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गज़ल - गांधियों के रूप में ढलते गए

बह्र -- रमल मुसद्दस महजूफ

२१२२, २१२२, २१२

हम चले थे आस में चलते गए

और वो सब हाथ ही मलते गए



खूबसूरत रुत न थी औ रहगुज़र

तीरगी की बाढ़ को छलते गए



खूब रोका कंटकों नें राह में

राह में हम फूल सा खिलते गए



कह रहीं थीं आँधियाँ रुक जा जरा

आँधियों सा राह में चलते गए



झूठ आया रूप धर के सामने

गांधियों के रूप में ढ़लते गए



देख सुन कह मत गलत बुनते रहे

वानरों के पेट भी पलते गए



या खुदा तूने न देखा… Continue

Added by Poonam Shukla on September 20, 2013 at 1:00pm — 20 Comments

हिन्दी (कुण्डली)

हिन्दी हिन्द की बेटी, ढूंढ रही सम्मान ।
घर गली हर नगर नगर, सारा हिन्दूस्तान ।।
सारा हिन्दूस्तान, दासत्व छोड़े कैसे ।
उड़ रहे आसमान, धरती पग धरे कैसे ।।
‘रमेश‘ कह समझाय, अपनत्व माथे बिन्दी ।
स्वाभीमान जगाय, ममतामयी है हिन्दी ।।
.....................................
मौलिक अप्रकाशित

Added by रमेश कुमार चौहान on September 20, 2013 at 11:30am — 9 Comments

तुम्हारे ही भरोसे हूँ

 1 2 2 2   1 2 2 2

कभी यूँ पास आ जाना

किया वादा निभा जाना /



गजब की यह फकीरी है

इसे तुम अब हटा जाना /



गरीबी हो अमीरी हो

कसम अपनी निभा जाना /



तुम्हारी आस आने की

जरा दिल में जगा जाना /

तुम्हारे ही भरोसे हूँ

भरोसा यह बढ़ा जाना /



दिलों को खोल कर अपने

गिले शिकवे मिटा जाना /

नहीं तकरार करना अब

हमें झट से मना जाना /



तुम्हें हम कह नहीं सकते

दिलों को अब मिला जाना…

Continue

Added by Sarita Bhatia on September 20, 2013 at 9:42am — 20 Comments

ग़ज़ल ..

१ २ २ २ / १ २ २ २ /१ २ २ २ 

न  मिलने का नया, उसका बहाना है.

उसे हर हाल बस, मेरा दिल दुखाना है .

कहाँ तक सुनें, कभी तो खत्म हो जाएँ,

नए किस्से नया, उसका हर फ़साना है.

जिसे देखो, वो संग ले हाथ में, दौड़े,

जहाँ में मुझ पागल का, क्या ठिकाना है .…

Continue

Added by shalini rastogi on September 19, 2013 at 11:12pm — 16 Comments

हे नियति!क्यों वेदना तूने मुझे कठोर दी?

हे विधि! क्यों आस पल में तूने तोड़ दी,

हे नियति!क्यों वेदना तूने मुझे कठोर दी?

एक ममता की आस,कुछ स्वप्नों के छोर,

नवजीवन का संचार,एक श्वांसों की डोर।

हाय ! पल में तूने क्यों तोड़ दी?

हे नियति! क्यों वेदना तूने मुझे कठोर दी?

एक 'माँ' का संबोधन,सुनने को व्याकुल मन,

एक नन्हा-सा जीवन,एक नवल शिशु-तन।

आह ! तूने नन्हीं देह मरोड़ दी।

हे नियति!क्यों वेदना तूने मुझे कठोर दी?

गर्भ धारण की समस्त पीड़ा,जो मैंने सही,

हृदय की वो वेदना,जो अंतरतम में…

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Added by Savitri Rathore on September 19, 2013 at 8:15pm — 18 Comments

कुण्डलिया [ प्यार ]

कर लो सब से दोस्ती, छोड़ो अब तकरार
जिंदगानी दो दिन की बांटो थोड़ा प्यार //
बांटो थोड़ा प्यार, यही है दौलत असली
प्यार स्नेह को मान ,बाकी सभी है नकली
धन दौलत सब छोड़ ,जीवन में प्यार भर लो
रहे कोई न गैर ,सब से दोस्ती कर लो //

................मौलिक व अप्रकाशित..........

Added by Sarita Bhatia on September 19, 2013 at 7:00pm — 13 Comments

क्यूँ तुझसे मुहब्बत इतनी करता हूँ

तेरी हर बात का  कायल मै  रहता हूँ

क्यूँ तुझसे मुहब्बत इतनी करता हूँ



सितारों संग अकेले बैठता  मै  जब

खुले दिल से तुम्हारी बात करता हूँ

नहीं मुमकिन अगर इस दौर में मिलना

ख्यालों में तुम्हे अपने मै  मिलता हूँ



बहुत सी बात करता में हमेशा जब

तेरा जिक्र खुद -ब -खुद जुबान करता हूँ
.
जुदाई का लम्हा बढता गया अब तो

क्यूँ अब भी मुहब्बत इतनी करता हूँ

मौलिक व…

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Added by Himanshu Jeena on September 19, 2013 at 1:00pm — 11 Comments

दंगाई महफूज, मार के निचले-तबके-

तब के दंगे और थे, अब के दंगे और |
हुड़दंगी सिरमौर तब, अब नेता सिरमौर |


अब नेता सिरमौर, गौर आ-जम कर करलें |
ये दंगे के दौर, वोट से थैली भर लें |


मरते हैं मर जाँय, कुचल कर बन्दे रब के |
दंगाई महफूज, मार के निचले-तबके ||

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on September 19, 2013 at 8:42am — 9 Comments

मैंने बस राख में हवा की है -अभिनव अरुण ||ग़ज़ल||

ग़ज़ल –

२१२२  १२१२  २२

तुझसे मिलने की इल्तिज़ा की है ,

माफ़ करना अगर खता  की है |

 

राज़ पूछो न मुस्कुराने का ,

चोट खायी तो ये दवा की है |

 

अब मुझे हिचकियाँ नहीं आतीं ,

मेरे हक़ में ये क्या दुआ की है |

 

फूल तो सौ मिले हैं गुलशन में ,

खुशबुओं की तलाश बाकी है |

 

तुम इसे शाइरी समझते हो ,

मैंने बस राख में हवा की है |

 

एक पत्थर ख़ुशी से पागल था ,

आईनों ने ये इत्तिला…

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Added by Abhinav Arun on September 19, 2013 at 4:30am — 46 Comments

ग़ज़ल : दिल हो गया है जब से टूटा हुआ खिलौना

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

 

दिल हो गया है जब से टूटा हुआ खिलौना

दुनिया लगे है तब से टूटा हुआ खिलौना

 

खेले न कोई इससे, फेंके न कोई इसको

यूँ ही पड़ा है कब से टूटा हुआ खिलौना

 

बेटा बड़ा हुआ तो यूँ चूमता हूँ उसको

अक्सर लगाऊँ लब से टूटा हुआ खिलौना

 

बच्चा गरीब का है रक्खेगा ये सँजोकर

देना जरा अदब से टूटा हुआ खिलौना

 

‘सज्जन’ कहे यकीनन होंगे अनाथ बच्चे

जो माँगते हैं रब से टूटा हुआ…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 18, 2013 at 10:30pm — 27 Comments

प्राण भरे

इक हलचल सी चौखट पर

नयनों में हैं स्वप्न भरे

 

उड़ता-फिरता इक तिनका

पछुआ से संघर्ष रहा

पेड़ों की शाखाओं पर

बाजों का आतंक रहा

 

तितली के इन पंखों ने   

कई सुनहरे रंग भरे

 

दूर क्षितिज की पलकों पर

इक किरण कुम्हलाई सी

साँझ धरा पर उतरी है

आँचल को ढलकाई सी

 

गहन तिमिर की गागर में

ढेरों जुगनू आन भरे

 

इन शब्दों के चित्रों में

दर्द उभर ही आते हैं

जाने…

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Added by बृजेश नीरज on September 18, 2013 at 10:30pm — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- ज़िन्दगी है बेरहम बस दौड़ती रफ्तार में

2122    2122    2122    212

अब तो बाहर आ ही जायें ख़्वाब से बेदार में

क़त्ल ,गारत, ख़ूँ भरा है आज के अख़बार में

कोई दागी है, तो कोई है ज़मानत पर रिहा 

देख लें अब ये नगीने हैं सभी सरकार में

 

कोई पूछे , सच बताये, धुन्ध क्यों फैला है…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on September 18, 2013 at 7:00pm — 40 Comments

श्राप

तुमने ठीक कहा था 
तुम्हारे बिना देख नही पाऊंगा मैं 
कोई भी रंग 
पत्तियों का रंग 
फूलों का रंग 
बच्चों की मुस्कान का रंग 
अज़ान का रंग 
मज़ार से उठते लोभान का रंग 
सुबह का रंग....शाम का रंग 
मुझे सारे रंग धुंधले दीखते हैं 
कुहरा नुमा...धुंआ-धुंआ...
और कभी मटमैला सा कुछ....

ये तुमने कैसा श्राप दिया है 
तुम ही मुझे श्राप-मुक्त कर सकते हो..
कुछ करो...
वरना पागल हो जाऊंगा मैं.....

(मौलिक अप्रकाशित)

Added by anwar suhail on September 18, 2013 at 7:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल- सारथी || बहुत चर्चा हमारा हो रहा है ||

बहुत चर्चा हमारा हो रहा है

इशारों में इशारा हो रहा है /१  

लकीरें हाथ की बेकार हैं सब 

समझिये बस गुजारा हो रहा है /२ 

न जाने रूह पर गुजरी है क्या क्या 

बदन का खून खारा हो रहा है /३ 

गगन के तारे क्यूँ जलने लगे हैं

कोई जुगनू सितारा हो रहा है /४  

तुम अपनी धड़कनों को साधे रखना 

तुम्हारा दिल हमारा हो रहा है/५ 
.............................................
बह्र : १२२२ १२२२ १२२ 
*सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Saarthi Baidyanath on September 18, 2013 at 6:00pm — 36 Comments

ग़ज़ल:ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़साना

मंज़िल पे खड़ा हो के सफ़र ढूँढ रहा हूँ

हूँ साए तले फिर भी शजर ढूँढ रहा हूँ

औरों से मफ़र ढूँढूं ये क़िस्मत कहाँ मेरी?

मैं खुद की निगाहों से मफ़र ढूँढ रहा हूँ 

दंगे बलात्कार क़त्ल-ओ-खून ही मिले

अख़बार मे खुशियों की खबर ढूँढ रहा हूँ

शोहरत की किताबों के ज़ख़ायर नही मतलूब

जो दिल को सुकूँ दे वो सतर ढूँढ रहा हूँ

ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़साना 

वाक़िफ़ नही मंज़िल से मगर ढूँढ रहा हूँ

ये हिंदू का शहर है…

Continue

Added by saalim sheikh on September 18, 2013 at 5:32pm — 14 Comments

ग़ज़ल

1 2 1 2 / 2 2 1 2 / 1 2 1 2 / 2 2 1 

 

न रंज करना ठीक है, न तंज करना ठीक 

जो दौर बीता उससे यूँ, न फिर गुज़रना ठीक.

 

कि आखिरी सच मौत, इससे क्यों हमें हो खौफ़

यूँ डर के इससे हर घड़ी, न रोज़ मरना ठीक .

 

हर्फे आखिरी है जो खुदा ने लिख भेजा किस्मत में,

बने जो आका फिरते, उनसे क्यों हुआ ये डरना ठीक.

 

कोशिश ही बस में तेरे, खुदा के हाथ अंजाम, 

भला लगे तो अच्छा है, बुरा भी वरना ठीक. 

 

लाजिम है वज़न बात…

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Added by shalini rastogi on September 18, 2013 at 5:30pm — 20 Comments

ग़ज़ल : जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के

बह्र -- रमल मुसद्दस महजूफ

२१२२, २१२२, २१२

मैं पपीहा प्यास में मरता रहा,

स्वाति मुझको जानकर छलता रहा,

सर्द गर्मी धूप हो या छाँव हो,

कारवां चलता चला चलता रहा,

श्राप ही ऐसा मिला था सूर्य को,

देवता होकर सदा जलता रहा,

धूल लेकर चल रहीं थी आंधियां,

आँख मैं मलता चला मलता रहा,

बात मन की मन ही मन में रह गई,

दर्द भीतर रोग बन पलता रहा,

जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के,

वक़्त मुझको…

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Added by अरुन 'अनन्त' on September 18, 2013 at 10:30am — 27 Comments

रविकर रोटी सेंक, बोलता जिन्दा रह मत-

रहमत लाशों पर नहीं, रहम तलाशो व्यर्थ |
अग्गी करने से बचो, अग्गी करे अनर्थ |


अग्गी करे अनर्थ, अगाड़ी जलती तीली |
जीवन-गाड़ी ख़ाक, आग फिर लाखों लीली |


करता गलती एक, उठाये कुनबा जहमत |

रविकर रोटी सेंक, बोलता जिन्दा रह मत ||

 

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on September 18, 2013 at 9:00am — 13 Comments

ग़ज़ल - जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत

आदरणीय चन्द्र शेखर पाण्डेय जी की ग़ज़ल से प्रेरित एक फिलबदी ग़ज़ल ....



२२ २२ २२ २२ २२ २

ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं

गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं



मैडम बोलीं आज बनाएँगे सब घर   

बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं

 

आईनों पर क्या गुजरी, क्यों सब के सब,   

पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं

 

धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है

हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं

जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत  

हम कितना सामान…

Continue

Added by वीनस केसरी on September 18, 2013 at 3:00am — 24 Comments

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