2121 1221 212



हर मयकशी के बीच कई सिलसिले मिले ।

देखा तो मयकदा में कई मयकदे मिले ।।



साकी शराब डाल के हँस कर के यूं कहा।

आ जाइए हुजूर मुकद्दर भले मिले ।।



कैसे कहूँ खुदा की इबादत नहीं वहां ।

रिन्दों के साथ में भी नए फ़लसफ़े मिले ।।



यह बात और है की उसे होश आ गया ।

वरना तमाम रात उसे मनचले मिले ।।



जिसको फ़कीर जान के लिल्लाह कर दिया ।

चर्चा उसी के घर में ख़ज़ाने दबे मिले ।।



मुझ से न पूछिए कि…

Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 17, 2016 at 3:00pm — 8 Comments

विजय पर्व का मूल

काम क्रोध तन में भरा, बढ़ा खूब व्यभिचार।

रावण अन्तस में लिए, घूम रहा संसार।।



काँटे ही ज्यादा यहाँ, और बहुत कम फूल।

सत्य अहिंसा प्रेम को, मनुज गया है भूल।।



राजनीति गंदी हुई, गुंडा करते राज

रामराज सपना हुआ, देख रहे हैं आज।।



साये में आतंक के, झूल रहा संसार।

नरता रही कराह है, गूँजे चीख पुकार।।



आज तिरस्कृत हो रही, नारी हर घर द्वार।

उरियानी के दौर में, फैला विषम विकार।।



सब्ज-बाग में फाँसकर, संसद पँहुचे चोर।

जाति धर्म… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 17, 2016 at 11:47am — 5 Comments


प्रधान संपादक
ग़ज़ल - आग यूँ ही नहीं लगी होगी

2122 1212 22/112

.

आह मज़लूम ने भरी होगी.

आग यूँ ही नहीं लगी होगीI



एक गोली कहीं चली होगी.

एक दुनिया उजड़ गई होगीI



शर्म से लाल हो गया पीपल,

बेल कोई लिपट गई होगीI



झूमकर नाचने लगी मीरा, 


शाम की बांसुरी बजी होगीI



जुगनुओं का हुजूम जब निकला,

चाँद की नींद…
Continue

Added by योगराज प्रभाकर on October 17, 2016 at 11:24am — 25 Comments

समस्या - समाधान ( लघु-कथा ) -- डॉo विजय शंकर

राजा बहुत चिंतित था। चिंतायुक्त विचार विमर्श के लिए वह अपने राजपरिवार के गुरु जी के पास निर्जन वन में गया। कुशल क्षेम के बाद बोला , " गुरु जी , मेरे राज्य में बहुत से बाबा हो गए हैं , प्रजाजन भी उनके पास अक्सर जाते हैं , उनसे आशा करते हैं कि वे परलोक छोड़ इहि लोक में भी उनका कल्याण करेंगे ? क्या ये सही है , वे क्यों जाते हैं ? "
गुरु जी बोले , " क्योंकि तुम उनका अभीष्ट कल्याण नहीं करते हो ,तुम उनका कल्याण करो। फिर देखो।"

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 17, 2016 at 7:27am — 12 Comments

तरही ग़ज़ल-सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र:122 122 122 122

----

नहीं कम हुई मेरी उलझन किसी से

कहाँ मिल सका हूँ अभी तक खुदी से।



है गुरबत ने ओढ़ा ख़ुशी का ये चोला

बहकती है दुनिया लबों की हँसी से।



मुहब्बत बसाती है उनसब घरों को

उजाड़ा किसी ने जिन्हें दुश्मनी से।



मुलाकात होती जरूरी कभी तो

मुहब्बत बढ़ेगी तभी बानगी से।



चढ़ा जा रहा हूँ मैं गुस्से में खुद पर

*उतारे कोई कैसे मुझको मुझी से*।



सितारा करम का चमक जाए ‘राणा’

तो मिट जाए गम सब तेरी जिंदगी… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 17, 2016 at 7:02am — 10 Comments

ग़ज़ल: मुहब्बत सभी से जताते नहीं हैं|

122  122 122 122

 

मुहब्बत सभी से जताते नहीं हैं|

मगर दोस्तों से छुपाते नहीं हैं|

 

हमें  तो पता है सबब आशिकी  का,

तभी दिल किसी से लगाते नहीं हैं ।

 

 बहुत चोट खाई है अपनों से अब तक

तभी जख्म  सबको दिखाते नहीं हैं|।

 

अमिट कुछ निशां पीठ पर दे गए वो,

नये दोस्त हम अब बनाते नहीं हैं|

 

कि दौरे मुसीबत में थामा जिन्होंने 

तो हर्गिज उन्हें  हम भुलाते नहीं हैं।

 

अगर हो न मुमकिन जो…

Continue

Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on October 17, 2016 at 12:30am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
‘जीत का सेहरा’ (लघु कथा ‘राज’)

 

युद्ध  थम चुका था जश्न भी मना चुके थे पनडुब्बी ,हवाई जहाज ,टैंक बहुत खुश दिखाई दे रहे थे  तीनों का सीना गर्व से फूला था| युद्ध  की घटनाओं का तीनों ही बढ़ चढ़ कर जिक्र कर रहे थे न जाने कहाँ से वार्तालाप में अचानक मोड़ आया कि एक के बाद एक तीनों ही अपनी अपनी सफलताओं का बखान करने लगे |

टैंक बोला- “सबसे आगे मैं था कुचल डाला सबको मेरा तो डीलडौल  और रौब देख कर ही दुश्मन की घिघ्घी बंध गई थी”|

 “अरे तुझे क्या पता तेरे ऊपर मैं दुश्मनों को कवर कर रहा था वरना मेरे सामने तेरी क्या…

Continue

Added by rajesh kumari on October 16, 2016 at 6:00pm — 10 Comments

शक्ति छ्न्द/सतविन्द्र कुमार

122 122 122 12

----

किसी ने कभी यह सही है कही

किया पूर्व ने ही उजाला सही

सकल नूर को दूर पश्चिम करे

सभी क्यों उसी की नकल में मरे।

2

महकते सुमन कुछ इशारा करें

गई चाहतों को दुबारा भरें

खिली जो कली है पिया की गली

लगन प्रेम की यह लगाती भली।

3.

कुहू की सुने हम सुवाणी अगर

चलें काटते हर कठिन सी डगर

सभी ओर मीठा अगर शोर हो

कहीं कष्ट का फिर नहीं जोर हो

4.

घटा से घटा है सकल ताप ये

बना जा रहा था सुजल भाप ये

नहीं… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 16, 2016 at 4:59pm — 4 Comments

गजल- जो नेक दिल हो जमाना उसे सताता है

बह्र 1212 1122 1212 112/22



जो नेक दिल हो ज़माना उसे सताता है

मुसीबतों से मगर वो न बौखलाता है।



जवान हार से भी जीत खींच लाता है

जो हार मान ले मातम वही मनाता है।।



तुम्हारे साथ में गुज़रा हरेक पल जानम

हयात में वही रस्ता मुझे दिखाता है।।



वफा के नाम पे करता दगा अगर कोई

जहाँ में खुद का ही वह कब्र खोद जाता है।।



करम खुदा का हमें क्यों समझ नहीं आता

कभी हमे वो रुलाता कभी हँसाता है।।



फरेब दिल में हमेशा भरा हुआ… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 16, 2016 at 4:49pm — 5 Comments

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है

वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है

 

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ

एक तो जह्र तिस पे मीठा है

 

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं

सच बड़ा गर्म और तीखा है

 

देखिए बैल बन गये हैं हम

जाति रस्सी है धर्म खूँटा है

 

सब को उल्लू बना दे जो पल में

ये ज़माना मियाँ उसी का है

 

अब छुपाने से छुप न पायेगा

जख़्म दिल तक गया है, गहरा है

 

आज…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 16, 2016 at 1:00am — 10 Comments

तरही ग़ज़ल -- " तेरे बारे में जब सोचा नहीं था " ( दिनेश कुमार )

1222--1222--122



मेरे चेहरे पे जब चेहरा नहीं था

मैं उस आईने से डरता नहीं था



ग़मों से जब नहीं वाबस्तगी थी

मैं इतनी ज़ोर से हँसता नहीं था



नज़ाक़त... ताज़गी... कुछ बेवफ़ाई

किसी के हुस्न में क्या क्या नहीं था



नशेमन की उदासी बढ़ रही थी

परिन्दा शाम तक लौटा नहीं था



हवा से लड़ रहा था एक दीपक

अँधेरा चार सू फैला नहीं था



फ़िज़ा की शक़्ल में शय कौन सी थी

चमन में गुल कोई महका नहीं था



सभी रिश्तों पे हावी… Continue

Added by दिनेश कुमार on October 16, 2016 at 12:53am — 3 Comments

मैं वज़ीर, वे चोर और सिपाही (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

भव्य ऐतिहासिक भवन। भवन में बस आग की ही लपटें। बाहर ऊपर की ओर उठता धुआँ ही धुआँ।

कराहते हुए भवन ने कहा- "अब मेरा मंत्री कौन?"



"मैं महाराज !" अपनी लपटों को लहराते हुए आग (वज़ीर) ने कहा।





"चोर और सिपाही का पता लगाओ!" भवन ने आदेश देते हुए कहा।



भवन के अंदर और बाहर चारों ओर फैलती आग ने ताप बढ़ाते हुए कहा- "चोर तो इस दुनिया के विकसित देश हैं, महाराज और सिपाही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार है!"



"क्या मतलब?" दक्षिण एशिया रूपी महाराज भवन ने चौंकते हुए… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 15, 2016 at 11:50pm — 6 Comments

श्वास

"अरे मुंगेरी, खाना खाने भी चलेगा, या मगन रहेगा यहीं |" मुंगेरी को दीवार से बात करता हुआ देख चाचा ने कहा |

बहुमंजिला इमारत में प्लास्टर होने के साथ बिजली का भी काम चल रहा था | दोपहर में भोजन करने सब नीचे जाने लगे थे | मुंगेरी भी चाचा के साथ नीचे आकर जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म करने लगा | तभी अचानक इमारत धू-धूकर जलने लगी | जैसे ही आग मुंगेरी के बनाये मंजिल पर पहुँची, मुंगेरी फफक कर रो पड़ा | सारे मजदूर महज हो-हल्ला मचा रहे थे | लेकिन मुंगेरी ऐसे रो रहा था जैसे उसकी अपनी कमाई जल…

Continue

Added by savitamishra on October 15, 2016 at 8:00pm — 2 Comments

धोखा न देना

सीमा पार से आके तुमने हमको जो ललकारा है

भागो तुम उस पार चलो यह भारतवर्ष हमारा है।

आये दिन जो तुम करते रहते हो उत्पात यहां

अब हम नहीं सहेंगे यह सब यह संकल्प हमारा है।

ऐसा क्या व्यवहार तुम्हारा जो कहके जाते हो पलट

अपनी सीमा पर है नहीं नियंत्रण यह दुर्भाग्य तुम्हारा है।

सरहद पर जो आते हैं करते स्वागत है हम उन का

मित्र तुम्हारे चरणों में यह झुका शीश हमारा है।

आये हो तो रहो यहां होकरके निर्भीक मगर

धोखा देने वालों पर गिरता फिर खड्ग…

Continue

Added by indravidyavachaspatitiwari on October 15, 2016 at 6:19am — 3 Comments

मेरी आँखों में बसी तीरगी को मत देखो (ग़ज़ल)

2122 1122 1212 22



सारे चेहरों में वो सबसे अलग जो चेहरा था

मेरी आँखों का फ़क़त इक हसीन धोखा था



सारे गुल तो हैं खियाबां में एक वो ही नहीं

जिसकी खुशबू से ये सारा चमन महकता था



आज तक ढूँढ़ता फिरता हूँ उसके नक़्श-ए-पा

इक मुसाफिर जो मेरे रास्ते से गुज़रा था



एक झटके में उड़ाकर ले गया चैन-ओ-करार

बस्ती-ए-दिल में वो तूफ़ान बन के आया था



मेरी आँखों में बसी तीरगी को मत देखो,

इक ज़माने में यहाँ जुगनुओं का डेरा था



जाने क्यों जेब… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on October 14, 2016 at 7:47pm — 6 Comments

तुम्हारी ख़ामोशी तुम्हारा पयाम हुई // अलका

एक प्रयास

***********

कान्हा की मैत्री मेरा मान हुई

तुमसे जुड़ा जो नाता मेरी शान हुई

इसे जोड़ा है गिरधर ने बड़े प्रेम से

हमारी खुशियां ही मुरली की तान हुई

मैं उलझी थी शब्दो की उलझन में

तुम्हारी ख़ामोशी तुम्हारा पयाम हुई

धूप में बादल से तुम, अंधेरों में किरण सी मैं

तुम्हारी बाहें हर तूफ़ां में मेरी मचान हुई

कई दांव देखे है रिश्तों के हमने

निष्ठा हमारी लोबान हुई

बीते बरस इम्तहानों के जैसे…

Continue

Added by अलका 'कृष्णांशी' on October 14, 2016 at 4:03pm — 6 Comments

समझदारी--

'मेरे लिए क्या लायी, मेरे लिए क्या है", बच्चे हल्ला मचा रहे थे| बड़े भी कुछ कह तो नहीं रहे थे लेकिन उनकी भी नज़रें उसी की तरफ टिकी हुई थीं| नौकरी शुरू करने के दो महीने बाद श्रुति अपने कस्बे वाले घर लौटी थी और इस बीच घर के अधिकतर सदस्यों ने उससे कुछ न कुछ लाने की फरमाईस कर दी थी| अपनी सीमित तनख़्वाह में भी उसने सबके लिए कुछ न कुछ ले लिया था| एक किनारे बैठी उसकी दादी उसे बेहद प्यार भरी नज़रों से देख रही थी और इंतज़ार कर रही थीं कि कब सब लोग हटें तो वह अपनी पोती को लाड करें| श्रुति उनकी सबसे ज्यादा…

Continue

Added by विनय कुमार on October 13, 2016 at 8:07pm — 8 Comments

कविता

रावण

.

तिल्ली का मुंह

दियासलाई की पीठ पर

रगड़ते ही

रावण

धू धू कर जल उठा

उसके जिस्म की आग

धुंआ और राख

ऊपर उठकर

फ़ैल गए चार सू

यहाँ वहां जहाँ तहां

अँधेरे से जुगलबंदी कर

लोट आये पुनः धरा पर

शबनम संग चुपके से

जब आप थे निद्रा के आगोश में

उसके भस्मबीज

चू पड़े खेतों में

खड़ी साग सब्जी और फसलों

के अंतरमन में

और

उग आये रावण

गाँव -गाँव …

Continue

Added by Anant Alok on October 13, 2016 at 8:00pm — 3 Comments

Monthly Archives

2025

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

आशीष यादव added a discussion to the group भोजपुरी साहित्य
Thumbnail

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला पिरितिया बढ़ा के घटावल ना जाला नजरिया मिलावल भइल आज माहुर खटाई भइल आज…See More
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय सौरभ सर, क्या ही खूब दोहे हैं। विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . शृंगार

दोहा पंचक. . . . शृंगारबात हुई कुछ इस तरह,  उनसे मेरी यार ।सिरहाने खामोशियाँ, टूटी सौ- सौ बार…See More
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।प्रदत्त विषय पर सुन्दर प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"बीते तो फिर बीत कर, पल छिन हुए अतीत जो है अपने बीच का, वह जायेगा बीत जीवन की गति बावरी, अकसर दिखी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे,  ओ यारा, ओ भी क्या दिन थे। ख़बर भोर की घड़ियों से भी पहले मुर्गा…"
Sunday
Ravi Shukla commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय गिरिराज जी एक अच्छी गजल आपने पेश की है इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी ने…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service