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मुसीबत जुटातीं ग़लत फहमियाँ-----ग़ज़ल

122 122 122 12

मुसीबत जुटातीं ग़लत फहमियाँ
सुकूँ यूँ चुरातीं ग़लत फहमियाँ

किसी रिश्ते के दरमियाँ आएँ तो
महब्बत जलातीं ग़लत फहमियाँ

जहाँ तक भी हो इससे बच के रहो
तबाही मचातीं ग़लत फहमियाँ

अगर गर्व हावी हुआ शक्ति पे
ग़लत पथ धरातीं ग़लत फहमियाँ

उन्हें सच से जिसने न पोषित किया
उन्हीं को चबातीं ग़लत फहमियाँ

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 10, 2019 at 10:11pm — 4 Comments

खुद्दार

सौंपी थी जिसे चाबी खुद्दार समझकर
सारा सामान लेकर चाबी वो दे गया
करता रहा भरोसा ताउम्र उसी पर
गुस्ताख़ की शक्ल भी धुँधला वो कर गया.
मायूस न हो …
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Added by JAWAHAR LAL SINGH on July 10, 2019 at 4:00pm — 2 Comments

अपने आप में

"यदि तुम्हें

उससे प्रेम है अनंत!

तो तुम स्वीकार

क्यूँ नहीं करते।

 

क्यूँ नहीं देख पाते

उसकी आंखों का सूनापन

जहाँ बरसों से नही बरसी…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 9, 2019 at 6:00pm — 2 Comments

ये भँव तिरी तो कमान लगे----ग़ज़ल

12112 12112

ये भँव तिरी तो, कमान लगे

तिरे ये नयन, दो बान लगे

कहीं न रुके, रमे न कहीं

इसे तू ही तो, जहान लगे

मैं जब से मिला हूँ तुम से, मिरी

हरेक अदा जवान लगे

अमिय है तिरी अवाज़ सखी

तू गीत लगे है गान लगे

है खोजती महज़ तुझे ही निगा'ह

न और कहीं मिरा धियान लगे

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 8, 2019 at 10:55pm — 5 Comments

श्वासों में....

श्वासों में....

मैं नहीं चाहता अभी 

मृत्यु का वरण करना 

प्रेम का वरण करना

शेष है अभी

श्वासों में

प्रतीक्षा की दहलीज़ पर

खड़े हैं कई स्वप्न

निस्तेज से

अवसन्न मुद्रा में

साकार होने को

मैं नहीं चाहता

सपनों की किर्चियों से

पलक पथ को रक्तरंजित करना

तिमिर गुहा में

यथार्थ से

साक्षात्कार करना

शेष है अभी

श्वासों में

अभी अनीस नहीं हुई

मेरी देह

ज़िंदा हैं आज भी…

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Added by Sushil Sarna on July 8, 2019 at 5:28pm — 2 Comments

आपका दिन (लघुकथा)

"मैं केक नहीं काटूँगी।" उसने यह शब्द कहे तो थे सहज अंदाज में, लेकिन सुनते ही पूरे घर में झिलमिलाती रोशनी ज्यों गतिहीन सी हो गयी। उसका अठारहवाँ जन्मदिन मना रहे परिवारजनों, दोस्तों, आस-पड़ौसियों और नाते-रिश्तेदारों की आँखें अंगदी पैर की तरह ताज्जुब से उसके चेहरे पर स्थित हो गयीं थी।

वह सहज स्वर में ही आगे बोली, "अब मैं बड़ी हो गयी हूँ, इसलिए सॉलिड वर्ड्स में यह कह सकती हूँ कि अब से यह केक मैं नहीं मेरी मॉम काटेगी।" कहते हुए उसके होठों पर मुस्कुराहट तैर गयी।

वहाँ खड़े अन्य सभी के…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 8, 2019 at 1:00pm — 3 Comments

ग़ज़ल

221 2121 1221 212

मुद्दत के बाद आई है ख़ुश्बू सबा के साथ ।

बेशक़ बहार होगी मेरे हमनवा के साथ ।।

शायद मेरे सनम का वो इज़हारे इश्क था ।

यूँ ही नहीं झुकी थीं वो पलकें हया के साथ ।।

वह शख्स दे गया है मुझे बेवफ़ा का नाम ।

जो ख़ुद निभा सका न मुहब्बत वफ़ा के साथ ।।

माँगी मदत जरा सी तो लहज़े बदल गए ।

अब तक मिले जो लोग हमें मशविरा के साथ ।।

आँखों में साफ़ साफ़ सुनामी की है…

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Added by Naveen Mani Tripathi on July 8, 2019 at 11:00am — 10 Comments

चक्र पर चल (छंदमुक्त काव्य)

विकसित से

हर पल जल

विकासशील

बेबस बेकल

होड़ प्रतिपल

छलके छल

भ्रष्टाचार-बल!

धरती घायल

सूखते स्रोत

उद्योग-दलदल!

उथल-पुथल

बिकता जल

दर-दर सबल

थकता निर्बल

धन से दंगल

नारे प्रबल

हर घर जल

सुनकर ढल

नेत्र सजल!

बड़ी मुश्किल

आग प्रबल

दूर दमकल

सीढ़ी दुर्बल

ज़िंदा ही जल!

जल में ही बल

जल है, तो कल

कर किलकिल

या फ़िर सँभल!

धाराओं का जल

बिन कलकल

नदियाँ बेकल

प्रदूषण-प्रतिफल!

प्रकृति ही…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 7, 2019 at 11:54am — 2 Comments

रजनीगन्धा मुस्कुराए न मुस्कुराए

कोई तो ऐसा दिन भी आए
कि रजनी हँसे रजनीगन्धा मुस्कुराए
बहुत दिन बीते बस यूँ ही रीते रीते
बहुत दिन बीते स्वयं ही जीते जीते
दे के मुल्क को बाकी दस महीने
अपने जो घर फ़ौजी सावन नहाए…
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Added by amita tiwari on July 7, 2019 at 2:30am — 3 Comments

नया सवेरा - -दीपक मेनारिया

सुनील बीती रात से करवट पर करवट ले रहा था, उसे किसी भी तरह सुबह होने का इंतज़ार था, आँखों से नींद कोसों दूर जा चुकी थी। उसे उम्मीद थी कि कल का सूरज उसके जीवन में नया सवेरा लायेगा क्यूंकि कल सुबह उसका आईआईटी का परिणाम आने वाला था किन्तु किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।

सुबह होने पर सुनील का मुंह लटक गया था। परिणाम आया और वह क्वालीफाई नहीं कर सका था। बड़े भाई ने उसकी मनोदशा देख कर प्यार से कहा, तुम परीक्षा में असफल हो गए, इस बात पर इतना अधिक दुख क्यों?

भैया, मैंने दिन-रात मेहनत की और आपका… Continue

Added by DEEPAK MENARIA on July 6, 2019 at 4:30pm — 1 Comment


सदस्य टीम प्रबंधन
..ऐसा हो तो फिर क्या होगा (गीत) ~ डॉ. प्राची

पूछ रहा हूँ मैं उन सच्ची ध्वनियों से जो मौन ओढ़ कर

मुझमें गूँजा करतीं हैं जो संदल-संदल अर्थ छोड़ कर...

...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?

...धुँआ-धुँआ बन कर खो जाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?

 

 

ऐ प्यासी धड़कन तू मेरी आस लगाए राह निहारे

मद्धम सी आहट सुनते ही मंत्रमुग्ध हो मुझे पुकारे

मैं तूफानी लहरों जैसा, तू तट के मंदिर में ज्योतित

क्यों आतुर है अपनाने को मझधारें तू छोड़ किनारे

 

कंदीलों की…

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Added by Dr.Prachi Singh on July 6, 2019 at 2:26am — 5 Comments

संकट

थक गया हूँ

चाहता हूँ

तनिक सा विश्राम ले लूँ

तोड़कर मैं अर्गला

नश्वर वपुष की

किन्तु संकट है विकट

ढूंढें नही मिलता मुझे 

इस ठौर पानी

एक चुल्लू साफ़

सिर्फ मरने के लिए

(मौलिक  अप्रकाशित) 

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 5, 2019 at 6:30pm — 7 Comments

वज़ह.....

वज़ह.....

बिछुड़ती हुई
हर शय
लगने लगती है
बड़ी अज़ीज
अंतिम लम्हों में
क्योँकि
होता है
हर शय से
लगाव
बेइंतिहा
दर्द होता है
बहुत
जब रह जाती है
पीछे
ज़िंदगी
जीने की
वज़ह

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on July 5, 2019 at 4:56pm — 4 Comments

गज़ल सीख लो

2122 2122 212

दर्द को दिल में दबाना सीख लो

ज़िन्दगी में मुस्कराना सीख लो

आंख से आंसू बहाना छोड़िये

हर मुसीबत को भगाना सीख लो

ज़िन्दगी है खेल, खेलो शान से

खेल में खुद को जिताना सीख लो

फूल को दुनिया मसल कर फैंकती

खुद को कांटों सा दिखाना सीख लो

छोड़ दें अब गिड़गिड़ाना आप भी

कुछ तो कद अपना बढ़ाना सीख लो

थी जवानी जोश भी था स्वप्न भी

दिन पुराने अब भुलाना सीख लो

कौन…

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Added by Dayaram Methani on July 4, 2019 at 9:30pm — 8 Comments

नादान बशर

दर्दों गम से हर कोई बेजार है,

हादसों की हर तरफ़ दीवार है।

 

बिक रहे हैं वो भी जो अनमोल हैं,

 कैसे नादानों का ये बाज़ार हैं।

 

सब्र अब सबका चुका लगता मुझे,

हर बशर लड़ने को बस तैय्यार है।

 

पल में तोला पल में माशा मत बनो,

ये भी जीने का कोई आधार है।

 

मुफलिसी के मारे लगते हैं सभी,

फ़िर भी ये लगते नहीं लाचार हैं।

 

जिसके हाथों में हैं ज्यादा पुतलियाँ,

उनकी ही उतनी बड़ी सरकार…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 4, 2019 at 6:00pm — 2 Comments

एक मुश्किल बह्र,"बह्र-ए-वाफ़िर मुरब्बा सालिम" में एक ग़ज़ल

अरकान:-12112 12112

न छाँव कहीं,न कोई शजर

बहुत है कठिन,वफ़ा की डगर

अजीब रहा, नसीब मेरा

रुका न कभी,ग़मों का सफ़र

तलाश किया, जहाँ में बहुत

कहीं न मिला, वफ़ा का गुहर

तमाम हुआ, फ़सान: मेरा

अँधेरा छटा, हुई जो सहर

ग़मों के सभी, असीर यहाँ

किसी को नहीं, किसी की ख़बर

बहुत ये हमें, मलाल रहा

न सीख सके, ग़ज़ल का हुनर

हबीब अगर, क़रीब न हो

अज़ाब लगे, हयात…

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Added by Samar kabeer on July 4, 2019 at 2:30pm — 36 Comments

ज़ीस्त

ज़ीस्त को मुझसे है गिला देखो

जी रहा हूँ मैं हौसला देखो

साथ रहते हैं एक छत के तले

दरम्याँ फिर भी फासला देखो

तुम जिधर जा रहे हो बेखुद से

वहीं आयेगा जलजला देखो

सँभाल ही लूँगा मरासिम…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 3, 2019 at 2:30pm — 4 Comments

मन नहीं करता

हर पन्ने पे होंगीं बलात्कार की खबरें,

इसलिए अखबार पढ़ने का मन नही करता।

परिवार की जड़ें उखड़ कर वृद्धाश्रम में आ गईं,

अब बच्चों को संस्कारी कहने का मन नही करता।

नंगी सड़क पे बचाओ बचाओ पूरे दिन चिल्लाता रहा,

फिर भी उसपे विश्वास करने का मन नही करता।

शरीर के इंच इंच पे, मैं राष्ट्रभक्त हूँ गुदवा रखा था,

फिर भी उसकी राष्ट्रभक्ति पढ़ने का मन नही करता।

कोई मोब्लिंचिंग तो कोई चमकी में मरा होगा इसलिए,

अब सुबह जल्दी…

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Added by DR. HIRDESH CHAUDHARY on July 3, 2019 at 8:14am — 4 Comments

ग़ज़ल नूर की- लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना

लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना

जाने अब कैसे कटेंगी सर्दियाँ तेरे बिना.

.

फैलता जाता है तन्हाई का सहरा ज़ह’न में

सूखती जाती हैं दिल की क्यारियाँ तेरे बिना.

.

साथ तेरे जो मुसीबत जब पड़ी, आसाँ लगी

हो गयीं दुश्वार सब आसानियाँ तेरे बिना.

.

तू कहीं तो है जो अक्सर याद करता है मुझे

क्यूँ सताती हैं वगर्ना हिचकियाँ तेरे बिना?

.

वक़्त लेकर जा चुका आँखों से ख़ुशियों के गुहर   

अब भरी हैं ख़ाक से ये सीपियाँ तेरे बिना.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on July 2, 2019 at 7:30am — 14 Comments

ये हुआ है कैसा जहाँ खुदा यहाँ पुरख़तर हुई ज़िंदगी (५२)

(११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२ )

.

ये हुआ है कैसा जहाँ खुदा यहाँ पुरख़तर हुई ज़िंदगी

न किसी को ग़ैर पे है यक़ीं न मुक़ीम अब है यहाँ ख़ुशी

**

कहीं रंज़िशें कहीं साज़िशें कहीं बंदिशें कहीं गर्दिशें

कहाँ जा रहा है बता ख़ुदा ये नए ज़माने का आदमी

**

कहीं तल्ख़ियों का शिकार है कहीं मुफ़्लिसी की वो मार है

मुझे शक है अब ये बशर कभी हो  रहेगा ज़ीस्त में शाद भी

**

कहीं वहशतों का निज़ाम है कहीं दहशतें खुले-आम हैं 

मिले आदमी से यूँ आदमी मिले अजनबी से जूँ…

Continue

Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 30, 2019 at 2:30am — 1 Comment

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