Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 13, 2016 at 9:52am — 2 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2016 at 7:00am — 3 Comments
रात के सन्नाटे में
कहते हैं
आज भी रोती है वह नदी
जिन्होंने भारत में
पूर्व से पश्चिम की ओर
ऊंचाइयों पर
पथरीले कगारों के बीच से
बहती उस एक मात्र पावन चिर-कुमारिका
नदी का आर्तनाद कभी सुना है
जिन्होंने की है कभी उसकी
दारुण परिक्रमा
जो विश्व में
केवल इसी एक नदी की होती है ,
हुयी है और आगे होगी भी
वे विश्वास से कहते है -
‘इस नदी में नहीं सुनायी देती
रात में…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2016 at 8:00pm — 11 Comments
Added by Gurpreet Singh jammu on November 12, 2016 at 7:30pm — 2 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 12, 2016 at 6:55pm — 6 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 12, 2016 at 3:00pm — 6 Comments
उदास रात के साये में ख़्वाब पहने हुए
निकल पड़ा है मुसाफ़िर अज़ाब पहने हुए
डरा सकेगी नहीं जुगनुओं को तारीकी
निकल पड़े हैं वो तो आफ़ताब पहने हुए
नज़र-नज़र से मिली और खा गये धोक़ा
वो दिलफ़रेब मिली थी नक़ाब पहने हुए
यहाँ उदास मैं भी हूँ, वहाँ उदास वो भी है
बहार भी है ख़िज़ां के गुलाब पहने हुए
लो आ गया मिरा महबूब फिर ख़्यालों में
''सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए''
मौलिक व…
ContinueAdded by दीपक कुमार on November 12, 2016 at 9:30am — 4 Comments
मौसम तो कमोबेश वही था लेकिन घर का माहौल कुछ बदला बदला सा लग रहा था| ऑफिस से घर आने में लगभग एक घंटा लग जाता था इसलिए इस एक घंटे में देश दुनियां में क्या हुआ, इसका पता शर्माजी को घर पहुँचने पर ही लगता था| लेकिन घर पहुँचते ही टी वी खोलने का मतलब शेर के मुंह में हाथ डालना होता था| शर्माजी का घर पहुँचने का समय वैसे ही कुछ ऐसा था कि श्रीमतीजी का दिमाग चढ़ा ही रहता था और उसपर कहीं गलती से पहुँचते ही टी वी खोल दिया तो फिर पता नहीं क्या क्या सुनना पड़ जाता था| उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ, घर पहुँचते…
Added by विनय कुमार on November 11, 2016 at 10:24pm — 4 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 11, 2016 at 9:30pm — 2 Comments
एक सामयिक ग़ज़ल.....
(१२२ १२२ १२२ १२)
समाचार आया नए नोट का
गिरा भाव अंजीर-अखरोट का |
दवा हो गई बंद जिस रात से
हुआ इल्म फौरन उन्हें चोट का |
मुखौटों में नीयत नहीं छुप सकी
सभी को पता चल गया खोट का |
जमानत के लाले उन्हें पड़ गए
भरोसा सदा था जिन्हें वोट का |
नवम्बर महीना बना जनवरी
उड़ा रंग नायाब-से कोट का |
मकां काँच के हो गए हैं अरुण
नहीं आसरा रह गया ओट का…
ContinueAdded by अरुण कुमार निगम on November 11, 2016 at 4:30pm — 4 Comments
बह्र2122 2122 212
यार गर फिर बावफ़ा हो जाएगा
प्यार मेरा फिर हरा हो जाएगा।
साथ मिल कोशिश करें सब ही सही
तो जहाँ फिर खुशनुमा हो जाएगा।
हाँ पकड़ कर बह्र को गर तुम चलो
तो गजल कहना भला हो जाएगा।
हो अकेले में जरा गर हौंसला
फिर तो पीछे काफिला हो जाएगा।
हो सही हिम्मत खुदी में दोस्तो
साथ में फिर तो खुदा हो जाएगा।
साथ रहकर बात हमदम से करो
छोड़ते ही बेवफ़ा हो जाएगा।
कुछ मुहब्बत जो करें कुदरत से…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 10, 2016 at 1:30pm — 4 Comments
Added by Manan Kumar singh on November 10, 2016 at 11:54am — 4 Comments
122 122 122 122
ये माना कि हर सम्त कुछ बेबसी है
मगर हौसलों की बची ज़िन्दगी है
बुझेगी नहीं चाहे आंधी भी आये
ये अंदर से आयी है वो रोशनी है
लकीरें हथेली की सारी थीं झूठी
जो कहती थीं आगे खुशी ही खुशी है
वो भूँके या काटे, डसे आस्तीं को
अगर आदमी था, तो वो आदमी है
बिना ज़हर वाले बने हैं गिज़ा सब
ये क़ीमत चुकाई यहाँ सादगी है
घराना उजालों का था जिनका, उनका
सुना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 9:33am — 5 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on November 10, 2016 at 6:30am — 3 Comments
जब चले थे कभी
Added by Abid ali mansoori on November 9, 2016 at 10:25pm — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2016 at 8:32pm — 2 Comments
अब ,क्या बोलूं मैं ...
अब
क्या बोलूं मैं
जब
मेरे स्वप्निल शब्दों ने
यथार्थ का
आकार लेना शुरू किया
तो भोर की
एक रशिम ने
मेरे अंतरंग पलों पर
प्रहार कर दिया
मैं अनमनी सी
सुधियों के शहर से
लौट आयी
यथार्थ की
कंकरीली ज़मीन पर
मेरी उम्मीदों की मीनारें
ध्वस्त हो कर
मेरी पलकों की मुट्ठी से
निःशब्द
गिरती रही
तिल-तिल जुड़ने की आस में
मैं रेशा-रेशा
उधड़ती…
Added by Sushil Sarna on November 9, 2016 at 8:27pm — 6 Comments
हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये
दस बड़ी अजीब संख्या है
ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो
मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो
हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं
-------
(मौलिक एवंं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 9, 2016 at 8:02pm — 3 Comments
“बच्चों की बहुत याद आएगी बेटी इस बार मिंटू तो बड़ा भी हो गया है और समझदार भी बहुत अच्छी अच्छी बातें करता है दस दिन कैसे कटे पता ही नहीं चला| बहुत कम छुट्टी लेकर आते हो बेटा” नाश्ता खत्म करके प्लेट बहू की तरफ बढाते हुए मिंटू को प्यार से दुलारते हुए देशराज ने पास बैठे अपने बेटे चन्दन से कहा |
“ज्यादा छुट्टी कहाँ मिलती है पापा मिंटू के स्कूल की भी समस्या है और फिर खुशबू की शादी में भी तो आना है फिर छुट्टी लेनी पड़ेगी” चन्दन ने कहा |
“हाँ बेटा वो तो है” कहकर पापा चन्दन की…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 9, 2016 at 6:44pm — 10 Comments
2122 1212 22
मुझको इस तरह देखता है क्या
मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या
बातें करता है पारसाई की
महकमे में नया-नया है क्या
आज बस्ती में कितनी रौनक है
कोई मुफ़लिस का घर जला है क्या
खोए-खोए हुए से रहते हो
प्यार तुमको भी हो गया है क्या
दिल मेरा गुमशुदा है मुद्दत से
फिर ये सीने में चुभ रहा है क्या
ढूँढ़ते रहते हैं ख़ुदा को सब
आजतक वो कभी मिला है क्या
लापता आजकल हैं…
ContinueAdded by जयनित कुमार मेहता on November 9, 2016 at 3:59pm — 5 Comments
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