Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 5, 2013 at 10:30am — 18 Comments
मन की खिड़की पर जमा, छली कुल-जमा एक |
तीनों पाली में छले, बरबस रस्ता छेंक |
बरबस रस्ता छेंक, आह-उच्छ्वास छोड़ती |
पाऊँ कष्ट अनेक, व्यस्त हर कष्ट जोड़ती |
रविकर कैसा मोह, नहीं दे पाऊँ झिड़की |
चिदानन्द सन्दोह, बंद कर मन की खिड़की ||
मौलिक / अप्रकाशित
Added by रविकर on September 5, 2013 at 9:33am — 9 Comments
श्रांत मन का एक कोना शांत मधुवन-छाँव मांगे।
सरल मन की देहरी पर
हुये पाहुन सजल सपने,
प्रीति सुंदर रूप धरती,
दोस्त-दुश्मन सभी अपने,
भ्रमित है मन, झूठ-जग में सहज पथ के गाँव माँगे।
कई मौसम, रंग देखे
घटा, सावन, धूप, छाया,
कड़ी दुपहर, कृष्ण-रातें,
दुख-घनेरे, भोग, माया।
क्लांत है जीवन-पथिक यह, राह तरुवर-छाँव मांगे।
भोर का यह आस-पंछी
सांझ होते खो न जाये,
किलकता जीवन कहीं फिर
रैन-शैया सो न जाये।
घेर…
Added by Manoshi Chatterjee on September 5, 2013 at 6:53am — 21 Comments
करें हम
मान अब इतना
सजा लें
माथ पर बिन्दी।
बहे फिर
लहर कुछ ऐसी
बढ़े इस
विश्व में हिन्दी।।
गंग सी
पुण्य यह धारा
यमुन सा
रंग हर गहरा
सुबह की
सुखद बेला सी
धरे है
रूप यह हिन्दी।।
मधुरता
शब्द आखर में
सरसता
भाव भाषण में
रसों की
धार छलके तो
करे मन
तृप्त यह हिन्दी।।
तोड़कर
बॅंध दासता के
सभी…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 10:30pm — 32 Comments
राजनीतिज्ञ,
कुशल अभिनेता,
मूक दर्शक।
कुटनीतिज्ञ
कुशल राजनेता
मित्र ही शत्रु
शकुनी नेता
लोकतंत्र चैसर
बिसात लोग
लोकराज है
लोभ मोह में लोग
यही तो रोग
अपनत्व है ?
देश से सरोकार ?
फिर बेकार ।
सपना क्या था ?
शहीद सपूतो का
मिले आजादी ?
आजादी कैसी
विचार परतंत्र
वाह रे तंत्र
गांधी विचार
कैसे भरे संस्कार
कहां है खादी ?
विकास गढ़े…
Added by रमेश कुमार चौहान on September 4, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
कई साल बाद लौटा
बहुत कुछ बदला लगा
विकास ही विकास
कस्बा अब शहर हो चुका है
अरे ये क्या ?
जहाँ पेड़ों का एक झुण्ड था
वहाँ बड़ी बड़ी इमारतें
सीना ताने खड़ीं है
मृत पेड़ों की देह पर
ठहाके मारती
कोई दुःख नहीं
पेड़ों की
अकाल मृत्यु पर
विकास रुपी राक्षस को बलि देकर
खुश थे लोग
******************************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on September 4, 2013 at 8:27pm — 30 Comments
मौलिक एवं अप्रकाशित
तुम में ही लीन प्रान मेरे , प्राणों में मेरे प्रियवर हो
इसलिये विलग होकर भी तुम, मुझमे ही सदा निवासित हो
अलके पलकें भी रो रोकर , दो चार अश्रु ही चढ़ा रही
मेरे भगवन मेरे प्रियतम, बस राह धूल ही हटा रही
---
खुद के अन्दर तुम तक जाना, चरणोदक पीकर जी जाना
इस धूल धूसरित मन से ही , अपने प्रियतम में लग जाना
आकुल व्याकुल इस साधक पर, कुछ प्रेम सुधा बरसा…
Added by Ashish Srivastava on September 4, 2013 at 8:00pm — 21 Comments
नव गीत
*******
आ चल फिर बच्चे हो जायें
खेलें कूदे मौज मनायें
बिन कारण ही,
रोयें गायें , हँसे हँसायें,
आ चल फिर बच्चे हो जायें !
मेरी कमीज़ है गन्दी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 4, 2013 at 6:00pm — 30 Comments
बखियाने से साड़ियाँ, बने टिकाऊ माल |
लेकिन खोंचा मार के, कर दे दुष्ट बवाल |
कर दे दुष्ट बवाल, भूख नहिं देखे जूठा |
सोवे टूटी खाट, नींद का नियम अनूठा |
खोंच नींद तन भूख, कभी भी देगा लतिया |
रविकर रह चैतन्य, अन्यथा उघड़े बखिया ||
मौलिक / अप्रकाशित
Added by रविकर on September 4, 2013 at 4:25pm — 7 Comments
हास्य कॆ,,,,,दॊहॆ :- ---------------------
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करियॆ साजन आज सॆ, सब्जी लाना बन्द ।
दिन-दिन दुर्लभ हॊ रहीं, जैसॆ मात्रिक छंद ॥१॥
परवल पीली पड़ गई, मिर्ची गई सुखाय ।
बहुमत पाया प्याज नॆं,शासन रही चलाय ॥२॥
शपथ ग्रहण मॆंथी करॆ, मंत्री पद की आज ।
आलू कॆ सहयॊग सॆ, सिद्ध हुयॆ सब काज ॥३॥
लौकी कॊ तॊ चाहियॆ, रॆल प्रशासन हाँथ ।
कुँदरू गाजर घॆवड़ा, बावन संसद साथ ॥४॥
पालक खड़ी विपक्ष…
ContinueAdded by कवि - राज बुन्दॆली on September 4, 2013 at 3:30pm — 22 Comments
पाँव मेरे वहीं पर ठिठक से गए
जिस जगह तुम गए थे मुझे छोड़कर
मैं वहीं पर खड़ा ये ही देखा किया
कैसे जाता है कोई मुँह मोड़कर
कितने वादे किए थे तुमने मगर
इन कलियों को खिलना कहाँ था लिखा
इन शाखों पर चिड़िया चहकती नहीं
कब पेड़ों से पतझड़ हुआ था विदा
अब बहारें उधर से गुजरती नहीं
जो राहें तुम तन्हा गए छोड़कर
अश्क तो आँख से अब छलकते नहीं
सब घटा बन तुम्हारी तरफ हैं गए
चाँदनी मेरी छत पर ठहरती…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 3:00pm — 25 Comments
पुष्प भावों के चढाने आया
आज मैं सर को झुकाने आया
बस रही है आप की ही तो कृपा
बात ये दिल की जताने आया
कर्ज में डूबा है कतरा कतरा
कर्ज किंचित वो चुकाने आया
एक रिश्ता है गुरु चेले में
आज वो रिश्ता निभाने आया
ज्ञान दाता हो बिधाता सम तुम
दीप दिल का मैं जलाने आया
ज्ञान रग रग में समाहित जिनका
उनको कुछ दिल की सुनाने आया
जग में महती है जो रिश्ता…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 4, 2013 at 12:30pm — 14 Comments
घर ही उजाड़ दिया
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मतलब की दुनिया है
मतलब के रिश्ते हैं
कौन कहे मेले में
आज कहीं अपने हैं
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छोटे से पौधे को
बड़ा किया प्यार दिया
सींचा सम्हाल दिया
फूल दिया फल दिया
तूफ़ान आया जो
घर ही उजाड़ दिया
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बिच्छू के बच्चों ने
बिच्छू को खा लिया
इधर – उधर, डंक लिये
'खा' लो सिखा…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on September 4, 2013 at 11:00am — 12 Comments
संत लीला
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वेद पुराण वाचते करते गीता पाठ ।
बाबाजी के देखिये शाही ठाठ बाठ ।
शाही ठाठवाठ मे, कोई कमी न आये ।
वैरागी बन के बाबा, दौलत खूब कमाये । 1।
चार बार चन्दन घिसे, छिडके गंगा नीर ।
देख के नारी मोहनी, बाबा भये अधीर ।
बाबा भये अधीर के, भूले दुनियादारी ।
मोहमाया के…
ContinueAdded by बसंत नेमा on September 4, 2013 at 11:00am — 17 Comments
कुण्डलियाँ लिखने का प्रयास! (कृपया गुण दोष निकालें)
1.
मनमोहन को देखिये, बोल रहे हैं बैन
सोना नाहि खरीदिये, जाए दिल का चैन
जाए दिल का चैन, लम्पट लूट ले जाए
पैदल चलिए खूब, राखिये तेल बचाए.
विकट घड़ी में देश, पूरे विश्व में मन्दन
मन में रखिये धैर्य, स्वयम कहते मनमोहन!
2.
मेरा उनका आपका, भेद नहीं मिट पाय.
मन में संशय ही रहे, दूरी नित्य बढ़ाय..
दूरी नित्य बढ़ाय, मनुज मन अंतर लाये
झगड़ा रगडा होय,चैन मानव नहि पाए
कहे जवाहर…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on September 4, 2013 at 9:08am — 13 Comments
मुझको अब एक ख़्वाब समझने लगे हैं आप।
सूखा हुआ गुलाब समझने लगे हैं आप॥
यूं लखनऊ में रहके गुजारे जो चार दिन,
अपने को अब नवाब समझने लगे हैं आप॥
तस्वीर पर ज़रा सी जो तारीफ़ हो गयी,
अपने को माहताब समझने लगे हैं आप॥
दो चार जुगनुओं से ज़रा दोस्ती हुई,
अपने को आफ़ताब समझने लगे हैं आप॥
घर से निकल के आप जो सड़कों पे आ गए,
उसको ही इंकलाब समझने लगे हैं आप॥
दो चार ज़िंदगी में ग़लत लोग क्या…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on September 4, 2013 at 1:00am — 10 Comments
रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया,
औरों को खुशियाँ देने को, छुप-छुप के रोना सीख लिया।
ताने उलाहने सुन कर हम बने रहे हर बार अंजान,
वो यूं ही सताते रहे हमे समझा न कभी हमे इंसान।
मेरी आंखो के सागर का बूंद-बूंद तक लूट लिया और,
रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया।
मेरे मन की गहराई मे अब उलझनों का घेरा हैं
हर रात बीते रुसवाई मे, बेबस हर सवेरा है।
मौसम की कड़ी तपन मे घावों को सीना सीख लिया…
ContinueAdded by Vasudha Nigam on September 3, 2013 at 9:51pm — 17 Comments
है हंसी रात बस चले आओ
बहके जज़्बात बस चले आओ !
उसने वादा किया वफ़ा देंगे
दे रहा घात बस चले आओ !
ज़िन्दगी हो गई है आवारा
क्या सवालात बस चले आओ !
ठन्डे पानी मे भी बदन जलता
क्या ये बरसात बस चले आओ !
"म“ञ्जरी" अब सहा नही जाता
अरज़े हालात बस चले आओ !
अप्रकाशित एवम मौलिक रचना !
Added by mrs manjari pandey on September 3, 2013 at 8:30pm — 16 Comments
इश्क के मजार पर
पाकीजा रुह का दीया रखते वक्त
जैसे ही उसने चुन्नी से सिर ढांका
लौ थर्रा कर बोली
उसके साथ ही उसका
दीन और ईमान भी वापस लौट गया
उसके साथ ही
ख्वाब और खुलूस भी खो…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on September 3, 2013 at 8:30pm — 7 Comments
“दादी ये पराया घर क्या होता है ?” नन्ही जूही ने मचलते हुए दादी से पूछा । दादी ने प्यार से समझते हुए कहा “जब तुम बड़ी हो जाओगी खूब पढ़ लिख जाओगी तब हम तुम्हारा ब्याह एक अच्छे से राजकुमार से कर देंगे वो तुम्हें अपने घर ले जाएगा, उसी को कहते है पराया घर ।” उसने पूछा - " तो दादी जैसे आप भी पराए घर मे हो और माँ भी । बुआ को भी आपने पराये घर भेज दिया ।” दादी ने स्वीकृति मे सिर हिला दिया । उसकी उत्सुकता शांत नहीं हुई थी उसने फिर पूछा - “क्या भैया भी पराए घर जाएगा , दादा जी भी गए थे और…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 3, 2013 at 6:00pm — 32 Comments
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