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All Blog Posts (19,138)

ग़ज़ल : मैं पिता जबसे हुआ चिंतित हुआ

वज्न : २१२२, २१२२, २१२

दूरियों का ही समय निश्चित हुआ,

कब भला शक से दिलों का हित हुआ,



भोज छप्पन हैं किसी के वास्ते,

और…

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Added by अरुन 'अनन्त' on September 15, 2013 at 11:27am — 56 Comments

मरियम

वो जन्नत है,वो रहमत है,वो मेराज-ए-मोहब्बत है
समंदर मेँ कहाँ, जो माँ की ममता में है गहराई

उसी की तरबियत से इस चमन में फूल खिलते हैँ
बिना मरियम के क्या ईसा और ईसा की मसीहाई

-सालिम शेख

मौलिक व अप्रकाशित

Added by saalim sheikh on September 15, 2013 at 10:59am — 5 Comments

!!! फकीरी में विरासत है !!!

!!! फकीरी में विरासत है !!!

जगो जालिम बढ़ो देखो

मिलन की र्इद आयी है,

दिवा से शाम तक सजदा

रात में तीर कसता है।



भुलाकर प्रेम की बातें

बढ़ाता द्वेष भावों को,

खुदा की शान को गाये

संभाले दीन की राहें।



मगर आयत भुला कर तू

सदा हैरान करता है,

करम है कत्ल अपनों का

बना तू पीर फिरता है।



गुनाहों को छिपाता है

खुदा को ताख में रखता,

चलाता तीर औ खंजर

नमाजी बन करे धोखा।



करे है घाव नश्तर से

छुरा…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 15, 2013 at 8:14am — 5 Comments

विदेशी भाषा एवं संस्कृति पर गर्व न करें ( हिंदी दिवस पर विशेष )

1 / आजादी के बाद ही हमें हिंदी को राष्ट्रभाषा, सरकारी कामकाज व न्यायालय की भाषा अनिवार्य रुप से घोषित कर देनी थी, पर अंग्रेज एवं भारत के अंग्रेजी पूजकों के बीच हुए समझौते ने और उसके बाद सत्ता पर बैठे अंग्रेजी समर्थकों ने भारत की आजादी को गुलामी का एक नया रुप दे दिया। “ तन से आजाद पर मन से गुलाम भारत का " और उसी दिन से शुरू हो गई भारत को धीरे - धीरे इंडिया बनाने की साजिश।

.

2 / आजादी के बाद सत्ता के चेहरे तो बदल गये पर चरित्र नहीं बदले। अंग्रेजों ने उन्हें पूरी तरह…

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Added by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 14, 2013 at 7:00pm — 16 Comments

रामभरोसे

रामभरोसे ट्रेफिक पुलिस में हवलदार था, ड्यूटी करके वो घर में घुसते हुए अपनी पत्नी को चिल्ला कर बोला, “पार्वती, सुनो! गुड़िया को डॉक्टर को दिखाया? कुछ खांसी में फर्क पड़ा?”

उनकी पत्नी ने जवाब दिया, “सरकारी हस्पताल गयी थी, लेकिन वहां डॉक्टर साहब ने देख कर बोला कि पूरा चेकअप करना होगा, बच्ची को शाम को घर पर लाओ|”

रामभरोसे सर से लेकर पाँव तक गुस्से से तरबतर हो गया| वो पत्नी से बोला, “ये डॉक्टर बस रुपये कमाना ही जानते हैं, जनता की सेवा करना नहीं| पता है ना कि सरकारी…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on September 14, 2013 at 4:30pm — 12 Comments

आदमी

अपनों को खोके बहुत रोता है आदमी,

यादों के जब बोझ को  ढोता है आदमी.

रिश्ते जो हो न सके कामयाब सफ़र में

उन्हीं को करके याद दामन भिगोता है आदमी

 

पहले काटता है पेड़,  जलाता है जंगलात ,

एक टुकड़ा छांव को फिर रोता है आदमी .

 

बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय,

पाता वही वही है जो बोता है आदमी ..

......... नीरज कुमार ‘नीर’

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Neeraj Neer on September 14, 2013 at 3:00pm — 13 Comments

सरकारी-राहत ( लघुकथा)

"इक तो तू  रोज दारू पीकर आता है, रोज समय से पहले भाग जाता है...और जो काम बताओ, उसे पूरा ही नहीं करता...ऐसा कर, कल से काम पे आना बंद कर..समझ !" रामेश्वर ने रोज रोज से तंगाकर गुस्से में कहा..

लखन ने बिना पछतावा किये, वहां से जाते हुए कहा..."अपने को क्या, सरकार इतना सस्ता राशन दे रही है, बच्चे स्कूल में दिन को खा ही आते है, घरवाली मजूरी करती ही है....अपनी बोतल...."

जितेन्द्र ' गीत '

( मौलिक व्  अप्रकाशित )

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on September 14, 2013 at 1:30pm — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नारी तू ये पंथ पुराना छोड़ दे

नारी तू ये पंथ पुराना छोड़ दे 

नई डगर पे अब क़दमों को मोड़ दे!!



राहों में जब

तेरी कंटक आयेंगे

उलझेंगे फिर

मन को बहुत डरायेंगे

आगे बढ़कर उस डाली को तोड़ दे

जहरीली मूलों को तू झिंझोड़ दे

नारी तू ये पंथ पुराना छोड़ दे!!

घर के तेरे

दरवाजे भी टोकेंगे

मर्यादा की

बैसाखी से रोकेंगे

आगे बढ़कर उनके रुख को मोड़ दे

घूंघट में छुप कर शर्माना छोड़ दे

नारी तू ये पंथ पुराना छोड़ दे!!

दुश्मन तेरे…

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Added by rajesh kumari on September 14, 2013 at 1:16pm — 19 Comments

हिंदी दिवस // कुशवाहा //

हिंदी दिवस // कुशवाहा //

----------------------------

दिन हुआ करते थे कभी अब

स्मृति कलश सजाये जाते हैं

प्रतीक रूप में चुन चुन उन्हें

नित दिवस मनाये जाते हैं

परम्परा तो स्वस्थ्य है

क्यों करें हम इनकार

इसी बहाने बनाते हम

हर दिवस को यादगार

-----------------------------

हिंदी

------------

अंग्रेजी उर्दू सौतन बनी

घर उजाड़ रही ये बहना

भारत की बिंदी है हिन्दी

देवनागरी स्वर्णिम गहना

हिंदी के गलबहियां…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on September 14, 2013 at 12:02pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- "भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही "

2122 2122 2122 212

भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही

*****************************

तेज़ से भी छटपटाहट तेज़ जब…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 11:30am — 25 Comments

मुक्तक (संदर-हिन्दी दिवस)

आता है हिन्दी दिवस जाने को तत्काल

संसंद में करते रहे, नेता टालम टाल

विकसित करना देश को तो मन में यह ठान

अपनी भाषा का सदा उन्नत रखना भाल |

(2)

हिन्दी में ही बोलकर रख भाषा का मान

भाषा की सम्पन्नता, है हिन्दी की शान

हीन भाव लाये बिना कर हिन्दी में बात

तब हिन्दी की विश्व में अमिट बने पहचान |

(3)

रोज मना हिन्दी दिवस करना गौरव गान

देवनागरी लिपि बनी, जो है इसकी शान

संस्कृति अरु साहित्य का उन्नत है भण्डार

सबको…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2013 at 10:00am — 17 Comments

हिंदी दिवस [दोहावली]

हिंदी मेरे हिन्द की ,संस्कृति की पहचान

मिसरी घोले कान में ,इसमें बसती जान //

संस्कृत की दिव्या सुता ,जन जन का आचार

लाकर अब व्यवहार में ,दो इसको विस्तार //



मातृभूमि की शान है ,देश का स्वाभिमान

हिंदी बिंदी मात की ,यह मेरा अभिमान //



पर्व एक हिंदी दिवस, मनालो संग प्यार

वारें इस पर जान हम ,दें सम्मान अपार //



हिंदी भाषा देश को करती है धनवान

अंग्रेजी को छोड़ कर ,इसको देना मान //

हिंदी दिन है आ गया ,ख़ुशी…

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Added by Sarita Bhatia on September 14, 2013 at 10:00am — 23 Comments

पीने लगे हैं लोग पिलाने लगे हैं लोग

२२१२   १२१     १२२१   २२२१

पीने लगे हैं लोग पिलाने लगे हैं लोग

महफ़िल को मयकदों सा सजाने लगे हैं लोग

 

दिल में नहीं था प्रेम दिखाने लगे हैं लोग

जब भी मिले हैं, हाथ मिलाने लगे हैं लोग

 

आयी थी रूह बीच में जब भी बुरे थे काम

अब तो सदाये रूह दबाने लगे हैं लोग

 

कश्ती बचा ली, खुद को डुबो कहते थे मल्हार

खुद को बचा के नाव डुबोने लगे हैं लोग

 

रखनी जो बात याद किसी को नहीं थी याद

जो भूलना नहीं था भुलाने…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on September 14, 2013 at 9:00am — 19 Comments

!!! डर गई है यह धरा !!!

!!! डर गई है यह धरा !!!

बह्र -2122 212



मिल गया रब देख ले।

क्या मिला सब देख ले।।



जिंदगी है मौत सी,

कल कहां कब देख ले।



राम जाने क्या हुआ,

आसमां अब देख ले।



रात काली हो गयी,

बर्फ का ढब देख ले।



कल जहां पर जश्न था,

मौत-घर अब देख ले।



फिर अहम आलाप है,

भोर की शब देख ले।



हम किसे आवाज दे,

साथ में रब देख ले।



रात ढलती जा रही,

निश अजायब देख ले।



आज आभा…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 14, 2013 at 5:57am — 12 Comments

बुरा लगता है

तुम से न हो अगर बात तो बुरा लगता है,

तुम से न हो अगर मुलाकात तो बुरा लगता है!

तुमसे मिलने की तारीखें तो तय कर लूँ,

मगर हो जाये फिर बरसात तो बुरा लगता है!

हर पल है चाह तेरी हर पल तेरी ही आरजू है,

तेरे दीदार की दिल में कोई जुस्तजू जगी है,

न समझो तुम मेरे  जज्बात तो बुरा लगता है!

सदियों से चाह है तेरे दीदार की,

अब तो हद हो गयी मेरे इंतज़ार की,

ये दिन तो बीत जाते है सदियों से लम्बे,

मगर…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on September 13, 2013 at 10:16pm — 8 Comments

कुछ अधखुले बीज....

कुलबुलाते कुछ अधखुले बीज

मेरे बरामदे के कोने में पड़े हैं

शायद माँ ने जब फटकारे

तो गिर गए होंगे

बारिश के होने से कुछ पानी और

नमी भी मिल गयी उन्हें

सफाई करते ध्यान भी नहीं दिया

बड़ी लापरवाह है कामवाली भी

दो दिन हुए हैं और बीजों ने

हाथ पैर फ़ैलाने शुरू कर दिए

हाँ ठीक भी तो है

मुफ्त में मिली सुविधा से

अवांछित तत्व फलते-फूलते ही हैं

पर अब जब वो यूँही रहे तो

बरामदे में अपनी जड़े जमा लेंगे

फिर…

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Added by Priyanka singh on September 13, 2013 at 10:08pm — 24 Comments


मुख्य प्रबंधक
ग़ज़ल (गणेश जी बागी)

ग़ज़ल

वजन : 2212 2212

 

बकवास सारा आ गया,

खबरों में रहना आ गया ।1। 

 

जो धड़कनें पढ़ने लगे, 

तो शेर कहना आ गया ।2।

 

जब सिर बँधी पगड़ी मेरे,

तब ही से सहना आ गया ।3।

 

जब से सियासत सीख ली,

कह के मुकरना आ गया ।4।

 

दो बेटियों का बाप हूँ,

मुझको भी डरना आ गया ।5।

(मौलिक व अप्रकाशित)

पिछला पोस्ट => …

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2013 at 9:00pm — 41 Comments

मैं दामिनी हूँ

मैं दामिनी हूँ



आप की जैसी एक जिंदगानी हूँ

जीना था मुझे आप की तरह

रोज़ सवेरे उठकर ऑफिस जाना था

एक छोटा सा घर बनाना था।



किसीकी बहन तो थी ही

किसीकी जननी भी कहलानी थी

माँ मुझे जीना था।



आज जल गया मेरा सवेरा

टूट गये सारे अरमान मेरे

जा रही मैं इस दुनिया को छोड़ कर

मगर माँ मुझे जीना था

रोज़ सवेरे आप का पैर छूना था।



उजाड़ गयी दुनिया मेरी

पर एक ख्वाब मुझे बुनना था

मगर माँ मुझे जीना था।



कैसे…
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Added by Lata tejeswar on September 13, 2013 at 8:30pm — 24 Comments

एक शाम --( कविता )

एक शाम

उदास सी थी

निस्तेज , निशब्द , निस्पंदित

निहारती सी

दूर तलक शून्य मे।  

कर्तव्य विहीन, कर्म विहीन

अचेतन जड़ हो गए जो

पुकारती सी

दूर तलक शून्य मे ।

नेपथ्य से कुछ सरसराहट

वैचारिक या मौन

विजयी पर प्रसन्न नहीं

श्रोता सी

दूर तलक शून्य मे ।

अन्तर्मन के क्रंदन को

छिपा मुख मण्डल पर खेलती जो

अलौकिक आभा थी

दूर तलक शून्य मे ............... ।  

 

 

अप्रकाशित…

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Added by annapurna bajpai on September 13, 2013 at 5:39pm — 26 Comments

आग की एक चिंगारी

आग की एक चिंगारी

सियासत के तूफानी थपेड़े झेल ,

फैली मीलो एक चिंगारी,

मिटाने को आतुर ,

निगल लेने को सबकुछ,

अंतर न अपने का ना पराये का ,

ना जातिवाद कोई ना ही कोई धरम ,

मुंह खोल आगे को बढ़ी आती ,

ना देखती दोष किसी का ,

न निर्दोष की चिंता ,

ना कोई लालच न कोई गम ,

चिरनिंद्रा में सुलाने को आतुर ,

एक छोटी सी चिंगारी ,

ये दोष है हम सबका ,

या नियति का लिखा ,

एक भूल है हम सबकी ,

जो इसके शिशु…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on September 13, 2013 at 4:30pm — 4 Comments

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