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माला

माला

छल, कपट ,धोखे के मोतियों
की माला ही पहना दो ।
इसे पहनकर एहसास ही
कर लूँगी ।
अपने दिल के करीब भी
रख लूँगी ।
सज जाऊँगी पूर्णतः ।
दर्द शायद कम हो जाये तुम्हारा
जीत का जश्न
फिर तुम मना लेना ।
आऊँगी संग तुम्हारे
उसी माला को पहन
रहूँगी साथ तब भी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 13, 2016 at 9:52am — 2 Comments

क्या गरज़ है कि अपाहिज के लिए तुम रूक्को----ग़ज़ल

2122 1122 1122 22

क्या गरज़ है कि अपाहिज के लिए तुम भी रुको
अपनी रफ़्तार की तेजी को न यूँ दफ़नाओ

ग़र तुम्हें साथ में चलने में परेशानी है
राह में छोड़ के आगे भी निकल सकते हो

अपने अंदाज़ में चलने का चलन ही है यहाँ
न मना ही है किया और न टोका तुमको

तुम चलो मैं भी मिलूँगा जी वहीँ मंज़िल पर
जाके खरगोश व कछुए की कथा फिर से पढ़ो

राह में रात भी होगी तो किधर जाओगे
मेरी ग़ज़लों की ये सौगात उजाले ले लो


मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2016 at 7:00am — 3 Comments

आज भी रोती है वह नदी

रात के सन्नाटे में

कहते हैं

आज भी रोती है वह नदी

 

जिन्होंने भारत में

पूर्व से पश्चिम की ओर

ऊंचाइयों पर

पथरीले कगारों के बीच से

बहती उस एक मात्र पावन चिर-कुमारिका

नदी का आर्तनाद कभी सुना है

 

जिन्होंने की है कभी उसकी

दारुण परिक्रमा

जो विश्व में

केवल इसी एक नदी की होती है ,

हुयी है और आगे होगी भी

 

वे विश्वास से कहते है -

‘इस नदी में नहीं सुनायी देती

रात में…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2016 at 8:00pm — 11 Comments

गज़ल (12122-12122)

गज़ल (12122-12122)

हमें मुहब्बत जतानी होगी
ये दिल की लब तक तो लानी होगी॥
दीवार चुप की गिरानी होगी
कि बात कुछ तो बनानी होगी॥
जो फेंक डाली है तूने बोतल
तो आँख से अब पिलानी होगी॥
शराब भी तो है इश्क जैसी
चढ़ेगी जितनी पुरानी होगी॥
जो चाहता है धुआँ न उठ्ठे
तो आग ज़्यादा बढ़ानी होगी॥
तू हँस के चाहे निभा ले रो के
तुझे मुहब्बत निभानी होगी॥
जुबान चुप है,है आँख पत्थर
ज़ुरूर दिल में विरानी होगी॥
(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Gurpreet Singh jammu on November 12, 2016 at 7:30pm — 2 Comments

बोलते नोट (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"नहीं भाई, ग़लती पर तुम हो, यह औरत नहीं!" दुकान में खड़े शिक्षक ने दुकानदार से कहा- "ऐसे समय में जबकि लोग राष्ट्रीय मुद्रा के पुराने अमान्य नोटों को सरकारी आदेशानुसार बैंक में जमा करने के बजाय जलाकर या फेंक कर मुद्रा का अपमान कर रहे हैं, इस औरत ने दस रुपये के इस ज़रा से फटे नोट की अपनी सुविधा व सूझबूझ से रक्षा ही की है पन्नी (पोलीथिन पाउच) में रखकर! नम्बर व ज़रूरी चीज़ें तो स्पष्ट हैं न इस नोट में! यह नोट तुम्हें स्वीकार करना चाहिए न!"



"मासाब, एक बार की बात नहीं, ये लोग तो हमेशा ही… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 12, 2016 at 6:55pm — 6 Comments

सर्द हवा (कविता)

सर्द हवा

इन सर्द हवाओं में
घुली हुई हैं यादें
वो वादियाँ पहाड़ों की
बर्फीली चादर ओढ़े
चले थे कभी
कदम दो कदम
साथ हुई थीं
बर्फीली नदी के धार
ठंडे पानी में
नहाने की ज़िद्द
छोटे छोटे कंकड़ पत्थर
रंग बी रंगी किनारे पर
चमकते थे
श्वेत पानी के बीच ।
उस पर से प्यार का एहसास
तुम्हारे करीब होने का आभास
याद आते है
सर्द हवा के झोंके
आज भी ।
लगता है करीब हो
तुम आज भी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 12, 2016 at 3:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल (उदास रात के साये में ख़्वाब पहने हुए)

उदास रात के साये में ख़्वाब पहने हुए 

निकल पड़ा है मुसाफ़िर अज़ाब पहने हुए

डरा सकेगी नहीं जुगनुओं को तारीकी 

निकल पड़े हैं वो तो आफ़ताब पहने हुए

नज़र-नज़र से मिली और खा गये धोक़ा 

वो दिलफ़रेब मिली थी नक़ाब पहने हुए

यहाँ उदास मैं भी हूँ, वहाँ उदास वो भी है 

बहार भी है ख़िज़ां के गुलाब पहने हुए

लो आ गया मिरा महबूब फिर ख़्यालों में 

''सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए''

मौलिक व…

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Added by दीपक कुमार on November 12, 2016 at 9:30am — 4 Comments

मास्टर स्ट्रोक--



मौसम तो कमोबेश वही था लेकिन घर का माहौल कुछ बदला बदला सा लग रहा था| ऑफिस से घर आने में लगभग एक घंटा लग जाता था इसलिए इस एक घंटे में देश दुनियां में क्या हुआ, इसका पता शर्माजी को घर पहुँचने पर ही लगता था| लेकिन घर पहुँचते ही टी वी खोलने का मतलब शेर के मुंह में हाथ डालना होता था| शर्माजी का घर पहुँचने का समय वैसे ही कुछ ऐसा था कि श्रीमतीजी का दिमाग चढ़ा ही रहता था और उसपर कहीं गलती से पहुँचते ही टी वी खोल दिया तो फिर पता नहीं क्या क्या सुनना पड़ जाता था| उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ, घर पहुँचते…

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Added by विनय कुमार on November 11, 2016 at 10:24pm — 4 Comments

ज़िन्दगी (कविता)

ज़िन्दगी

सोचा थोडा खेल लें
ज़िन्दगी मिली है
सो थोडा खेल लें
समय चलेगा अपनी चाल
समय के मोहरे बन
थोडा खेल लें ।
कभी पहाड़ों पर
चढ़ जाएँ
कभी बादलों पर घूम आयें
कभी मिटटी के बुत बन जाएँ
कभी माली बन
बगवान सवाँर ले।
कभी महके गुलाब की तरह
कभी काँटा बन चुभ जाएँ ।
ज़िन्दगी है
तो खेल है
खेलते रहे खिलाड़ी बन
ज़िन्दगी शायद ज़ी जाएँ ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 11, 2016 at 9:30pm — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
एक सामयिक ग़ज़ल - अरुण कुमार निगम

एक सामयिक ग़ज़ल.....

(१२२ १२२ १२२ १२)

समाचार आया नए नोट का

गिरा भाव अंजीर-अखरोट का |

 

दवा हो गई बंद जिस रात से

हुआ इल्म फौरन उन्हें चोट का |

 

मुखौटों में नीयत नहीं छुप सकी

सभी को पता चल गया खोट का |

 

जमानत के लाले उन्हें पड़ गए

भरोसा सदा था जिन्हें वोट का |

 

नवम्बर महीना बना जनवरी

उड़ा रंग नायाब-से कोट का |

 

मकां काँच के हो गए हैं अरुण

नहीं आसरा रह गया ओट का…

Continue

Added by अरुण कुमार निगम on November 11, 2016 at 4:30pm — 4 Comments

यार गर फिर बावफ़ा हो जाएगा(ग़ज़ल)/सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र2122 2122 212



यार गर फिर बावफ़ा हो जाएगा

प्यार मेरा फिर हरा हो जाएगा।



साथ मिल कोशिश करें सब ही सही

तो जहाँ फिर खुशनुमा हो जाएगा।



हाँ पकड़ कर बह्र को गर तुम चलो

तो गजल कहना भला हो जाएगा।



हो अकेले में जरा गर हौंसला

फिर तो पीछे काफिला हो जाएगा।



हो सही हिम्मत खुदी में दोस्तो

साथ में फिर तो खुदा हो जाएगा।



साथ रहकर बात हमदम से करो

छोड़ते ही बेवफ़ा हो जाएगा।



कुछ मुहब्बत जो करें कुदरत से…

Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 10, 2016 at 1:30pm — 4 Comments

गजल( होते-होते कुछ हो जाता)

22 22 22 22

*********************

होते-होते कुछ हो जाता

वक्त सभी का मोल बताता।1



गाढ़े का जोड़ा धन धुँधला

बेसाबुन कोई धो जाता।2



हँसते रहते गाँधी बाबा

झुँझलाता कोई रिसिआता।3



रोते-मरते धन्ना कितने

चाय पिला चँदुआ मुसुकाता।4



नोट बड़े सब शून्य हुए हैं

छोटा लल्ला है इठलाता।5



चैन लुटा कितनों के घर का

काला धन कुछ बाहर आता।6



पीट रहे सब खूब लकीरें

वेग समय का बदला जाता।7



सोना दूभर करता… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 10, 2016 at 11:54am — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - ये अंदर से आयी है वो रोशनी है ( गिरिराज भंडारी )

122   122   122   122  

ये माना कि हर सम्त कुछ बेबसी है

मगर हौसलों की बची ज़िन्दगी है

 

बुझेगी नहीं चाहे आंधी भी आये  

ये अंदर से आयी है वो रोशनी है

 

लकीरें हथेली की सारी थीं झूठी

जो कहती थीं आगे खुशी ही खुशी है

 

वो भूँके या काटे, डसे आस्तीं को  

अगर आदमी था, तो वो आदमी है

 

बिना ज़हर वाले बने हैं गिज़ा सब

ये क़ीमत चुकाई यहाँ सादगी है

 

घराना उजालों का था जिनका, उनका    

सुना…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 9:33am — 5 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
चाहना उसकी मगर गल जाए वो...ग़ज़ल//डॉ. प्राची

वक्त के साँचे में जो ढल जाए वो।
फिर कहीं ना आपको खल जाए वो।

है उसे सौगन्ध पिघलेगा नहीं
चाहना उसकी मगर गल जाए वो।

सिसकियाँ भरती रही वो लाश बन
वक्त से कहती रही टल जाए वो।

आँधियाँ बन खुद बुझाते हो जिसे
कह रहे हो दीप सा जल जाए वो।

ज़िद तुम्हारी है हवा को बाँधना
दोष मत देना अगर छल जाए वो।

मौलिक और अप्रकाशित
डॉ.प्राची सिंह

Added by Dr.Prachi Singh on November 10, 2016 at 6:30am — 3 Comments

अजनबी की तरह (नज़्म) // आबिद अली मंसूरी!

जब चले थे कभी 

हम 
अनजान राहों पर..
एक दूसरे के साथ
हमसफ़र बनकर,
कितनी कशिश थी
मुहब्बत की..
उस
पहली मुलाकात में,
चलो..! फिर चलें हम
आज
उसी मुकाम पर
जहां मिले थे कभी..
हम
अजनबी की तरह!
===========
(मौलिक व अप्रकाशित)
___ आबिद अली  मंसूरी!

Added by Abid ali mansoori on November 9, 2016 at 10:25pm — 4 Comments

मिजारू, किकाजारू या इवाजारू (लघुकथा)) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बारी-बारी से पुराने और नये नोटों को वह बार-बार बारीकी से देख रहा था। पास ही बैठे उसके दोस्त ने पूछ ही लिया- "ऐसा क्या खास देख लिया पुराने और नये नोटों में? क्या सोच रहे हो?"



"देख रहा हूँ ख़ुद बन्दर बने हुए मुस्कराते अपने बापू को!"



"गांधी जी के तीनों बन्दरों की बात कर रहे हो!"



"हाँ, मिजारू, किकाजारू और इवाजारू!"



"क्या मतलब?"



"जापानी संस्कृति के अनुसार आँखें बंद किए हुए वाला 'मिजारू', कान बंद किए हुए वाला 'किकाजारू' और मुंह बंद किए हुए वाला… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2016 at 8:32pm — 2 Comments

अब, क्या बोलूं मैं ...

अब ,क्या बोलूं मैं ...

अब

क्या बोलूं मैं



जब

मेरे स्वप्निल शब्दों ने

यथार्थ का

आकार लेना शुरू किया

तो भोर की

एक रशिम ने

मेरे अंतरंग पलों पर

प्रहार कर दिया

मैं अनमनी सी

सुधियों के शहर से

लौट आयी

यथार्थ की

कंकरीली ज़मीन पर

मेरी उम्मीदों की मीनारें

ध्वस्त हो कर

मेरी पलकों की मुट्ठी से

निःशब्द

गिरती रही

तिल-तिल जुड़ने की आस में

मैं रेशा-रेशा

उधड़ती…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 9, 2016 at 8:27pm — 6 Comments

हम ग्यारह हैं (कविता)

हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये

दस बड़ी अजीब संख्या है

 

ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक

मैं हूँ

तुम शून्य हो

 

मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं

मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो

 

हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें

क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे

तो हम ग्यारह होंगे

दस नहीं

-------

(मौलिक एवंं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 9, 2016 at 8:02pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
“गुल्लक” (लघु कथा 'राज ')

 “बच्चों  की बहुत याद आएगी बेटी  इस बार मिंटू तो  बड़ा भी हो गया है और समझदार भी बहुत अच्छी अच्छी बातें करता है दस दिन कैसे कटे पता ही नहीं चला| बहुत कम छुट्टी लेकर आते  हो बेटा” नाश्ता खत्म करके प्लेट बहू की तरफ बढाते हुए मिंटू को प्यार से दुलारते हुए  देशराज ने पास बैठे अपने बेटे चन्दन से कहा |

 “ज्यादा छुट्टी कहाँ मिलती है पापा  मिंटू के स्कूल की भी समस्या है और फिर खुशबू की शादी में भी तो आना है फिर छुट्टी लेनी पड़ेगी” चन्दन ने कहा |

“हाँ बेटा वो तो है” कहकर पापा चन्दन की…

Continue

Added by rajesh kumari on November 9, 2016 at 6:44pm — 10 Comments

मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या (ग़ज़ल)

2122   1212   22

मुझको इस तरह देखता है क्या

मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या

बातें करता है पारसाई की

महकमे में नया-नया है क्या

आज बस्ती में कितनी रौनक है

कोई मुफ़लिस का घर जला है क्या

खोए-खोए हुए से रहते हो

प्यार तुमको भी हो गया है क्या

दिल मेरा गुमशुदा है मुद्दत से

फिर ये सीने में चुभ रहा है क्या

ढूँढ़ते रहते हैं ख़ुदा को सब

आजतक वो कभी मिला है क्या

लापता आजकल हैं…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on November 9, 2016 at 3:59pm — 5 Comments

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