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अपने को आफ़ताब समझने लगे हैं आप

मुझको अब एक ख़्वाब समझने लगे हैं आप।

सूखा हुआ गुलाब समझने लगे हैं आप॥

 

यूं लखनऊ में रहके गुजारे जो चार दिन,

अपने को अब नवाब समझने लगे हैं आप॥

 

तस्वीर पर ज़रा सी जो तारीफ़ हो गयी,

अपने को माहताब समझने लगे हैं आप॥

 

दो चार जुगनुओं से ज़रा दोस्ती हुई,

अपने को आफ़ताब समझने लगे हैं आप॥

 

घर से निकल के आप जो सड़कों पे आ गए,

उसको ही इंकलाब समझने लगे हैं आप॥

 

दो चार ज़िंदगी में ग़लत लोग क्या मिले,

दुनिया को ही ख़राब समझने लगे हैं आप॥

 

आँखों में मेरी अब भी तो परदा हया का है,

क्यूँ हमको बेनक़ाब समझने लगे हैं आप॥

 

वो लोग आजकल हैं जो ख़बरों की सुर्खियां,

उनको ही कामयाब समझने लगे हैं आप॥

 

थोड़ी सी मिल गयी है जो “सूरज” की रौशनी,

अपने को बारयाब समझने लगे हैं आप॥

 

डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”

 

आफ़ताब= सूरज, माहताब=चाँद, इंकलाब= क्रांति, बारयाब= पहुंचा हुआ

(मौलिक और अप्रकाशित )

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Comment by Dr.Prachi Singh on September 6, 2013 at 2:50pm

बहुत सुन्दर गज़ल आ० डॉ० सूर्या बाली जी 

बहुत समय बाद आपकी कोई गज़ल पड़ने को मिली... 

सादर धन्यवाद 

Comment by ARVIND BHATNAGAR on September 5, 2013 at 2:09pm
Wah janab..........

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 5, 2013 at 7:19am

आदरनीय सूर्या बाली जी , पूरी गज़ल बहुत सुन्दर !! एक एक शे र सुन्दर !! लाजवाब !! हार्दिक बधाई !!

Comment by बृजेश नीरज on September 5, 2013 at 6:25am

वाह! बहुत खूब! लाजवाब! आपको हार्दिक आभार!
वैसे मैं लखनऊ में रहता हूं लेकिन खुद को नवाब तो नहीं समझता। :)))))))))))))))))))))

Comment by Abhinav Arun on September 5, 2013 at 5:51am

लखनऊ में रह के .. घर से निकलके .. ख़बरों की सुर्ख़ियों वाले शेर वाह लाजवाब डॉ साहिब ...पूरी ग़ज़ल जिंदाबाद हुई है !! आपके भाव और ख़याल के क्या कहने और क्या सुन्दरता से शिल्प में पिरोया है ...बहुत बहुत बधाई !!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 5, 2013 at 3:20am

दो चार ज़िंदगी में ग़लत लोग क्या मिले,

दुनिया को ही ख़राब समझने लगे हैं आप॥.........वाह! क्या कहने, बहुत खूब

वो लोग आजकल हैं जो ख़बरों की सुर्खियां,

उनको ही कामयाब समझने लगे हैं आप॥.........यह शेर बहुत पसंद आया

उम्दा गजल पर दाद कुबूल कीजिये आदरणीय डा. सूर्या जी

Comment by annapurna bajpai on September 4, 2013 at 11:05pm

अति सुंदर आशआर , हर एक अपने आप मे कुछ न कुछ कहता हुआ । बहुत बधाई आपको इस सुंदर गज़ल रचना के लिए आदरणीय सूर्य बाली जी । 

Comment by Meena Pathak on September 4, 2013 at 10:10pm

वाह .. बहुत खूब... हार्दिक बधाई क़ुबूल करें आदरणीय

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 4, 2013 at 9:56pm

 सुरज भाई, राधे- राधे। हार्दिक बधाई इतनी सुंदर गजल और सटीक शब्दों के लिए॥ 

Comment by ram shiromani pathak on September 4, 2013 at 8:44pm

तस्वीर पर ज़रा सी जो तारीफ़ हो गयी,
अपने को माहताब समझने लगे हैं आप॥

दो चार जुगनुओं से ज़रा दोस्ती हुई,
अपने को आफ़ताब समझने लगे हैं आप॥

दो चार ज़िंदगी में ग़लत लोग क्या मिले,
दुनिया को ही ख़राब समझने लगे हैं आप॥///वाह आदरणीय बहुत खूब

वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही ज़ोरदार है लेकिन ये अशआर कुछ ज्यादा ही पसंद आये //हार्दिक बधाई आपको आदरणीय सुर्यबाली जी //सादर

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