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रात के सन्नाटे में

कहते हैं

आज भी रोती है वह नदी

 

जिन्होंने भारत में

पूर्व से पश्चिम की ओर

ऊंचाइयों पर

पथरीले कगारों के बीच से

बहती उस एक मात्र पावन चिर-कुमारिका

नदी का आर्तनाद कभी सुना है

 

जिन्होंने की है कभी उसकी

दारुण परिक्रमा

जो विश्व में

केवल इसी एक नदी की होती है ,

हुयी है और आगे होगी भी

 

वे विश्वास से कहते है -

‘इस नदी में नहीं सुनायी देती

रात में कल-कल ध्वनि

न कोई गीत न संगीत

अपितु गूंजती हैं सिसकियाँ

उच्छ्वास, चीत्कार, क्रंदन’

 

उस नदी से

जिसे मिला है प्रलय में भी 

नष्ट न होने का वरदान 

जिसकी शुचिता के कारण

जिसके चिर कौमार्य के मान में

कोई भी नहीं करता

उस सरिता में निर्वसन स्नान

 

कभी हुआ था उसे प्यार

एक नद से

जो उसके साथ ही खेला था 

पला था, बड़ा हुआ था

अमर कंटक की पहाड़ियों में

जल-स्रोतों, प्रपातों और झरनों के बीच

और उनके बीच पनपा था

नैसर्गिक अनुराग

 

कितनी इठलाती थी वह

जब साझा करती थी वह

अपना प्रेम -प्रसंग 

अपनी प्रिय सहेली जोहिला के साथ 

जो उसकी दासी भी थी, राजदार भी 

और वहीं पली थी अमरकंटक में

उसी के साथ

 

कितनी प्रसन्न थी वह

जब शोण-नद से तय हुआ था

उसका व्याह

जोहिला के साथ झूम कर नाची थी वह

उसकी उर्मिल, फेनिल, हीरक तरंगो ने

छुआ था आसमान

 

ज्यों-ज्यों निकट आता गया समय

उतनी ही उसकी बढ़ती गयी उत्कंठा 

पर शोण ने की देर  

नदी के सब्र का बाँध

मानो लगा टूटने  

 

उसने जोहिला से कहा- ‘वह जाये

शोण को ससम्मान शीघ्र लेकर आये’

जोहिला ने कहा- ‘मैं तेरे हित जाऊंगी

पर दासी बन कर नही

सखी बनूंगी तेरी

तेरे अंग-वस्त्र पहनूंगी

इतना ही नहीं बन्नी

तेरे भूषण भी धारूंगी ‘

 

‘एवमस्तु बहना पर उलटे पाँव लौटना ‘

 

उद्दाम यौवन से भरपूर

थी जोहिला

ऊपर से सखी के वस्त्र

आभूषण का साज  

पावसी नदी की भाँति निर्बंध, अनिस्तार

शोण से मिलने यूँ चली

मानो वह नद न हो, महानद न हो

कोई महासागर हो 

 

सामने से आ रहा था शोण का प्रवाह-रथ

अद्भुत प्रचंड आवेश था शोण का

जोहिला भी कम नहीं

अपनी प्रेयसी के वस्त्र

और आभरण से शोण धोखा गया

जोहिला को रेवा समझ उसी में समा गया    

आज भी गवाह है दशरथ-घाट इसका

दारुण मिलन का

 

शोण तब नहीं जानता था

उसकी भावी पत्नी नहीं थी

आगंतुका

बल्कि यह कि वह महज एक दासी थी

छल किया था जिसने

अपनी सखी से और उस शोण से भी 

 

पीछे से हठात

तभी रेवा वहाँ आ गयी

चिर सुकुमारिका, कन्यका कुमारिका

जोहिला को रोम-रोम शोण में समाया देख 

फेर ली आँख उसने घृणा और शर्म से

साथ ही फेर लिये वापस

अपने कदम 

नहीं जायेगी अब

प्राची की ओर वह   

और फिर चल पडी वह सहज एकाकी 

उस दिशा पथ पर पश्चिम की ओर

जिधर प्रायशः

भारत की नदियाँ नहीं जाती

 

पीछे से

पुकारता रहा स्तब्ध,

अपने आप से ठगा गया

वह हतभाग्य शोणभद्र  

किन्तु नहीं लौटी वह पुण्यसलिला

चिर सुकुमारिका

जो आज भी रोती है उस विश्वासघात से

जो किया उसकी सहेली ने

और उसके प्रिय ने

 

रात के सन्नाटे में

जंगल में, बियाबान में

अँधेरे में मैदान में

लोग सुनते है

नर्मदा का क्रंदन

आप भी चाहते हैं

यदि सत्य यह जानना

तो कभी किसी रात को तट पर जाइये

और शिवपुत्री को रोता हुआ पाइए

आप सुनेंगे वहां    

ऐसा अवसाद गीत जिसका कोई अंत नहीं

क्योंकि  प्रलयकाल में भी 

नष्ट नहीं होगी वह

ऐसा वरदान है   

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 937

Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2016 at 4:37pm

आ० सरना जी , ह्रदय से आभार 

Comment by Sushil Sarna on November 17, 2016 at 3:08pm

वाह आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब वाह .... अमुपम,अप्रतिम और भावों की कल कल करती सरिता ... आनंद आ गया ... इस हृदयग्राही सृजन के लिए हार्दिक हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2016 at 2:51pm

आ० विजय निकोर जी , अनुग्रहीत हूँ .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2016 at 2:50pm

आदरणीय दादा श्री . बहुत  आभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2016 at 2:49pm

बृजेश कुमार जी , बहुत बहुत आभार . 

Comment by vijay nikore on November 16, 2016 at 11:21pm

इतना स्वच्छ, इतना ऊँचा भाव.... आनन्द आ गया पढ़ कर, आदरणीय गोपाल नारायन जी। बार-बार पढ़ी, और "और" भी अच्छी लगी यह रचना।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on November 16, 2016 at 10:41pm
आदरणीय डॉ साहब, अच्छी लगी आपकी कविता जिसके माध्यम से एक करुण कथा को जीवंत किया गया है - नर्मदा के प्रवाह की तरह. अभिनंदन.
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 15, 2016 at 9:37pm
कुछ ही रचनायें होतीं हैं जिन्हें पढ़कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं...आपकी रचना मेरी नजर में उसी श्रेणी की है...नमन है लेखनी को
Comment by Samar kabeer on November 14, 2016 at 2:22pm
शुक्रिया मुहतरम ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 13, 2016 at 8:30pm

आ० समर कबीर साहिब  आपका आभार . नद शब्द नदी का पुल्लिंग है . सादर .

कृपया ध्यान दे...

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