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नई सीख

इस नगर में

मेरे कुछ सपने

हुए साकार

और कुछ

बिखरे किरचियाँ बन

पर

इन सपनों की

फ़ेहरिस्त थी लम्बी

इन्हें पूरा करने

जी जान से थी जुटी

कभी

भावुकता में बही

तो कभी

व्यावहारिकता ओढ़ी

कहीं

करना पड़ा संघर्ष

इसके

विद्रोही मोड़ों पर

लेकिन

इस नगर की

एक बात है ख़ास

मुस्कुराहटों में इसने

दिया मेरा साथ

पर एक बात

है इसकी…

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Added by vijayashree on August 31, 2013 at 10:00pm — 12 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हे धर्मराज!.............डॉ० प्राची

हे धर्मराज! स्वीकार मुझे, प्रति क्षण तेरा संप्रेष रहे

यह जीवन यज्ञ चले अविरल, निज प्राणार्पण हुतशेष रहे

 

लोभ-मोह के छद्माकर्षण, प्रज्ञा से नित कर विश्लेषण,

इप्सा तर्पण हो प्रतिपूरित, मन में तृष्णा निःशेष रहे,

यह जीवन यज्ञ चले अविरल, निज प्राणार्पण हुतशेष रहे

 

कर्तव्यों का प्रतिपालन कर,निष्काम कर्म प्रतिपादन कर,

फल से हो सर्वस मुक्त मनस,बस नेह हृदय मधु-शेष रहे,

यह जीवन यज्ञ चले अविरल निज प्राणार्पण हुतशेष…

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Added by Dr.Prachi Singh on August 31, 2013 at 8:30pm — 37 Comments

अंध-न्याय की देवि ही, खड़ी निकाले खीस-

टला फैसला दस दफा, लगी दफाएँ बीस |
अंध-न्याय की देवि ही, खड़ी निकाले खीस |


खड़ी निकाले खीस, रेप वह भी तो झेले |
न्याय मरे प्रत्यक्ष, कोर्ट के सहे झमेले |


नाबालिग को छूट, बढ़ाए विकट हौसला |
और बढ़ेंगे रेप, अगर यूँ टला फैसला ||

.

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on August 31, 2013 at 6:30pm — 11 Comments

अमृता, तुम नहीं हो फिर भी....

एहसासों की लेखनी में श्रेष्ठ कवयित्री अमृता जी के जन्म दिन के उपलक्ष्य में मेरी एक अदना सी कोशिश, उनको बयां कर पाना आसां नहीं है,बस कोशिश की है....

नज्मों को सांसें

लम्हों को आहें

भरते देखा

अमृता के शब्दों में

दिन को सोते देखा

सूरज की गलियों में

बाज़ार

चाँद पर मेला लगते देखा 

रिश्तों में हर मौसम का

आना - जाना देखा

अपने देश की…

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Added by Priyanka singh on August 31, 2013 at 5:00pm — 25 Comments

स्त्री मन की गाठें

कितने ही मरुथल

छूट गये पीछे

पगली आशाओं को

मुट्ठी में भींचे

नदिया सी रेतीली

राहों में बहती

कलुष भी वहन करतीं

धाराएँ जीवन की

अवचेतन में, गुपचुप

सुख दुःख को बांचें

स्त्री मन की गाठें-

अनगिन असंख्य गाठें !

दादी अम्मा का

भैय्या को दुलराना

चुपके से, दूध- भात

गोद में खिलाना

किन्तु 'परे हट' कहकर,

उसे दुरदुराना

रह- रहकर कोचें

वह शैशव की फासें

स्त्री मन की गाठें-

अनगिन असंख्य गाठें !

जागी…

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Added by Vinita Shukla on August 31, 2013 at 3:04pm — 16 Comments

शब्द नहीं आते है ( कविता )

शब्द नहीं आते है

 

देख दुर्दशा   

सुन कर व्यथा

गूँजता करुण क्रंदन  

न पिघला मानव मन

कुछ कहने को शब्द नहीं आते है ....

लुट रही अस्मिता

मिट रहा सुहाग

छिन रहे माँओ के लाल

रक्तरंजित हो रही धरा

व्यथा सुनाने को शब्द नहीं आते है .......

जन्मांध न होकर भी जो

बन चुके धृतराष्ट्र

हलक तक शुष्क हो चला  

जिह्वा चिपक गई तालु से

पुकार लगाने को शब्द नहीं आते हैं…

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Added by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 12:30pm — 16 Comments

गंदी नाली के कीड़े ( लघु कथा )

बड़े साहब की गाड़ी जैसे ही चौराहे पर सिग्नल के लिए रुकी एक चौदह पंद्रह वर्षीय बालक हाथ मे कपड़े का टुकड़ा लिए उनकी गाड़ी की तरफ लपका और फटाफट शीशे चमकाने लगा । शायद ये लोग कुछ पैसों की खातिर अपनी जान को जोखिम मे डाले फिरते है । क्या करे पेट की आग और गरीबी की मार कुछ भी करवाती है । बड़े साहब ने नई मर्सिडीज़ खरीदी थी उस पर उस बच्चे के गंदे हाथ देख तिलमिला गए , उतरे और एक झन्नाटे दार थप्पड़ उसके कोमल गाल पर जड़ दिया , - “ यू रासकल्स ! गंदी नाली के कीड़े ! तेरी हिम्मत कैसे हुई गाड़ी को हाथ लगाने की ।”…

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Added by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 12:00pm — 30 Comments

नारी [ कुण्डलिया ]

नारी सबला जानिए ,देकर अनुपम प्यार
नारी से नर उपजिया ,मानस पटल सुधार |
मानस पटल सुधार , जान नारी जस माता
जैसे करता करम ,फल वैसा तभी पाता |
नारी माँगे मान,जान ना उसको अबला
देकर अनुपम प्यार,जान लो नारी सबला ||

.................

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Sarita Bhatia on August 31, 2013 at 9:57am — 15 Comments

ग़ज़ल : रखना ख्याल

रखना ख़याल शह्र का मौसम बदल न जाय

जुल्मत कहीं चराग़ की लौ को निगल न जाय

आमादा तो है नस्लकुशी पर अमीरे शह्र

डरता भी है कि उसका पसीना उबल न जाय

अजदाद से मिला जो…

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Added by Sushil Thakur on August 31, 2013 at 9:39am — 16 Comments

ग़ज़ल : याद है तुझको

2122 2122 2122 2122

शेर मेरे  ये  सभी यूं तो ज़माने के लिए हैं।

बेवफा से भी मुहब्बत ही जताने के लिए हैं।।



याद है तुझको कभी तू भी रहा है साथ मेरे।

याद भी तेरी जहां में भूल जाने के लिए हैं।।



चाहता है दर्द उसके सब मिटे दुनिया से कमसिन।

दर्द भी कुछ सीने पर ही तो लगाने के लिए हैं।।



दिल उन्होंने यूं संभाला जैसे कोई आइना हो।

आइना तो यार सब ही टूट जाने के लिए हैं।।



जख्म मेरे जो भी दुनिया से मिले है प्यार में वो।

जख्म ये सब यार उनसे ही…

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Added by Ketan Parmar on August 31, 2013 at 9:30am — 14 Comments

काठ की हांडी

काल के चूल्हे पर

काठ की हांडी

चढ़ाते हो बार बार .

हर बार नयी हांडी

पहचानते नहीं काल चिन्ह को

सीखते नहीं अतीत से .

दिवस के अवसान पर

खो जाते हो

तमस के…

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Added by Neeraj Neer on August 31, 2013 at 9:07am — 26 Comments

कर्तव्य बोध (लघुकथा)

खट- खट की आवाज सुनकर गली के कुत्ते भौंकने लगे। चोर कुछ देर शांत हो गये। थोड़ी देर बाद फिर से खोदने लगे। कुत्ते फिर भौंकने लगे।

चोरों ने डंडा मारकर कुत्तों को भगाना चाहा, लेकिन कुत्ते निकले निरा ढीठ, वे और तेज भौंकने लगे। लाल मोहन ही क्या अब तो सारा मुहल्ला जाग चुका था । लेकिन किसी ने अपने बिस्तर से उठकर बाहर यह पता करने की ज़हमत नहीं उठायी कि कुत्ते भौंक क्यों रहे थे ।

सुबह-सुबह पूरे मुहल्ले में यह ख़बर आग बनी थी, लाल मोहन लुट चुका है।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 31, 2013 at 8:00am — 20 Comments

जिए जा रहा हूँ..

रुसवाईयां ही रुसवाईयां

दूर तलक गम की

कोई ख़ुशी नही है अब

चैन कहाँ मिले...



परछाईयां ही परछाईयां

हर वक़्त अतीत की

कोई  भोर नही है अब

रोशनी कहाँ मिले...



अंगड़ाईयां ही अंगड़ाईयां

रोज एक थकन की

कोई आराम नही है अब

कहाँ शाम ढले...



तन्हाईयां ही तन्हाईयां

इस अकेलेपन की

कोई साथ नही है अब

जीना है अकेले...



न ख़ुशी न सुकून

न आराम

न साथ किसी का

फिर भी जिए जा रहा हूँ....…



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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on August 31, 2013 at 12:30am — 26 Comments

ग़ज़ल : ध्यान रहे सबसे अच्छा अभिनेता है बाजार

बह्र : मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन फा

------------

छोटे छोटे घर जब हमसे लेता है बाजार

बनता बड़े मकानों का विक्रेता है बाजार

 

इसका रोना इसका गाना सब कुछ नकली है

ध्यान रहे सबसे अच्छा अभिनेता है बाजार

 

मुर्गी को देता कुछ दाने जिनके बदले में

सारे के सारे अंडे ले लेता है बाजार

 

कैसे भी हो इसको सिर्फ़ लाभ से मतलब है

जिसको चुनते पूँजीपति वो नेता है बाजार

 

खून पसीने से अर्जित पैसो के…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 30, 2013 at 7:09pm — 15 Comments

कविता - आरजू



सुहानी सुबह में

खिली थी नन्ही कली

बगिया गुलजार थी

मेरी मौजूदगी से

आने जाने वाले

रोक न पाते खुद को

नाजुक थी कोमल थी

महका करती थी

माली ने सींचा था

खून पसीने से

देखा था सपना

सजोगी कभी आराध्य पर

कभी शहीदों के सीने पर

फूल भी गौरवान्वित थी

अपनी इस कली पर

कर रही थी रक्षा कांटे भी

पते ढक कर सुलाती थी

कली तो अभी कली थी

उसने खुद के लिए कुछ

सोचा भी नहीं था

लापरवाह थी भविष्य से…

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Added by shubhra sharma on August 30, 2013 at 5:30pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
किसने कहा ? आप स्वतंत्र नही हैं ( एक चिंतन )

किसने कहा ? आप स्वतंत्र नही हैं  

आप तो स्वभाव से स्वतंत्र हैं

और पहले भी थे , सदा से थे ।

जैसे आप स्वतंत्र हैं

हाथ घुमाने के लिये

तब तक , जब तक कि ,

किसी का चेहरा न सामने आये ।

मुश्किल तो यही…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 30, 2013 at 3:30pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बेटी को बचा लो !!! (लघु कथा )

"भाभी कहाँ से लायी हो इतनी सुन्दर दुल्हन ? नजर ना लगे", श्यामला ने घूंघट उठाते ही कहा, "..ऐसा लगे है जैसे कौव्वा जलेबी ले उड़ा.."

दूर बैठी श्यामा ने जैसे ही दबी जबान में कहा, खिलखिलाहट से सारा कमरा गूँज उठा ।

"श्यामा भाभी कभी तो मीठा बोल लिया करो.. मेरा भतीजा कहाँ से कव्वा लगता है तुम्हे ? मेरे घर का कोई शुभ काम तुम्हे सहन नहीं होता तो क्यूँ आती हो ?" श्यामला ने आँखें तरेरते हुए श्यामा को कहा।



मुंह दिखाई का सिलसिला चल ही रहा था कि पड़ोस का नन्हें बदहवास-सा दौड़ता हुआ…

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Added by rajesh kumari on August 30, 2013 at 11:30am — 25 Comments

!!! मंदिरों की सीढि़यां !!!

!!! मंदिरों की सीढि़यां !!!

दर्द हृदय मे समेटे

नित उलझती,

आह! भरतीं

मंदिरों की सीढि़यां।

कर्म पग-पग बढ़ रहे जब,

धर्म गिरते ढाल से

आज मन

निश-दिन यहां

तर्क से

अकुला रहा।

घूरते हैं चांद.सूरज,

सांझ भी

दुत्कारती।

अश्रु झरने बन निकलते,

खीझ जंगल दूर तक।

शांत नभ सा

मन व्यथित है,

वायु पल-पल छेड़ती।

भूमि निश्छल

और सत सी

भार समरस ढो रही।

ठग! अडिग

अविचल ठगा सा,

राह…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 30, 2013 at 9:00am — 18 Comments

परिवर्तन

तुम मेरी बेटी नही 

बल्कि हो बेटा...

इसीलिये मैंने तुम्हें

दूर रक्खा शृंगार मेज से 

दूर रक्खा रसोई से 

दूर रक्खा झाडू-पोंछे से 

दूर रक्खा डर-भय के भाव से 

दूर रक्खा बिना अपराध 

माफ़ी मांगने की आदतों से 

दूर रक्खा दूसरे की आँख से देखने की लत से....

और बार-बार

किसी के भी हुकुम सुन कर 

दौड़ पडने की आदत से भी 

तुम्हे दूर रक्खा...

बेशक तुम बेधड़क जी…

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Added by anwar suhail on August 29, 2013 at 10:00pm — 12 Comments

कविता – प्रेम के स्वप्न ! (अभिनव अरुण)

कविता – प्रेम के स्वप्न



हां , बदल गयी हैं सड़कें मेरे शहर की

मेरा महाविद्यालय भी नहीं रहा उस रूप में

पाठ्य पुस्तकें , पाठ्यक्रम जीवन के

बदल गए हैं सब के सब

 

कई कई बरस कई कई कोस चलकर

जाने क्यों ठहरा हुआ हूँ मैं

आज भी अपने पुराने शहर  

शहर की पुरानी सड़कों पर

उन मोड़ों के छोर पर

बस अड्डे और चाय की दुकानों पर भी

जहां देख पाता था मैं तुम्हारी एक झलक

 

हाँ , मैंने तुम्हें…

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Added by Abhinav Arun on August 29, 2013 at 7:43pm — 31 Comments

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