2212 121 1221 212
खोने लगा यकीन है अनजान आदमी ।
जब से बना है मौत का सामान आदमी ।।
बाज़ार सज रहे हैं नए जिस्म को लिए ।
बनकर बिका है मुल्क में दूकान आदमी ।।
ठहरो मियां हराम न खैरात हो कहीं ।
माना कहाँ है वक्त पे एहसान आदमी ।।
दरिया में डालता है वो नेकी का हौसला ।
देखा खुदा के नाम परेशान आदमी ।।
मजहब तो शर्मशार तेरी हरकतों पे है ।
कुछ मजहबी इमाम भी शैतान आदमी ।।
मतलब परस्तियों का जरा देखिये सितम ।
बेचा…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 30, 2016 at 2:30am — 5 Comments
Added by kanta roy on August 29, 2016 at 10:48pm — 7 Comments
नई बहू राधिका को कुछ समय ही ससुराल में बीता था कि राधिका ने देखा कि उसके ससुर देवीप्रसादजी बडे़ शांत स्वभाव वाले, मिलनसार और कर्मठता की जीती-जागती तस्वीर हैं। ससुर जी के इस व्यक्तित्व ने राधिका के ऊपर गहरा प्रभाव डाला। देवीप्रसादजी की उम्र लगभग अस्सी से भी अधिक हो चुकी थी। लेकिन उनका शरीर चुस्ती -स्फूर्ति का बेजोड़ नमूना था। वे हमेशा घर का सारा काम करते, उठा-पटक करते, घर की चीजों को संभालते। दिन-दिन भर बगिया के झाड़- झंखड़ हटाते, पौधों को पानी देते कुल मिलाकर देवीप्रसाद राधिका को हमेशा काम…
ContinueAdded by Mohammed Arif on August 29, 2016 at 6:30pm — 7 Comments
कभी-कभी खुद से बात करना
भी बड़ा अजीब सा होता है
कभी-कभी खुद को
सुनने का मन नहीं करता
जब सच खुद से बोला नहीं जा सकता
और
झूठ में जीना
मुश्किल लगता है.
ये मेरी अप्रकाशित रचना है.
अभिषेक शुक्ल
Added by ABHISHEK SHUKLA on August 29, 2016 at 5:10pm — 1 Comment
नव गीत
.
छा रहे बादल गगन में
जा रहे या आ रहे हैं?
टिपटिपाती चपल वर्षा
हो रही धरती सुगन्धित
आज आजाने को घर में
क्या पता है कौन बाधित?
देर से पंछी गगन में
पंख-ध्वज फहरा रहे हैं
श्याम अलकें गिर रही है
बैठ कांधे खिल रही है
पवन बैरन बाबरी सी
झूम गाती चल रही है
आँख में कजरा चमकता
मेघ नभ गहरा रहे हैं
सारिका की टेर सुन तरु
गुनगुनाने लग पड़े हैं
धूप की फिर से चिरौरी
भास्कर करने लगे…
Added by Abha saxena Doonwi on August 29, 2016 at 5:01pm — 5 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 29, 2016 at 11:30am — 8 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 29, 2016 at 10:18am — 8 Comments
Added by रामबली गुप्ता on August 28, 2016 at 11:00pm — 7 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 28, 2016 at 10:36pm — 4 Comments
" हैलो.." ट्रीन-ट्रीन की घंटी बजते ही स्नेहा फोन उठाते हुए बोली
" …
Added by नयना(आरती)कानिटकर on August 28, 2016 at 3:04pm — 12 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2016 at 11:16am — 13 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 28, 2016 at 10:54am — 2 Comments
कलाधर छन्द
शारदे समग्र काव्य में विचार भव्यता कि
सत्यता उघार के कुलीन भाव मन्त्र दें।
शब्द शब्द सावधान अर्थ की विवेचना
करें विशुद्ध भाव से सुताल छन्द तंत्र दें।।
व्यग्रता सुधार के विनम्रता सुबुद्धि ज्ञान
मान के समस्त मानदण्ड के सुयंत्र दें।
आप ही कमाल वाह वाह की विधायिनी
सुभाषिनी प्रवाह गद्य पद्य में स्वतन्त्र दें।।
मौलिक व अप्रकाशित
रचनाकार . .केवल प्रसाद सत्यम
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 28, 2016 at 10:37am — 6 Comments
Added by Samar kabeer on August 28, 2016 at 12:19am — 26 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 27, 2016 at 11:47pm — 10 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
जहाँ श्री राम की मूरत वहीं सीता बिठाते हैं
जपें जो नाम राधा का वहीं घनश्याम आते हैं
करें पूजन हवन जिनका करें हम वंदना जिनकी
वही दिल में हमारे ज्ञान का दीपक जलाते हैं
लिए विश्वास के लंगर चलें जो पोत के नाविक
समंदर के थपेड़ों से नही वो डगमगाते हैं
पराये देश में जाकर भले दौलत कमाएँ हम
हमारे देश के मौसम हमें वापस बुलाते हैं
भरे हम बैंक कितने भी मगर क्या बात गुल्लक…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 27, 2016 at 8:18pm — 9 Comments
2122 2122 2122
बेदिली के अनवरत ये सिलसिले हैं
इसलिये तो ख्वाब सारे अनमने हैं
बाद मुद्दत के सफ़र आया वतन तो
थे बशर बिखरे हुये घर अधजले हैं
बादलों औ बारिशों ने साजिशें कीं
भूख की संभावनायें सामने हैं
अस्ल ए इंसानियत मजबूत रक्खो
हर कदम पे ज़िन्दगी में जलजले हैं
इस शहर में चीखने से कुछ न होगा
गूंगी जनता शाह भी बहरे हुये हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 27, 2016 at 12:30pm — 10 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on August 27, 2016 at 1:33am — 9 Comments
थाम लो इन आंसुओं को
बह गए तो ज़ाया हो जाएंगे
इन्हें खंजर बना कर पेवस्त कर लो
अपने दिल के उस हिस्से में
जहाँ संवेदनाएं जन्म लेती हैं
उसके काँधे पर रखी लाश से कहीं ज्यादा वज़न है
तुम्हारी उन संवेदनाओं की लाशों का
जिन्हें अपने चार आंसुओं के कांधों पर
ढोते आए हो तुम
अब और हत्या मत करो इनकी
संवेदनाओं का कब्रस्तान बनते जा रहे तुम
हर ह्त्या, आत्महत्या, बलात्कार पर
एक शवयात्रा निकलती है तुम्हारी आँखों…
Added by saalim sheikh on August 26, 2016 at 1:00am — 4 Comments
22 22 22 22 22 22 22 22 -- बहरे मीर
छोटी मोटी बातों में वो राय शुमारी कर लेते हैं
और फैसले बड़े हुये तो ख़ुद मुख़्तारी सर लेते हैं
वहाँ ज़मीरों की सच्चाई हम किसको समझाने जाते
दिल पे पत्थर रख के यारों रोज़ ज़रा सा मर लेते हैं
चाहे चीखें, रोयें, गायें फ़र्क नहीं उनको पड़ता, पर
जैसे बच्चा कोई डराये , वालिदैन सा डर लेते हैं
कल का नीला आसमान अब रंग बदल कर सुर्ख़ हुआ है
पंख नोच कर सभी पुराने, चल बारूदी पर लेते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 25, 2016 at 5:28pm — 18 Comments
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