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बशीर बद्र साहब की जमीन पर एक तरही ग़ज़ल

अरकान-: मफ़ाइलुन फ़्इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन



नया ज़माना नया आफ़ताब दे जाओ

मिटा दे जुर्म जो वो इन्क़िलाब दे जाओ



हज़ार बार कहा है जवाब दे जाओ,

मैं कितनी बार लुटा हूँ हिसाब दे जाओ||



मुझे पसंद नही मरना इश्क़ में यारो,

मुझे है शौक़ नशे का शराब दे जाओ||



वो कह रहे हैं खड़े होके बाम पर मुझ से,

तमाशबीन बहुत हैं नक़ाब दे जाओ ||



करम करो ये मेरे हाल पर चले जाना

*उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ*||



अगर जगाना है सोए हुओं को ऐ… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 25, 2017 at 1:31pm — 41 Comments

ग़ज़ल -वज़ीरों में हुआ आज़म, बना वह अब सिकंदर है

काफिया : अर ;रदीफ़ : है

बह्र ; १२२२  १२२२  १२२२  १२२२

वज़ीरों में हुआ आज़म, बना वह अब सिकंदर है

विपक्षी मौन, जनता में खमोशी, सिर्फ डरकर है |

समय बदला, जमाने संग सब इंसान भी बदले

दया माया सभी गायब, कहाँ मानव? ये’ पत्थर हैं |

लिया चन्दा जो’ नेता अब वही तो है अरब धनपति 

जमाकर जल नदी नाले, बना इक गूढ़ सागर है |

ज़माना बदला’ शासन बदला’ बदली रात दिन अविराम

गरीबो के सभी युग काल में अपमान मुकद्दर है…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on October 25, 2017 at 11:00am — 8 Comments

ख़त हमारे अगर जलाता है ; ग़ज़ल नूर की

२१२२/ १२१२/ २२ (११२)

ख़त हमारे अगर जलाता है

राख दुनिया को क्यूँ दिखाता है.

.

हम को उम्मीद है तो ग़ैरों से,

कौन अपनों के काम आता है?

.

सुन रखी होगी आग जंगल की

क्यूँ शरर को हवा दिखाता है.

.

शम्स मुझ सा शराबी है शायद 

शाम ढलते ही डूब जाता है.

.

ज़र्द चेहरा है बाल बिखरे हैं

इस तरह कौन दिल लगाता है.

.

देख! दुनिया का कुछ नहीं होगा

ख्वाहमखाह इस में सर खपाता है.

.

इस पे चलता है रब्त का धंधा

कौन क्या…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on October 24, 2017 at 1:00pm — 34 Comments

हवा में - डॉo विजय शंकर

हमने एक मकान बनाया ,
सबसे पहले
छत को बनाया ,
चढ़ कर उस पर
उछले-कूदे ,
खूब चिल्लाये ,
नाचे- गाये ,
देख आसमान ,
खूब इतराये ,
लगा , लपक कर
छू लेंगें ,
मुठ्ठी में नभ कर लेंगें ,
और जब नीचे झाँका , देखा ,
अचानक तब घबराये ,
हा , बुनियाद ,
कहाँ छोड़ आये।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 24, 2017 at 10:29am — 21 Comments

जिन्हें आदत पड़ी हर बात में आँसू बहाने क़ई (ग़ज़ल)

अरकान-: मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन



जिन्हें आदत पड़ी हर बात में आँसू बहाने की,

तमन्ना वो न पालें फिर किसी से दिल लगाने की



सर-ए-महफ़िल कभी पर्दा नहीं करता था वो ज़ालिम

तो फिर अब क्या ज़रूरत पड़ गई है मुँह छुपाने की



लिखूंगा बात जो सच हो बिना डर के ज़माने में,

यहीं इक शर्त थी ख़ुद से कलम अपनी उठाने की



ख़बर अपनी नहीं रहती मुझे, हालात ऐसे हैं

खबर क्यूँ पूछते हो फिर मियाँ सारे जमाने की



बना ख़ुद रास्ता अपना हुनर है तेरे हाथों… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 24, 2017 at 5:47am — 20 Comments

याद आ जाती है फिर उलझी कहानी आपकी

2122 2122 2122 212

जब कभी भी देखता हूँ वो निशानी आपकी ।

याद आ जाती है फिर उलझी कहानी आपकी ।।



आज मुद्दत बाद ढूढा जब किताबों में बहुत ।

मिल गयी तस्वीर मुझको वह पुरानी आपकी।।



बेसबब इनकार कर देना मुहब्बत को मेरे ।

कर गई घायल मुझे वो सच बयानी आपकी ।।



याद है वह शेर मुझको जो लिखा था इश्क़ में ।।

फिर ग़ज़ल होती गई पूरी जवानी आपकी ।।



इक शरारत हो गई थी जब मेरे जज़्बात से ।

हो गईं आँखें हया से पानी पानी आपकी ।।



कुछ अना से कुछ… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 24, 2017 at 12:16am — 16 Comments

कविता: जो खुद को सेकुलर नहीं मानते उनके लिए

बाहर हैं तो अभी सीधा घर जाइये

घर जाकर टी.वी. में आग लगाइये

सभी जाति -धर्म के लोग दिखाई देगें

फिल्म - सीरियल पर नजर दौड़ाइये

बच्चों को उस स्कूल में डालिये

जहां आपकी जाति के शिक्षक होने चाहिये

सामान हर दुकान से मत खरीदिये

दुकान भी आपकी जाति धर्म की होनी चाहिए

किस धर्म के आदमी ने बनाया है ये सामान ?

अपनी जाति के दुकानदार से पुछवाईये

आप सेकुलर नहीं जो किसी के भी हाथ का खालें

इसलिए कुछ दिन…

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Added by जयति जैन "नूतन" on October 23, 2017 at 11:00pm — 9 Comments

पहनावा (कुण्डलियां)

पहनावा ही बोलता, लोगों का व्यक्तित्व ।
वस्त्रों के हर तंतु में, है वैचारिक स्वरितत्व ।।
है वैचारिक स्वरितत्व, भेद मन का जो खोले ।
नग्न रहे जब सोच, देह का लज्जा बोले ।
फैशन का यह फेर, नग्नता का है लावा ।
आजादी के नाम, युवा का यह पहनावा ।।
.............................................
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by रमेश कुमार चौहान on October 23, 2017 at 11:00pm — 4 Comments

सुख की एक लाश ...

सुख की एक लाश ...

एक अंतराल के बाद

विस्मृति भंग हुई

तो चेतना

सूनी आँखों से

उबलते लावों में

परिवर्तित हो

बह निकली

व्याकुलता के कुंड में

प्रश्नों की ज्वाला में तप्ती

असंख्य अभिलाषाओं को समेटे

जीवन के अंतिम क्षितिज पर

ज़िंदा थी

एक लाश

सुख की



छिल गए

भरे हुए

घाव सभी

जब स्मृति जल ने

अपने खारेपन से

उनपर नमक छोड़ दिया

जलती रही देर तक

मात हो चुकी बाज़ी की

अवचेतन में सोयी…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 23, 2017 at 8:16pm — 10 Comments

जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन:[कालिदास कृत ‘मेघदूत’ की कथा-वस्तु , तीसरा और अंतिम भाग ] - डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव

 महाकवि कालिदास ने मेघ का मार्ग अधिकाधिक प्रशस्त करने के ब्याज से प्रकृति के बड़े ही सूक्ष्म और मनोरम चित्र खींचे है, इन वर्णनों में कवि की उर्वर कल्पना के चूडांत निदर्शन विद्यमान है  जैसे - हिमालय से उतरती गंगा के हिम-मार्ग में जंगली हवा चलने पर देवदारु के तनों से उत्पन्न अग्नि की चिंगारियों से चौरी गायों के झुलस गए पुच्छ-बाल और झर-झर जलते वनों का ताप शमन करने हेतु यक्ष द्वारा मेघ को यह सम्मति देना कि वह अपनी असंख्य जलधाराओं से वन और जीवों का संताप हरे .

मेघ को पथ निर्देश करता यक्ष…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 23, 2017 at 12:20pm — 4 Comments

भुजंगप्रयात छंद (प्रथम प्रयास)

122 122 122 122

जहाँ ये दिलों की दगा का अखाड़ा,
किसी ने मिलाया किसी ने पछाड़ा;
यहाँ प्यार है बेसहारा बगीचा,
किसी ने बसाया किसी ने उजाड़ा;

.
मौलिक और अप्रकाशित

Added by Ramkunwar Choudhary on October 23, 2017 at 9:30am — 10 Comments

ग़ज़ल - इश्क में हो खुमार कुछ तो सही

बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 112 / 22

इश्क में हो खुमार कुछ तो सही।

उसमें आये निखार कुछ तो सही।



दर्देदिल का मज़ा है तब असली,

तीर हो दिल के पार कुछ तो सही।



हो भले झूठ मूठ का लेकिन,

उनसे हो प्यार वार कुछ तो सही।



आज फिर याद उनकी आई है,

दिल हुआ बेकरार कुछ तो सही।



बेवफाई हो जिसकी रग रग में,

वो भी हो शर्मसार कुछ तो सही।



जिन्दगी सौंप दूँ उसे लेकिन,

उसपे हो ऐतबार कुछ तो सही।



इश्क का भूत… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 23, 2017 at 5:51am — 8 Comments

दीवाली (कामरूप छन्द, एक प्रयास)

दीपावली पर, ज्योत घर घर, अलौकिक सृंगार

वातावरण में, प्रभु चरण में, भक्ति का संचार

सब लोग पुलकित, बाल हर्षित, बाँटते उपहार

लड़ियाँ लगाते, सब सजाते, स्वर्ग सा घर द्वार



हर घर अटारी, खेत क्यारी, लौ दिखे चहुँओर

सारे नगर में, हर डगर में, पटाखों का शोर

दीपक जले जब, तब मिले सब, धरा औ आकाश

सद्भाव सुरभित, तन सुशोभित, हो कलुष का नाश



मौसम गुलाबी, दिल नवाबी, औ अमावस रात

अद्भुत समागम, दीप माध्यम, दे तमस को मात

जगमग सितारे, आज सारे, अचम्भित… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 23, 2017 at 5:42am — 9 Comments

" पर्दा हटाना हो गया "

बहर - 2122 2122 2122 212



एक तितली का चमन मे आना जाना हो गया .....

देख ..उसको एक गुल यारों दिवाना हो गया ....



उनकी हर तस्वीर मेरे दिल मे धुँधली हो गई

उनको .. देखें दोस्तों जो इक ज़माना हो गया ....



देख मुझको वो मुसलसल मुस्कुराती ही रही

क्या.... सही मेरी निग़ाहों का निशाना हो गया ....



एक बच्चा खा रहा था कूड़े से जूठन , उसे

देखकर ....मेरे लबों से दूर दाना हो गया ..



जी , शहद जितनी मुझे हर पल मिठास आने लगी

अपना रिश्ता लगता… Continue

Added by पंकजोम " प्रेम " on October 22, 2017 at 7:30pm — 16 Comments

असली छलांग (लघुकथा)

काम करते करते अनायास ही सुनील का ध्यान दिवार पर टँगी हुई एक तस्वीर पर पड़ी : दो पहाड़ ,उसके बीच एक बड़ा सा फासला , उस पार जाने के लिए एक व्यक्ति की छलांग ! दूसरी ओर उसने अपनी नज़र अपने ऑफ़िस की टेबल पर डाली ,पैतीस साल पुरानी इस ऑफिस में जाने कितने उतार चढ़ाव के बीच उतने ही संख्या में सावन देख चूका था सुनील ।

आज वह एक बंगले का मालिक था , नौकर चाकर थे , पर यहाँ तक पहुँचने में उसको कभी याद नहीं आता कि उसने कभी छलांग लगायी हो , उसके इर्द गिर्द जो भी उसने बसाया था उसमें उसके पसीने की महक थी । अपने… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 22, 2017 at 6:43pm — 9 Comments

ग़ज़ल

काफिया –आँ , रदीफ़ –पर

बहर : १२२२  १२२२  १२२२  १२२२

कुटिल जैसे बिना कारण, किया आघात नादाँ पर

भरोषा दुश्मनों पर है, नहीं है फ़क्त यकजाँ  पर |



अयाचित आपदा का फल, कहे क्या? अब पडा जाँ पर

गुनाहों की सज़ा मिलती है’, फिर क्यों प्रश्न जिन्दां पर ?

चुनावों में शरारत कर, सभी सीटों को’ जीता है

सिकंदर है वही जो जीता,’ क्यों आरोप गल्तां  पर ?

वो’ मूसलधार बारिश, कड़कती धूप सूरज की

सभी मिलकर उजाड़े बाग़ को,…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on October 22, 2017 at 2:50pm — 2 Comments

लम्बे रदीफ़ की ग़ज़ल (कज़ा मेरी अगर जो हो)

गुणीजनों के सुझाव के हेतु।

काफ़िया=आ

रदीफ़= *मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर*

1222×4



खता मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर,

सजा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।



वतन के वास्ते जीना, वतन के वास्ते मरना,

वफ़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।



नशा ये देश-भक्ति का, रखे चौड़ी सदा छाती,

अना मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खातिर।



रहे चोटी खुली मेरी, वतन में भूख है जब तक,

शिखा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 22, 2017 at 11:11am — 16 Comments

'ग़ालिब'की ज़मीन में एक ग़ज़ल

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फाइलुन



दूर कितनी शादमानी और है

कुछ दिनों की जाँ फिशानी और है



मेरे फ़न की दाद सबने दी मुझे

आपकी बस क़द्रदानी और है



हो चुकीं सब मौत की तैयारियाँ

दोस्तों की नोहा ख़्वानी और है



है ख़बर सबको बहादुर वो नहीं

उसकी वज्ह-ए-कामरानी और है



दास्तान-ए-इश्क़ तो तुम सुन चुके

ज़िन्दगानी की कहानी और है



दोस्तों से तो मुआफ़ी मिल गई

मुझको ख़ुद से सरगरानी और है



लग रहा है उनकी बातों से "समर"

उनके… Continue

Added by Samar kabeer on October 22, 2017 at 10:56am — 45 Comments

मृत्यु : पूर्व और पश्चात्

मृत्यु...

जीवन का वह सत्य

जो सदियों से अटल है

शिला से कहीं अधिक।

मृत्यु पूर्व...

मनुष्य बद होता है

बदनाम होता है

बुरी लगती हैं उसकी बातें

बुरा उसका व्यवहार होता है।

मृत्यु पूर्व...

जीवन होता है

शायद जीवन

नारकीय

यातनीय

उलाहनीय

अवहेलनीय।

मृत्यु पूर्व...

मनुष्य, मनुष्य नहीं होता

हैवान होता है

हैवान, जो हैवानियत की सारी हदें

पार कर देना चाहता…

Continue

Added by Mahendra Kumar on October 22, 2017 at 9:33am — 18 Comments

लघुकथा--लूट

भोला ने हाँफते-हाँफते घर में प्रवेश किया और माँ से बोला -" जल्दी से दे......जल्दी से दे....देर न कर...बाहर लूट मची है....लूट मची है... मुझे भी लूटकर लाना है.....।"

" मगर क्या दे दूँ..... किस चीज की लूट मची है....मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा बेटा....?"

" दो-चार खाली डिब्बे और कुछ प्लास्टिक की बोतलें दे दे ।'

" लेकिन क्यों ?"

" तू नहीं समझेगी माँ । कल रात अयोध्या में नई सरकार ने लाखों की संख्या में दीए जलाए थे । दीयों में बचा तेल हमारे जैसे कई गरीब के बच्चे लूट के ले जा रहे हैं… Continue

Added by Mohammed Arif on October 22, 2017 at 7:02am — 26 Comments

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