मुंह अँधेरे सुबह में तुम मुस्कुरा रहे थे,
धूप जैसे ही खिली तुम खिलखिला रहे थे.
दोपहर के ज्वाल में तुम बल खा रहे थे.
शाम को फिर क्या हुआ जो मुंह छिपा रहे थे.
फूल जैसा ये है जीवन बाल यौवन अरु जरा.
फूल की खुशबू कभी तो कील से यह पथ भरा.
पाल मत प्यारे अहम तू एक दिन तू जायेगा.
सारी दौलत संगी साथी काम न कोई आयेगा.
गर किया सद्कर्म वह तू साथ लेकर जायेगा
तेरे जाने पर भी निशदिन तेरे ही गुण गायेगा
(मौलिक व…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on September 8, 2013 at 5:00pm — 14 Comments
इस रचना में एक अधिवक्ता की पत्नी का दर्द फूट पड़ा है ..................
ना जइयो तुम कोर्ट हे !
मेरे दिल को लगा के ठेस ....
जब जग जाहिर ये झूठ फरेबी
बार-बार लगते अभियोग
अंधी श्रद्धा भक्ति तुम्हारी
क्यों फंसते झूठे जप-जोग
आँखें खोलो करो फैसला
ना जाओ लड़ने तुम केस .............
ना जइयो तुम कोर्ट हे !
मेरे दिल को लगा के ठेस…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on September 8, 2013 at 4:30pm — 12 Comments
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
जब तक था लड़ता रहा
कभी गर्म लू के थपेड़ों को
बरसात, खून जमाने वाली
ठंड को सहता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
उसकी शाखों को काट- काट कर
लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये
खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये
जुल्म की आग में वो जलता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
उम्र कोई उसकी कम न कर सका
जब तक जीना था वो जिया
जब तक हरा भरा जवान था
हवा व छांव…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on September 8, 2013 at 3:30pm — 16 Comments
गणेशोत्सव- हे विघ्न विनाशक
अनाचार है, अत्याचार है, गणपति इसका निदान करें।
कुछ न सूझे तो हे बप्पा , मेरे कथन पे विचार करें॥
विघ्न डालें उनके कार्य में, जो हैं देश के भ्रष्टाचारी ।
लेकिन उन्हें निराश न करना, द्वार जो आए सदाचारी॥
नवरात्रि
न फूहड़ वस्त्र न बेशर्मी, सब कुछ शुभ हो त्योहारों में।
गरबा हो या नृत्य कोई , तन हो पवित्र त्योहारों में॥
खेल नहीं है माँ की पूजा, विधि विधान…
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 8, 2013 at 1:30pm — 4 Comments
जीवन है क्या ?
मन के यक्ष प्रश्न
सुख या दुख ।
मेरा मन
पथ भूला राही है,
जग भवर ।
देख दुनिया,
जीने का मन नही,
स्वार्थ के नाते ।
मन भरा है,
ऐसी मिली सौगात,
बेवाफाई का ।
कैसा है धोखा,
अपने ही पराये,
मित्र ही शत्रु ।
जग मे तु भी,
एक रंग से पूता,
कहां है जुदा ?
क्यों रोता है ?
सिक्के के दो पहलू
होगी सुबह ।
........‘रमेश‘.........
मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on September 8, 2013 at 11:42am — 7 Comments
तपती वसुन्धरा में
श्रम सक्ती के समन्वय रूपी खाद में
निर्माणों के
विशालकाय पेंड़ो को रोपता है
अपने कंधो के सहारे ढोता है
गरीवी का बोझ
जिसमे उसका स्वाभिमान
दबा हैं , कुचला है
मन अनंत गहराईयों में
डूबता उतराता चुप है
शांति समर्पण की अदभुत मिशाल "मजदूर "
वर्तमान भारत में खो गया है
निर्माणों के अंधे युग में आज
निर्माण से ही दूर हो गया है
मौलिक /अप्रकाशित
दिलीप तिवारी रचना -८ /९/१ ३
Added by दिलीप कुमार तिवारी on September 8, 2013 at 1:30am — 11 Comments
मन का "सुदामा होना"लाज़मी था
तेरी आखो के कृष्ण का इतना असर हो गया
क्या होती है गरीवी
सब कुछ खो जाने के बाद समझा
नही ,आमीर आदमी था
ये मिलन का इंतजार "द्रोपदी का चीर" हो गया
"भगीरथ प्रयत्न" कर-कर
मन आज अधीर हो गया
फिर भी "अग्नि परीक्षा" मेरी अधूरी है
आज भी मेरी-तेरी दूरी है
अंतर ह्रदय "दूर्वासा"है
क्रोध के ताप मे भी मिलने की आशा है
जानता है मन मिल कर तुमसे कुबेर हो जाएगा
संताप के ताप से फिर दूर हो जाएगा …
Added by दिलीप कुमार तिवारी on September 8, 2013 at 1:00am — 8 Comments
“आज गुरूजी कुछ विचलित लग रहे हैं, जाने क्या बात है? उनसे पूछूं, कहीं क्रोधित तो नहीं हो जायेंगे?” मन ही मन सोचते हुए उज्जवल ने एक निश्चय कर लिया कि गुरु रामदास जी से उनकी परेशानी का कारण पूछना है| वो हिम्मत जुटा कर गुरूजी के पास गया और उनसे पूछ लिया कि, “गुरूजी....! आप इस तरह से विचलित क्यों लग रहे हैं? कृपा करके अगर कोई दुःख हो तो अपने इस दास को बताएं|”
गुरूजी ने दुखी स्वर में कहा, “पुत्र, क्या बताऊँ, आजकल प्रतिदिन…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on September 7, 2013 at 10:45pm — 9 Comments
सन्ता-बन्ता पर टिके, यदि जनता का ध्यान |
शठ-सत्ता की समझ ले, पुन: जीत आसान |
पुन: जीत आसान, म्यान में रख तलवारें |
जान-बूझ कर जान, आम-जनता की मारें |
इक प्रकोष्ठ तैयार, ढूँढ़ता सकल अनन्ता |
बना नया हथियार, और भी लाये सन्ता ||
मौलिक / अप्रकाशित
Added by रविकर on September 7, 2013 at 7:33pm — 8 Comments
मेरी नज़रों में तो वो खरगोश ही था मोतवर
जिसने बाज़ी हारकर कछुए को कर डाला अमर
यूं हुई पलकों से रुखसत नींद कि लौटी नहीं
लाख ही उसको बुलाते रह गए हम रातभर
इश्क़ का जब-जब हुआ दिल हद से ज़्यादा बेक़रार
हुस्न ने तब- तब कहा कि और थोड़ा सब्र कर
ऐ क़लमकारो वो अह्सासे मुहब्बत भी लिखो
माँ की छाती मुंह में जब लेता है बच्चा दौड़कर
क़ायदे क़ानून के फंदे हैं बस मेरे लिए
उसने तो गठरी बनाकर रख दिया है ताक…
Added by Sushil Thakur on September 7, 2013 at 2:30pm — 16 Comments
वज्न: 2122 1122 1122 22/112
कोई याद अब करे है मुझको भुलाने के बाद
नक्श ढूँढे वो मेरा हस्ती मिटाने के बाद
हो गया गर्क़ सफीना मेरा इक तूफां में
चुप है अब मौजे-तलातुम यूँ डुबाने के बाद
लगती है बोली परस्तिश को अकीदत की यहाँ
अब यकीं लुटता है बाज़ार में आने के बाद
रोये क्यूं अपनी तबाही पे अब ऐ नादां तू
खुद मुदावे को गया जान से जाने के बाद
ऐ बशर अब न पशेमां हो नई सांस ले यूँ
इक नई…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on September 7, 2013 at 10:59am — 28 Comments
!!! सुख सभी तो चाहते हैं !!!
गजल बह्र - 2 1 2 2 2 1 2 2
प्रेम पूंजी बांटते हैं।
सुख सभी तो चाहते हैं।
दुःख अपना कौन बांटे,
साये पल्ला झाड़ते हैं।
सुख बड़े चंचल भटक कर,
पल में घर से भागते हैं।
रोशनी जब भी निकलती,
चांद - सूरज ताकते हैं।
फिर कभी उलझन न होती,
सांझ सुख मिल बांटते हैं।
चांदनी जब तरू में उलझी,
वृक्ष साया शापते हैं।
गर किसी ने की…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 7, 2013 at 9:26am — 18 Comments
!!! आत्मा रोज सफल है !!!
बह्र- 2122 1122 1122 112
दीप तन तेल पिए, गर्व बढ़ाये न बने।
ज्ञान बाती से मिले, तेज बुझाये न बने।।
रोशनी खूब बढ़े, रात छिपाती मुख को,
भोर में भानु उदय, आंख मिलाये न बने।।
हम सफर राह में, मिलते हैं बिछड़ जाते हैं।
छोड़ते दर्द दिलों में, ये मिटाये न बने।।
तेल औ दीप मिले, तर्क खड़ा मौन रहे,
तेज लौ मस्त जले, अर्श बताये न बने।।
आत्मा रोज सफल है, सुविचारक बनकर।
जिन्दगी आज…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 7, 2013 at 9:15am — 14 Comments
(आज से करीब ३१ साल पहले)
आज का दिन किताबों के साथ बीत गया. इतनी जल्दी मानो मेरी गति घड़ी के काँटों से भी तीव्रतर थी. शरतचंद्र की उपन्यासिका ‘बिराज बहु’ को आद्योपांत पढ़ने के दौरान मैं समय की हिमावर्त सडकों पे असहाय फिसलता गया. इस कृति ने मेरे मर्म को छू लिया था.
बिराजबहू उपन्यास की मुख्य पात्रा है जिसे लेखक ने अपनी जीवंत लेखनी के माध्यम से अत्यंत सशक्त और स्वाभाविक ढांचे में ढाला है. पात्रों के अंतर्संघर्ष में मुझे अपने ही समाज की असंगतियों, मानवीय भावनाओं,…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 7, 2013 at 7:00am — No Comments
पूर्वाग्रह तो छोडिये मिलिए स्व बिसराय
मुख धरे डली नून की मीठो स्वाद न पाय
अनुशासित होकर रहे पतंग उड़े अकास
भागी फिरे कुरंग सम डोर पिया के पास
सिकुड़े गलियारे सहन ऊँची मन दहलीज
गलती माली की रही कैसे बोये बीज
कब तक परछाई चले पूछ न कितनी दूर
धूप चढ़े सिर बावरी छाया थक कर चूर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by vandana on September 7, 2013 at 7:00am — 12 Comments
तुझको देखूं, तुझे चाहूँ, तुझी से प्यार करूँ ।
तेरे सिवा न किसी पर भी ऐतबार करूँ ॥
तू न आई है, ना आएगी, मेरे मिलने को ।
ये जानकर भी, मै बस तेरा इंतज़ार करूँ ॥
तू पशेमा नहीं होती है, बेवफा होकर ।
मै वफ़ा करके भी, अपने को शर्मसार करूँ ॥
तेरी रातें तो महकती हैं गुलाबों की तरह ।
अपनी रातों को बता कैसे लालाज़ार करूँ ॥
नींद उड़ जाए तेरी, जब भी मेरा नाम आये ।
मै चाहता हूँ तुझे, कुछ ऐसे बेक़रार…
ContinueAdded by Anil Chauhan '' Veer" on September 7, 2013 at 6:50am — 17 Comments
पहरों उन के साथ बिताये ,
दिल की बात नहीं कह पाए ।
तेरी खिड़की तनिक खुली है ,
शायद धूप निकल ही आये ।
इसी आस पर जीते हैं हम ,
शायद उनको प्यार आ जाए ।
दिल की बात कहाँ तक माने ,
दिल तो हर शै पर आ जाए ।
आज खुले रखो दरवाजे,
आज कोई शायद आ जाए ।
उन के अफ़साने में सुनना ,
शायद मेरा नाम आ जाए ।।
मुझको खंजर मारने वाले ,
तुझको मेरी उम्र लग जाए ।
आते जाते मिल जाते हो…
ContinueAdded by ARVIND BHATNAGAR on September 6, 2013 at 11:30pm — 13 Comments
समय बड़ा बलवान है ,देता सबको सीख !
पड़ जाती है माँगनी ,राजा को भी भीख !!१
अपना अपना बोलकर ,भरते अपना पेट !
मानवता भी चढ़ गयी ,यहाँ स्वार्थ की भेंट !!२
जहर उगलते है यहाँ ,आपस में ही लोग!
फिर कैसे सौहार्द हो ,कैसे जाये रोग !!३
अज्ञानी देने लगा ,जबसे सबको ज्ञान !
ऐसे मूर्ख समाज का ,कैसे हो कल्यान !!४
ऊँच नींच कोई नहीं ,सुन ईश्वर पैगाम !
बड़े प्रेम से खा गए ,सबरी के फल राम !!५
पैसे से होती यहाँ…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on September 6, 2013 at 9:00pm — 28 Comments
जिसने जाना नही इस्लाम
वो है दरिंदा
वो है तालिबान...
सदियों से खड़े थे चुपचाप
बामियान में बुद्ध
उसे क्यों ध्वंस किया तालिबान
इस्लाम भी नही बदल पाया तुम्हे
ओ तालिबान
ले ली तुम्हारे विचारों ने
सुष्मिता बेनर्जी की जान....
कैसा है तुम्हारी व्यवस्था
ओ तालिबान!
जिसमे…
Added by anwar suhail on September 6, 2013 at 8:14pm — 3 Comments
२ १ २ २ २ १ २ १ १ २ १ २
.
छोडो अपनी ढाई चाल बहुत हुआ
खून में आया उबाल बहुत हुआ
आम जनता की आवाज दबे नहीं
देश में लाये भूचाल बहुत हुआ …
ContinueAdded by rajesh kumari on September 6, 2013 at 7:30pm — 20 Comments
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2023
2022
2021
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