अनुभव
आज फिर दिन क्यूँ चढ़ा डरा-डरा-सा
ओढ़ कर काला लिबास उदासी का ?
घटना ? कैसी घटना ?
कुछ भी तो नहीं घटा
पर लगता है ... अभी-अभी अचानक
आकाश अपनी प्रस्तर सीमायों को तोड़
शीशे-सा चिटक गया,
बादल गरजे, बहुत गरजे,
बरस न पाये,
दर्द उनका .. उनका रहा ।
सूखी प्यासी धरती, यहाँ-वहाँ फटी,
ज़ख़मों की दरारें ..... दूर-दूर तक
घटना ? .... कैसी घटना…
ContinueAdded by vijay nikore on September 17, 2013 at 12:00pm — 22 Comments
शान है मातृभूमि की, देश का स्वाभिमान ,
हिंदी बिंदी मात की, यह मेरा अभिमान //
यह मेरा अभिमान, अधिकार है यह सबका ;
दो इसको विस्तार, है कर्तव्य जन जन का ;
हिंदी दिन को आज, देना यह सम्मान है
अपनाओ सब मीत ,इसमें इसकी शान है //
................मौलिक व अप्रकाशित ..............
Added by Sarita Bhatia on September 17, 2013 at 11:00am — 12 Comments
रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,
आज कठोर होता चल तू।
जीवन है एक कठोर संग्राम,
इसे विजित कर आगे निकल तू।
क्या रखा है इस जगत में,
यह तो केवल छाया-माया है।
क्या रखा है इस जीवन में,
इसने तो केवल भरमाया है।
तेरा अपना कुछ भी नहीं है,
केवल भ्रम की एक छाया है।
जब छोड़कर जाना है सब,
तो क्यों तू इतना इतराया है।
जब झूठे हैं ये सारे बंधन,
क्यों इनमें स्वयं को रमाया है।
फिर तोड़ दे तू ये सारे बंधन,
इनके भ्रम से बाहर निकल तू।
रे मन ! दृढ़ता का बीज…
Added by Savitri Rathore on September 16, 2013 at 10:52pm — 22 Comments
मेरा मन
ढूंढे क्या ....
सुख आनंद
ये तो है छलावा
मन का भ्रम
प्रसन्नता
ये तो आनी जानी
है क्षणिक
संतुष्टि
ये है मोहताज़
अभिलाषाओं की
धैर्य स्थिरता
है ये स्वयं की सोच
मस्तिष्क उपज
शांति
पर किन मूल्यों पर
अंतःकरण या बाह्य:करण
पूर्णता का अहसास
ये तो है एक खामोशी
महसूस करने की
फिर भी
ढूंढता…
ContinueAdded by vijayashree on September 16, 2013 at 10:30pm — 13 Comments
१ -उस दिन
रोज़ की तरह
उस दिन भी वो मिलीं मुझसे
हँसते हुए
लेकिन हँसी
अजीब सी लगी उनकी
जैसे कोई ईमानदार कर्मचारी
बेइमान अफ़सर को इस्तीफ़ा सौपे
और वो मुस्कुरा दे
**********************************
२-ऐसा भी
रक्त पिपासु कीड़ा
आखिरी बूँद तक चूस गया
अरे ये क्या?
शिकारी कुत्ते भी है
हड्डियाँ चबाने के लिए
*******************************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक /अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on September 16, 2013 at 10:07pm — 26 Comments
वज़न -२२१२ २२१२
ठगते रहे सब प्यार में!
बिकता रहा बाज़ार में !!
लेने चला मै रौशनी!
पागल सा अन्धे गार में !!
खुद ही बताता है जखम !
थी धार क्या औज़ार में !!
कैसे नहीं गिरती भला !
थी रेत ही दीवार में !!
कैसे करूँ तारीफ़ मै!
दम ही कहाँ अशआर में !!
****************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on September 16, 2013 at 9:00pm — 34 Comments
अपना टूटा चश्मा विनोद की ओर बढ़ाते हुए जमना लाल जी ने कहा – “बेटा मेरा चश्मा कई दिनों से टूटा है , और ये पर्चा लो दवाइयाँ भी “.............। विनोद झुँझला गया – “ क्या पिता जी रोज रोज खिट खिट करते रहते हो मेरे पास इन सब फालतू कामों के लिए बिलकुल समय नहीं है , मै नौकरी करूँ उसकी टेंशन झेलूँ कि आपकी समस्या देखूँ ।” जमना लाल जी कहते रह गए कि – “ बेटा ............. । ”
पर बेटे ने न सुना न उनकी ओर देखा बस अपनी धुन मे चलता चला गया । आज वे थोड़ी थोड़ी लकड़ियां ला ला कर इकट्ठी कर रहे थे । बेटा और…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 16, 2013 at 7:00pm — 35 Comments
२१२२ २१२२ २१२
खोजता तू रेत पर जिनके निशान
अब सभी वो मीत तेरे आसमान
हैं घरोंदे तेरे रोशन जुगनुओं से
उनके घर दीपक जले सूरज समान
उनके घर में तब जवाँ होती है शाम
तीरगी में जब छुपे सारा जहान
वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे
देखते कब होता हम पर मिहरवान
वो नवाबों जैसी जीते हैं हयात
हम फकीरी को समझते अपनी शान
दौड़ कर ही तेज वो पीछे हुये थे
भूल बैठे गोल…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 16, 2013 at 3:30pm — 21 Comments
२ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २
रुक्न --फ़ाइलातुन ,फ़ाइलातुन,फ़ाइलुन
बह्र --रमल मुसद्दस महजूफ
पत्थरों से ज्यों मुहब्बत हो रही
गुगुनाने को तबीयत हो रही…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 16, 2013 at 2:00pm — 39 Comments
मदिरा मत समझो मुझे , नहीं नशे की चीज़
एक दीवानी प्रेम की , प्रेम से जाओ भीज
Added by Ashish Srivastava on September 16, 2013 at 1:00pm — 5 Comments
दहेज प्रथा
सामाजिक पतन
कैसी ये व्यथा !!
भ्रूण संहार
अंसतुलित हम
गिरता स्तर !!
घना कोहरा
छायी उदासीनता
न हो सवेरा !!
उम्र नादान
विलक्षण प्रतिभा
छू आसमान !!
कड़वा सच
गिरती नैतिकता
देख दर्पण !!
मौलिक व अप्रकाशित
(प्रवीन मलिक)
Added by Parveen Malik on September 16, 2013 at 12:30pm — 18 Comments
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बेशर्म लोगों की
बड़ी -बड़ी फ़ौज है
चोर हैं उचक्के हैं
लूट रहे मौज हैं
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थाने अदालत में
'चोर' बड़े दिखते हैं
नेता के पैरों में
'बड़े' लोग गिरते हैं
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बूढा किसान साल-
बीस ! आ रगड़ता है
परसों तारीख पड़ी
कहते 'वो' मरता है
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बाप की पगड़ी में
'भीख' मांग फिरता है
'नीच' आज नीचे…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on September 16, 2013 at 10:30am — 14 Comments
मुजरिम मैं नहीं पर मुफ़लिसी गोयाई छीन लेती है
दौलत आज भी इन्साफ की बीनाई छीन लेती है
हैं जौहर आज भी मुझ में वही तेवर भी हैं लेकिन
सियासत अब मेरे हाथों से रोशनाई छीन लेती है
नफरत थक गयी दामन मेरा मैला न कर पाई
मोहब्बत मेरे दामन से हर रुसवाई छीन लेती है
यही रहज़न कभी रहबर हुआ करता था बस्ती का
ग़रीबी रंग में आती है तो अच्छाई छीन लेती है
~सालिम शेख
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by saalim sheikh on September 15, 2013 at 10:02pm — 20 Comments
(आज से करीब ३१ साल पहले: साहित्य और आध्यात्म)
मैट्रिक की परीक्षा शेष होने के बाद के खालीपन में मैं अक्सरहा या तो हिंदी साहित्य की किताबे पढ़ने लगा हूँ या अध्यात्म की. दोनों ही तरह की किताबों की कोई कमी नहीं है हमारे घर में. ये मुझे मेरे नाना, मेरे पिता, मेरे मंझले चाचा, एवं मेरे बड़े भाई जो मुझसे उम्र में करीब १३-१४ साल बड़े हैं, से विरासत में मिली हैं. साहित्य में जहां टैगोर, शरतचंद्र, प्रेमचंद्र, टॉमस हार्डी जैसे कथाकारों की किताबें भरी पडी हैं वहीं अध्यात्म एवं दर्शन में…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 15, 2013 at 10:00pm — 8 Comments
1.बीता हिन्दी दिवस भी, मना लिए सब जश्न!
न्याय लेख भी हो हिंदी, कौन करेगा प्रश्न!
2.नियम सरलता से बने, सब कुछ हो स्पष्ट
तर्क कुतर्क न बन जाय, बने वकील न भ्रष्ट.
3.मूल्य कर्म अनुरूप हो, हो न कोइ कंगाल.
दोउ हाथ दो पैर सम, अलग क्यों हो भाल!
4.मिहनत से धन आत है, बिन मिहनत धन जात.
मिहनत कर ले रे मना, काहे नहीं बुझात!
5.अहंकार को त्याग कर, करिए सदा सत्कर्म,
सोने की लंका गयी, बूझ न रावण मर्म.
6.नारी को सम्मान कर, नारी शक्ति महान
…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on September 15, 2013 at 8:32pm — 12 Comments
अजीब विडम्बना है
कि अपने दुखों का कारण
अपने प्रयत्नों में नहीं खोजते
बल्कि मान लेते हैं
कि ये हमारा दुर्भाग्य है
कि ये प्रतिफल है
हमारे पूर्वजन्मों का...
अजीब विडम्बना है
जो मान लेते हैं हम
ब-आसानी उनके प्रचारों को
कि तंत्र-मन्त्र-यंत्र,
तावीजें-गंडे
शरीर में धारण कर लेने मात्र से
दूर हो जाएंगे हमारे तमाम दुःख !
अजीब विडम्बना है
लम्बी-लम्बी साधनाओं का
तपस्या का
मार्ग जानते हुए भी
हम…
Added by anwar suhail on September 15, 2013 at 8:24pm — 3 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 15, 2013 at 6:41pm — 2 Comments
अर्द्ध रजनी है , तमस गहन है,
आलस्य घुला है, नींद सघन है.
प्रजा बेखबर, सत्ता मदहोश है,
विस्मृति का आलम, हर कोई बेहोश है.
ऐसे में कौन रोता है , यहाँ?
रंगशाला रौशन है, संगीत है, नृत्य है,
फैला चहुँओर ये कैसा अपकृत्य है.
जो चाकर है, वही स्वामी है
जो स्वामी है, वही भृत्य है .
ऐसे में कौन रोता है , यहाँ?
बिसात बिछी सियासी चौसर की
शकुनी के हाथों फिर पासा है .
अंधे, दुर्बल के हाथों सत्ता…
ContinueAdded by Neeraj Neer on September 15, 2013 at 4:30pm — 16 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on September 15, 2013 at 3:15pm — 14 Comments
भाषा
भाषा अभिव्यक्ति का ऐसा साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों और भावों को प्रकट करता है और दूसरों के विचार और भाव जान सकता है।
संसार में अनेक भाषाएँ हैं, जैसे- हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, बँगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, फ्रैंच, चीनी, जर्मन इत्यादि।
भाषा दो रूपों में प्रयुक्त होती है- मौखिक और लिखित। परस्पर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 15, 2013 at 2:30pm — 15 Comments
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