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जुलाहा ....

मैं
एक जुलाहा बन
साँसों के धागों से
सपनों को बुनता रहा
मगर

मेरी चादर
किसी के स्वप्न की
ओढ़नी न बन सकी
जीवन का कैनवास
अभिशप्त सा  बीत गया
पथ की गर्द में
निज अस्तित्व
विलीन हुआ
श्वासों का सफर
महीन हुआ
मैं जुलाहा
फिर भी
सपनों की चादर
बुनता रहा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on November 2, 2017 at 8:00pm

आदरणीय विजय निकोर साहिब , प्रणाम ... सृजन के भावों को अपने कोमल शब्दों से मान देने का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on November 2, 2017 at 8:00pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब .. प्रस्तुति के अहसासों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से आभार।

Comment by vijay nikore on November 1, 2017 at 4:54pm

इतने कोमल एहसास ! वाह !

आनन्द आ गया, आदरणीय भाई सुशील जी।

Comment by Samar kabeer on November 1, 2017 at 2:39pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत प्यारी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on October 31, 2017 at 3:59pm

आदरणीय मो.आरिफ साहिब, आदाब , सृजन आपकी मन मुदित करती प्रशंसा का दिल से आभारी है।

Comment by Sushil Sarna on October 31, 2017 at 3:59pm

आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on October 31, 2017 at 3:59pm

कल्पना भट्ट (रौनक़) जी सृजन के भावों की सराहना हेतु आपका तहे दिल से शुक्रिया।

Comment by Mohammed Arif on October 30, 2017 at 10:21pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब,बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 30, 2017 at 7:13pm
आदरणीय सुशील जी बहुत ही मनभावन हम जैसे कितनो की ही कहानी आप की जुवानी बेहद भाई रचना पर हार्दिक बधाई सादर
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 30, 2017 at 5:57pm

वाह बहुत ही बढ़िया रचना हुई है ,आदरणीय सुशिल जी , हार्दिक बधाई |

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