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कुंडलिया छंद-लक्ष्मण लडीवाला

(1)

कन्या होती भाग्य से,रखना इसका मान

कन्या घर में आ रही, ले गौरी  वरदान |

ले गौरी वरदान,  आँगन कुटी मह्कावे,

घर आँगन चमकाय,कुसुम कलियाँ खिलजावे

शिक्षा का हो भान, बनावे शिक्षित सुकन्या

रखती मन में धैर्य,कष्ट सहती है कन्या

.

(2)

जन्मे बेटी भाग्य से, घर को दे मुस्कान

पालन -पौषन  साथ ही, पावे  शिक्षा ज्ञान |

पावे  शिक्षा ज्ञान, समाज बने संस्कारी   

नारी का हो मान, करे…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 12, 2013 at 11:30am — 15 Comments

कि तुझसे हो के, हर एक शेर हर ग़ज़ल गुज़रे...

कुछ इस तरह से, मेरी ज़िन्दगी का पल गुज़रे ।

ह्रदय की पीर, मेरे आंसुओं में ढल गुज़रे ।।

तुझे मै देख के लिक्खूं , या सोच के लिक्खूं ।

कि तुझसे हो के, हर एक शेर हर ग़ज़ल गुज़रे ।।

यूँ तो एक रोज़ गुज़ारना है दिल की धड़कन को ।

पर तुझे देख के धडके, धड़क के दिल गुज़रे ।।

वो तेरा दर की जहाँ हम बिछड़ गए थे कभी ।

हो के हर रोज़ उसी दर से, ये पागल गुज़रे ।।

वो एक दिन की वीर खुशियों का सिकंदर था ।

ये एक दिन, की तेरे गम…

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Added by Anil Chauhan '' Veer" on September 12, 2013 at 11:00am — 6 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बदलियों से चाँदनी का झिलमिलाना शेष है।

घन तिमिर में दीपकों का बुदबुदाना शेष है॥

सावनों की खो चुकी झड़ियाँ कहीं मिल जाएँगी,

देवदारों की कतारों का सजाना शेष है।

फिर घृणा उन्मादिनी सी दौड़ती है प्राण में,

प्रीत के आखर अढ़ाई कसमसाना शेष है।

हलचलों में खो चली है रात की नि:शब्दता,

भोर की पहली किरण का खिलखिलाना शेष है।

रूढ़ियों के बाँध सारे तोड़ कर कविता बहे,

पीर की प्राचीर में यूँ छटपटाना शेष है।

फिर परिन्दों ने बदल दी आज उड़ने की अदा,

हाय! लेकिन… Continue

Added by Ravi Prakash on September 12, 2013 at 8:30am — 21 Comments

कुंड़ली

काम कैसे कठिन भला, हो करने की चाह ।
मंजिल छुना दूर कहां, चल पड़े उसी राह ।।
चल पड़े उसी राह, गहन कंटक पथ जावे ।
करे कौन परवाह, मनवा जो अब न माने ।।
जीवन में कुछ न कुछ कर, जो करना हो नाम ।
कहत ‘रमेश‘ साथी सुन, जग में पहले काम ।।

......................................
मौलिक अप्रकाशित (प्रथम प्रयास)

Added by रमेश कुमार चौहान on September 11, 2013 at 11:30pm — 7 Comments


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थक के हारा, कभी मरा भी है (ग़ज़ल)

2122 1212  22

कुछ बहा पर बचा ज़रा भी है

जख़्म लेकिन, कही हरा भी है

जिनको बांटा उन्हें मिला भी पर

प्यार से दिल मेरा भरा भी है

ख़्वाब ताबीर तक कहाँ पहुंचा

थक के हारा,…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 11, 2013 at 10:00pm — 35 Comments

यादें

यादें

भूली बिसरी यादें ,

कुछ मिट गयी कुछ है अमिट,

एक पल मिल जाये तो संजो लूँ इन्हें ,

कुछ खुबसूरत

कुछ दर्द छेडती,

लबो पे मुस्कान सजाती यादें ,

जख्मो को उघाडती यादें ,

मन के किसी कोने में बसी यादें ,

जिंदगी का इम्तिहान बनी यादें ,

एक पल मिल जाए तो संजो लूँ इन्हें ,

कुछ में उभरता उसका अक्स ,

कुछ कोहरे सी छाई होशोहवास पे ,

खुद में खुशियाँ अपार लिए ,

कुछ गमो का एक संसार लिए ,

धुंधली सी…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on September 11, 2013 at 8:08pm — 5 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-६८ (तरुणावस्था-१५): रेल से आंध्रा का सफ़र

(आज से करीब ३१ साल पहले)

किसी उदास दिन, किसी खामोश शाम, और किसी नीरव रात सा ये सफ़र मुझे बेचैन कर गया. रेल सरपट भागी जा रही थी और नज़ारे, खेत और खलिहान पीछे. दोपहर की वीरानगी में स्त्री-पुरुषों के साथ बच्चों को खेतों पे काम करते देख मन अजीब पीड़ा से भरता जा रहा था. गाड़ी भागती जा रही थी मगर बंजर दिखते खेत और पठारी एवं असमतल भूमि का कहीं अंत नहीं दिख रहा था. बैल हल का जुआ कंधे पे थामे, किसान अरउआ हाथ में पकड़े, औरतें और बालाएं हाथ में हंसिया लिए झुकी कमर, खामोशी, और निस्तब्धता…

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Added by राज़ नवादवी on September 11, 2013 at 4:51pm — 6 Comments

उठी जो पलकें तीर दिल के आर-पार हुआ

१२२२     १२१२     १२१२         ११२

उठी जो पलकें तीर दिल के आर-पार हुआ

झुकी जो पलकें फिर से दिल पे कोइ वार हुआ

फकत जिसको मैं मानता रहा बड़ी धड़कन

नजर में जग की हादसा यही तो प्यार हुआ

गुलों को छू लें आरजू जवां हुई दिल में

लगा न हाथ था अभी वो तार –तार हुआ

हसीनों की गली में था बड़ा हँसी मौसम

मगर जो हुस्न को छुआ तो हुस्न खार हुआ

किया जो हमने झुक सलाम हुस्न शरमाया

नजर जो फेरी हमने हुस्न…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on September 11, 2013 at 9:00am — 14 Comments

मै आदमी हूँ / दिलीप कुमार तिवारी

 मै आदमी हूँ

सम्बेदंशील हूँ

मुझे  कई आदमी

कहलाए जाने वालों

ने   छला है I



छाछ फूककर  

पीता हूँ हर-बार

क्यों की मेरा मुह

दिखावे के गर्म दूध से जला है I I



कल्पनाओ का समंदर

मेरे मन में भी है

कुछ पाने की चाह में

जीवन की राह  में  तुमसे मिला है I I I



मुझे रोकना नहीं

टोकना नहीं तुम

बढने दो मेरे पैर

ये हमारी दुश्मनी बदल कर

दोस्ती का सिलशिला है I I I I



मौलिक /अप्रकाशित

दिलीप कुमार तिवारी…

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Added by दिलीप कुमार तिवारी on September 11, 2013 at 12:59am — 12 Comments

!!! पाठशाला बेमुरव्वत !!!

!!! पाठशाला बेमुरव्वत !!!

लोग मन को जांचते हैं,

भांप कर फिर काटते हैं।।

जब किसी का हाथ पकड़ें,

बेबसी तक थामते हैं।

धूप में बरसात में भी,

छांव-छतरी झांकते हैं।

दोस्तों से दुश्मनी जब,

रास्ते ही डांटते हैं।

छोड़ते हैं दर्द विषधर

बालिका को साधते हैं।

आज गरिमा मर चुकी जब,

गीत - कविता भांपते हैं।

जिंदगी में शोर बढ़ता

रिश्ते सारे सालते हैं।

पाठशाला…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 10, 2013 at 10:22pm — 20 Comments

शायर की शायरी के लिए जान हैं आँखें.....

आशिक के दिल की ख्वाहिशो अरमान हैं आँखें । 

कुछ दिन से ये लगता है, परेशान हैं आँखें ॥ 

एक दिन तुझे देखा था, किसी राहगुज़र पे । 
उस दिन से उसी राह पे, मेहमान हैं आँखें ॥ 
 
होती हैं मेहरबाँ, तो ये उठकर के हैं गिरतीं । 
हो जाएँ बेमेहर, तो तूफ़ान हैं आँखें ॥ 
 
महबूब की कुर्बत में चमकती हैं ये अक्सर ।     
मौसम हो जुदाई का, तो बेजान हैं आँखें…
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Added by Anil Chauhan '' Veer" on September 10, 2013 at 10:10pm — 12 Comments

ग़ज़ल : मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

 

मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ

 

मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी

तीखी ढलान पे न फिसलती हैं चींटियाँ

 

रक्खी खुले में यदि कहीं थोड़ी मिठास हो

तब तो न उस मकान से टलती हैं चींटियाँ

 

पुरखों से जायदाद में कुछ भी नहीं मिला

अपने ही हाथ पाँव से पलती हैं चींटियाँ

 

शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई

अक्सर मेरे बदन पे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 10, 2013 at 8:47pm — 29 Comments

एक बार फिर

एक बार फिर 

इकट्ठा हो रही वही ताकतें 

एक बार फिर 

सज रहे वैसे ही मंच 

एक बार फिर 

जुट रही भीड़

कुछ पा जाने की आस में

              भूखे-नंगों की 

एक बार फिर 

सुनाई दे रहीं,

वही ध्वंसात्मक  धुनें 

एक बार फिर 

गूँज रही फ़ौजी जूतों की थाप  

 

एक बार फिर 

थिरक रहे दंगाइयों, आतंकियों के पाँव 

एक बार फिर 

उठ रही लपटें

धुए से काला हो…

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Added by anwar suhail on September 10, 2013 at 8:34pm — 10 Comments

कान्हा

एक पुरानी रचना को कुछ गेय बनाने का प्रयास किया है। देखें, कितना सफल रहा।

 

इन नयनों में आज प्रभू

आकर यूं तुम बस जाओ

जो कुछ भी देखूं मैं तो

एक तुम ही नजर आओ

 

धरती-नभ दूर क्षितिज में

ज्यों आलिंगन करते हैं

मैं नदिया बन जाऊं तो

तुम भी सागर बन जाओ

 

वह सूरत दिखती उसको

जैसी मन में सोच रही

सब तुमको ईश्वर समझें

मेरे प्रियतम बन जाओ

 

देर भई अब तो कान्हा

मत इतना तुम…

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Added by बृजेश नीरज on September 10, 2013 at 7:30pm — 18 Comments

उसको भुलाऊं कैसे ?

गरूर से उठा ये सर मैं झुकाऊ कैसे ?

अपनी यादों से उसके साए मिटाऊं कैसे ?

गुजरा है जिंदगी का हर पल उसी के पहलूँ में !

उसकी साँसों की महक को मैं  भुलाऊं कैसे ?

शिकवा रहा है उसको मेरे न मनाने का यारो ,

मालुम नही ये फन मुझे उसको ये बताऊँ कैसे ?

बड़ा बेगैरत होकर निकला हूँ उसके कूंचे से मैं ,

फिर उससे मिलने उसी दर पे मैं जाऊं कैसे ?

दिलके अरमानो की किश्ती तो  तूफ़ान में बह गयी ,

अब टूटी पतवार को साहिल पे लाऊं कैसे ?

दिल तडपता है…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on September 10, 2013 at 5:09pm — 5 Comments

तू मेरे नाम से बदनाम हो जाए

दिल की धड़कन को कुछ तो आराम हो जाए,

मेरे दिल की वादियों में तेरी जिंदगी की शाम हो जाए,

न हो हासिल कुछ भी अगर  इस मोहब्बत में मुझे ,

तो खुदा करे की तू मेरे नाम से बदनाम हो जाए!

वक़्त भर ही देगा वो जख्म जो मिले है मुझे तेरी चाहत में ,

बर्बाद ही हो गया हूँ मैं तेरी झूठी मोहब्बत में ,

इससे ज्यादा और मिलना भी क्या था इस उल्फत में ,

सजदे किये थे मैंने तेरे लिए खुदा की इबादत में ,

वक़्त की आँधियों में तू कहीं गुमनाम हो जाए…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on September 10, 2013 at 4:00pm — 7 Comments

मन चंचल --

मन के उपजे कुछ हाइकू  आपके समक्ष --

मन के भाव

शांत उपवन में 

पाखी से उड़े .

उड़े है  पंछी

नया जहाँ बसाने

नीड है खाली ।

मन की पीर

शब्दों की अंगीठी से

जन्मे है गीत।

सुख औ दुःख

नदी के दो किनारे

खुली किताब।

मै का से कहूँ

सुलगते है भाव

सूखती जड़े।

मोहे न जाने

मन का सांवरिया

खुली…

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Added by shashi purwar on September 10, 2013 at 1:30pm — 16 Comments

मधुशाला

वन नन्दन था वय षोडश कंचन देह लिए चलती वह बाला
शुचि स्वर्ण समान लगे शुभ केश व चन्द्र प्रभा सम वर्ण निराला
नृप एक वहीं फिरता मृगया हित यौवन देख हुआ मतवाला
वह नेत्र मनोहर मादक थे मदमस्त हुआ न गया मधुशाला
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ


मौलिक व अप्रकाशित

Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on September 10, 2013 at 1:00pm — 25 Comments

!! आओ बैठे बात करे !!

!! आओ बैठे बात करे !!

 

कुछ तुम्हारे कुछ हमारे  आओ बँया जज्बात करे । 

आओ बैठे बात करे,  आओ बैठे बात करे ।

गुजर गये जो लम्हे प्यारे, आओ उनको याद करे ।

आओ बैठे बात करे,  आओ बैठे बात करे ।

 

क्या याद है  वो माली काका, जिसके  आम चुराया करते थे ।

क्या याद है  वो अब्बू चाचा, जिसकी भेड छुपाया करते थे ।

क्या याद है…

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Added by बसंत नेमा on September 10, 2013 at 12:30pm — 17 Comments

मैं देव न हो सकूंगा

सुनो ,

व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !

अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?

बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !

मैं देव न हुआ !

 

सुनो ,

प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !

तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !

मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !

तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !

मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !

(मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा !)

 

सुनो…

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Added by Arun Sri on September 10, 2013 at 11:30am — 23 Comments

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